भारत का रिजर्व बैंक ब्याज दरें घटाने पर विचार कर रहा है, ऐसा सुना जा रहा है. लेकिन यह भी सुना जा रहा है कि वह अल निनो के मानसून पर प्रभाव का भी आकलन कर रहा है. अगर मानसून ठीकठाक रहा तो ब्याज दरें गिरने की संभावना बढ़ जाएगी. दरअसल मानसून के ठीक रहने से अनाजों, फल, सब्जियों वगैरह के दाम नियंत्रित रहते हैं और उनमें बेवजह तेजी नहीं आती. इससे मुद्रास्फीति की दर भी काबू में रहती है. यह मुद्रास्फीति ही है जिसे थामने के लिए सारी दुनिया के केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में बढ़ोतरी या कटौती करते रहते हैं. भारतीय रिजर्व बैंक भी इसी दिशा में चलता है.
दुनिया में महंगाई बढ़ने से विभिन्न देशों के विकास दर पर असर पड़ा
इस समय सारी दुनिया में बेपनाह महंगाई है. चीजों के दाम लगातार बढ़ रहे रहें हैं और कई देशों में तो मुद्रास्फीति की दर आसमान पर जा पहुंची है. पड़ोसी देश पाकिस्तान में जहां इस साल मई में मुद्रास्फीति की दर 38 फीसदी रही वहीं इंग्लैंड में 8.7 फीसदी तो अमेरिका में तो पिछले साल यह 8.58 फीसदी थी और इसके ही कारण फेडरल रिजर्व ने कई बार ब्याज दरों में बढ़ोतरी की. आईएमएफ का कहना है कि सारी दुनिया में महंगाई बढ़ने से दुनिया के विभिन्न देशों के विकास दर पर असर पड़ा है.
2023 में दुनिया के आर्थिक विकास की दर घटकर औसत 2.9 फीसदी हो जायेगी. दरअसल केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति को रोकने के लिए आक्रामक मौद्रिक नीति का सहारा लेते हैं जिसके अंतर्गत ब्याज दरें बढ़ाई जाती है जिससे अर्थव्यवस्था में धन की उपलब्धता घट जाती है. इससे कर्ज महंगा हो जाता है और कीमतों पर लगाम लग जाती है.
लेकिन पिछले दो सालों में हमने देखा कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों का यह प्रयास विफल हो गया और मुद्रास्फीति पर लगाम नहीं लग सकी. इसकी बड़ी वज़ह यह थी कि महंगाई के कारक भी बदल गये थे. कहीं इम्पोर्ट बंद या कम हो जाने से महंगाई बढ़ गई तो कहीं सरकार की खाद्यान्न योजनाएं विफल हो गईं तो कहीं सप्लाई लाइन टूट गई. सूखे और बाढ़ के कारण भी जिंसों के दाम बढ़ते चले गये. इन पर केंद्रीय बैंकों का कोई बस नहीं चलता. इसलिए इन देशों में ब्याज दरें बढ़ाने के बावजूद महंगाई कम नहीं हुई. वहां इस तरह की मौद्रिक नीति निरर्थक और महंगाई बढ़ाने वाली ही साबित हुई.
अब यह बात अमेरिका का फेडरल बैंक भी मानने लगा है, वहां मुद्रास्फीति की दर कई कारणों से घटने लगी है. इसलिए फेडरल बैंक ने 10 बार ब्याज दरें बढ़ाने के बाद अब इस पर विराम दे दिया है. मार्च 2022 में जहां देश में ब्याज दर शून्य थी वह फेडरल बैंक के लगातार बढ़ोतरी के कारण 5.25 फीसदी पर जा पहुंचा है. लेकिन मुद्रास्फीति की दर स्वतः घटने लगी और अब फेडरल बैंक ‘प्रतीक्षा करो’ की नीति पर काम कर रहा है. वहीं बाज़ार के विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका में ब्याज दरें और मुद्रास्फीति दोनों ही घटेंगी.
जानकारों का यह मानना है कि फेडरल बैंक के लगातार ब्याज बढ़ाने की नीति से देश में मंदी का माहौल बना है. यह और भी घातक है लेकिन सौभाग्य से अब फिर खरीदारी शुरू हो गई है जिससे तेजी आई है और जॉब मार्केट में भी मजबूती आई है.
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भारत में महंगाई की मार तो पड़ी लेकिन उतनी नहीं जितनी अन्य पड़ोसी देशों पर पड़ी. यहां की कृषि व्यवस्था मजबूत रही और 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने की योजना ने महंगाई को काफी हद तक थामे रखा. इस बीच भारत के रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति को नियंत्रण में लाने के लिए 2022 में छह बार रेपो रेट में बढ़ोतरी की और कुल 250 बीपीएस की बढ़ोतरी हुई.
इससे महंगाई तो नियंत्रण में नहीं आई लेकिन होम लोन और एजुकेशन लोन जैसे जरूरी कर्ज महंगे हो गये. लोगों की ईएमआई बढ़ गई और उनके खर्च करने की ताकत घट गई. दरअसल रिजर्व बैंक का लक्ष्य मुद्रास्फीति को 6 फीसदी से नीचे रखने का था. यह पिछले साल दिसंबर में 6 फीसदी से नीचे चला गया जिससे बैंक ने रेपो रेट बढ़ाने का विचार स्थगित कर दिया. लेकिन बाद में यानी फरवरी में यह 6.44 फीसदी हो गई जिससे रिजर्व बैंक को फिर से रेपो रेट बढ़ाने के बारे में विचार करना पड़ रहा है.
लेकिन महंगाई की स्थिति अभी काबू में है और अच्छे मानसून के बाद इसमें काफी नरमी आयेगी. इसलिए रिजर्व बैंक किसी तरह की जल्दी में नहीं है. वह इस वित्त वर्ष की तीसरी या चौथी तिमाही में इस पर विचार करेगा. इस समय हमारी अर्थव्यवस्था में तेजी दिख रही है और जीडीपी आगे भी 6 फीसदी की दर से बढ़ने की उम्मीद की जा रही है. आईएमएफ का आकलन है कि भारत की जीडीपी आने वाले समय में 6.1 फीसदी की दर से बढ़ेगी. इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कटौती करे. इससे रियल एस्टेट में तेजी आयेगी और बाजार में धन की उपलब्धता भी बढ़ेगी. हमारी अर्थव्यवस्था खपत आधारित है और जितनी खपत बढ़ेगी उतनी ही इसमें तेजी आयेगी. ब्याज दरों के घटने से इस पर प्रभाव पड़ेगा ही. बढ़ी हुई ब्याज दरें बाधा तो पैदा करती ही हैं, बाज़ार के सेंटीमेंट को भी प्रभावित करती हैं.
ब्याज दरें भारत में मुद्रास्फीति पर नियंत्रण पाने का प्रभावी औजार नहीं रही हैं. रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी सुब्बा राव ने अपने कार्यकाल में बढ़ती मुद्रास्फीति को थामने के लिए 13 बार ब्याज दरें बढ़ाईं और रेपो रेट को 4.75 से 8.50 पर पहुंचा दिया. यहां पर उनकी इस बात की आलोचना हुई कि उन्होंने रेपो रेट में बिना यह देखे बढ़ोतरी की कि उनके इस कदम का कोई फायदा हुआ भी कि नहीं. भारत में रेपो रेट या यूं कहें कि ब्याज दरें बढ़ाने से कभी आशा के अनुरूप सफलता नहीं मिल सकती क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था में अभी भी नकदी यानी कैश की बहुलता है. ऐसे में रेपो रेट बढ़ाने का क्या असर होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है.
अब अमेरिकी फेडरल बैंक को भी यह बात समझ में आ गई है कि रेपो रेट बढ़ाकर मुद्रास्फीति को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है. बढ़ती महंगाई के पीछे जो भी फैक्टर होते हैं वे हर समय एक जैसे नहीं होते हैं. और इसलिए रेपो रेट या ब्याज दरें बढ़ाकर हर बार मुद्रास्फीति को रोका नहीं जा सकता है. इसके विपरीत ब्याज दरें घटाने का कहीं ज्यादा फायदा है. यह बात अब अधिकारियों को समझ में आने लगी है. उम्मीद की जा सकती है कि अगली बैठक में रिजर्व बैंक रेपो रेट में कटौती करेगा.
(मधुरेंद्र सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार और डिजिटल रणनीतिकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(संपादन: आशा शाह)
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