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मंगलवार, 22 अप्रैल, 2025
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लॉकडाउन के बीच आरक्षण समीक्षा की बात सुप्रीम कोर्ट की मंशा पर सवाल खड़े करती है

सुप्रीम कोर्ट के पिछले कुछ निर्णयों की वजह से दलितों को आंदोलन करते हुए सड़कों पर उतरना पड़ा था और उसके बाद कोर्ट को अपने निर्णयों में सुधार भी करना पड़ा है.

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आज पूरा देश कोरोना महामारी से जूझ रहा है. सभी लोग अपने घरों में दुबके बैठे हैं. सबके काम धंधे ठप्प पड़ गए हैं. ऐसे समय में माननीय सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी ने बहुजन समाज में हलचल पैदा कर दी है. सवाल ये बनता है कि जब कोर्ट अभी सिर्फ अर्जेंट मैटर ही सुन रहा था, तो ऐसी क्या मुसीबत आन पड़ी थी की माननीय सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन के बीच ही आरक्षण समीक्षा की बात कर दी.

जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत शरण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की बेंच ने आंध्र प्रदेश सरकार के फैसले को खारिज करते हुए कहा कि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता और अनुसूचित जनजाति बाहुल्य क्षेत्रों/राज्यों में विद्यालयों में 100 प्रतिशत लोग इन्ही समुदायों के नहीं रखे जा सकते हैं.

इतना ही नहीं, कोर्ट ने ये भी कहा है कि ‘एससी/एसटी वर्ग के संपन्न लोग अपने समुदाय के बाकी लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलने दे रहे हैं, इसलिए आरक्षण प्राप्त करने वाली जातियों (सूची) की समीक्षा व संशोधन करना चाहिए.

बेंच ने कहा की संविधान में आरक्षण का प्रावधान सिर्फ़ 10 वर्ष के लिए था लेकिन ये अभी तक यह खत्म नहीं हुआ है.

अब सवाल बनता है की जब लॉकडाउन का हवाला देकर कोर्ट महत्वपूर्ण केस भी सुनने से मना कर रही है तो आरक्षण से जुड़े इस 20 साल पुराने मामले को इतनी प्राथमिकता देकर क्यों सुना गया?

जबकि, सुप्रीम कोर्ट के पिछले कुछ निर्णयों की वजह से दलितों को आंदोलन करते हुए सड़कों पर उतरना पड़ा था और उसके बाद कोर्ट को अपने निर्णयों में सुधार भी करना पड़ा है. चाहे वो एससी-एसटी एक्ट में संशोधन का मामला हो या गुरु रविदास मंदिर तोड़ने का मामला हो दोनों बार दलितों ने सड़कों पर उतरकर बड़ा आंदोलन किया और कोर्ट को निर्णय में सुधार करना पड़ा, तो ऐसे समय में जब कोई भी सड़क पर उतरकर अपनी प्रतिरोध की आवाज बुलंद नहीं कर सकता है. तब कोर्ट का ऐसा निर्णय न्यायालय की मंशा पर सवाल उठाता है.


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अब यदि हम निर्णय पर बात करें तो संविधान की पांचवी अनुसूची में शेड्यूल ट्राइब्स परिषद के अंतर्गत शेड्यूल ट्राइब्स को विशेष अधिकार प्राप्त है. संविधान ने ये कार्य संसद को दिया हुआ है तो सुप्रीम कोर्ट संसद के अधिकरों में हस्तक्षेप क्यों कर रही है. अभी 4 महीने पहले उत्तराखंड कोर्ट प्रमोशन में रिज़र्वेशन पर दिए अपने निर्णय में कहती है कि आरक्षण देना या ना देना स्टेट का मामला है वो तय करें. जब एक स्टेट अपने नागरिकों के अधिकारों को देखते हुए आदिवासी क्षेत्र में 100 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय कर रहा है तो फिर रोक क्यों लगाई जा रही है?

बेंच ये भी कहती है की संपन्न दलित, गरीब दलितों को आरक्षण का लाभ नहीं लेने दे रहे हैं तो इस हिसाब से तो संपन्न ब्राह्मण कभी दलितों को नौकरी मिलने नहीं देंगे. यह समझना चाहिए की आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है ये जातिगत भेदभाव से पीड़ित दलितों को प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था है.

आरक्षण जैसी नीतियां सिर्फ भारत में नहीं और भी काफी देशों में हैं, जहां रंग, भाषा, धर्म के आधार पर आरक्षण दिया जाता है. आरक्षण इसलिए दिया जाता है कि जिन लोगों से उनकी पहचान के आधार पर भेदभाव करते हुए उनके अधिकारों से वंचित रखा गया हो, उनको मुख्यधारा में लाया जा सके.

भारत में दलितों, आदिवासियों को हजारों वर्षों से इसी जातिगत पहचान की वजह से उनके साथ भेदभाव होता रहा, मूलभूत अधिकारों से भी वंचित रखा गया है. दलितों के पास न शिक्षा, न प्रॉपर्टी और न ही सिविल राइट्स के अधिकार थे.

इसलिए दलितों की समस्याएं अन्य गरीबों से भिन्न हैं क्योंकि पूर्व में तो दलितों को उनके अधिकारों से वंचित रखा ही गया था. आज भी काबिलियत होने के बावजूद उनके लिए जातिगत पहचान की वजह से नौकरी शिक्षा, व्यवसाय सब रास्ते बंद कर दिए जाते हैं. इसलिए आरक्षण के द्वारा उन्हें प्राथमिकता देते हुए आगे बढ़ाया जाता है ताकि उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जा सके. यदि माननीय सुप्रीम कोर्ट समीक्षा करना चाहता है तो इस बात की करे कि आज़ादी के 70 वर्षों के बाद भी आज तक एससी/एसटी व अन्य पिछड़ा वर्ग का कोटा स्टेट हो या केन्द्र कहीं भी पूरा क्यों नहीं हुआ है?

इस पर कभी कोर्ट ने समीक्षा के लिए टिप्पणी नहीं की है. आज़ादी के इतने वर्षों के बावजूद भी आज तक दलितों को संपूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, इसके जिम्मेदार कौन लोग हैं?

इसकी समीक्षा होनी चाहिए. जाति आधारित असमानताओं को व भेदभाव को मिटाने के लिए जिस आधार पर ये भेदभाव हुआ है उसी आधार पर समानता के लिए आरक्षण दिया गया है.

क्या भेदभाव खत्म हो गया है?

आज भी हर क्षेत्र में भेदभाव कायम है. जातिगत भेदभाव जो आरक्षण का आधार है वो आज भी ज्यों का त्यों बना हुआ है. अफ़सोस की बात है कि अभी भी बड़े कालेजों में ख़ास कर मेडिकल और इंजीनियरिंग में एससी/एसटी वर्ग के संपन्न या गरीब तबके के छात्रों के साथ भेदभाव कम नहीं हो रहा है. रोहित वेमुला और डॉ. पायल तड़वी की आत्महत्या इसका जीता जागता उदाहरण है. शिक्षा, सरकारी नौकरियों, निजी क्षेत्र समेत हर जगह जातिगत भेदभाव बना हुआ है. हर साल दलित उत्पीड़न के 20 हजार से ज्यादा मुकदमे दर्ज किये जाते हैं, ऐसे में माननीय सुप्रीम कोर्ट का ये कहना कि आरक्षण 10 साल के लिये दिया गया था और इस पर समीक्षा करनी चाहिए, बिल्कुल नाजायज है.

अब यदि हम कोर्ट द्वारा संपन्न दलितों पर की गई टिप्पणी की बात करें तो 70 सालों में एक नया वर्ग आया है, जो पढ़ लिख रहा है, अपने समाज को ऊपर उठा रहा है, ये वो छोटा वर्ग है. जो एससी-एसटी वर्ग के संपन्न लोगों में आता है.

एससी/एसटी वर्ग के संपन्न लोगों को आरक्षण इसलिए भी जरूरी है, जिससे वो सरकार के उन पदों पर स्थान प्राप्त कर पाएं जहां से वो कल्याणकारी नीतियां दलित वर्ग के लिए बना पाएं क्योंकि एक दलित जिस तरह से दलित समाज का दर्द समझ सकता है वह एक सवर्ण वर्ग का अधिकारी नहीं महसूस कर सकता. आप न्यायपालिका को ही ले लीजिए, यहां आरक्षण लागू नहीं है, माननीय सुप्रीम कोर्ट ये आंकड़ें दे कि कितने एससी/एसटी व पिछड़ा वर्ग के लोगों को जज बनाया गया है? जिन 70 सालों की आप दुहाई दे रहे हैं, उन 70 सालों में मात्र एक दलित चीफ जस्टिस कुर्सी पर बैठा है. आज भी आपके 33 जजों के गुट में सिर्फ एक दलित जज है, जिसे पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया गया है.


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यदि शिक्षा के क्षेत्र में हम आरक्षण के आंकड़े देखें तो देश की 40 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में 95 प्रतिशत प्रोफ़ेसर सवर्ण जातियों से हैं और दलित समाज से सिर्फ 4 प्रतिशत आदिवासी की 0.7 प्रतिशत की भागीदारी है. एसोसिएट प्रोफेसर 92 प्रतिशत सवर्ण और 5 प्रतिशत दलित 1.30 प्रतिशत आदिवासी हैं. ओबीसी दोनों जगह शून्य हैं. यहां से आप धरातल पर आरक्षण का कितना फायदा मिला है उसका आंकलन कर सकते हैं.

ओक्सफार्म इंडिया के 2019 के एक सर्वे के अनुसार भारत में मीडिया में 80 प्रतिशत से ज्यादा सवर्ण जाति के लोग हैं, शेयर बाजार में दलितों की संख्या लगभग शून्य के बराबर है. निजी क्षेत्र में कहीं भी दलित आदिवासी निर्णायक स्थिति में नहीं हैं.

आज भी सभी बड़े संस्थानों में सवर्ण जाति के लोग 70 से 80 प्रतिशत निर्णायक की कुर्सियों पर बैठे हैं. वहीं एससी/एसटी/ओबीसी इन बड़े संस्थानों, कार्यालयों में मात्र 20-30 प्रतिशत हैं. इसी से जान लीजिये की सामाजिक रूप से असमानता किस कदर अब भी देश में फैली हुई है. इतना बड़ा अंतर आज भी हमारे समाज में है.

माननीय सुप्रीम कोर्ट जहां आरक्षण को मौलिक अधिकार न होना बताते हुए एक तरफ सरकारी नौकरी में आरक्षण को पूरी तरह से राज्य सरकारों पर निर्भर होना बताती है, वहीं दूसरी ओर जब राज्य सरकार शेड्यूल ट्राइब्स को 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देना चाहती है, तो सुप्रीम कोर्ट कह रही है कि यह असंवैधानिक है. अगर 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण असंवैधानिक है तो कोर्ट ने सवर्णों के 10 प्रतिशत आरक्षण पर तुरन्त रोक क्यों नही लगाई?

भारत के संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने तमाम मौकों पर कहा है कि भारत में न्यायाधीशों का फ़ैसला उनके जातीय चरित्र के मुताबिक़ होता है. इसलिए आरक्षण या एससी/एसटी व पिछड़ा वर्ग से जुड़े मुद्दों पर निर्णय देने वाली बेंच में माननीय सुप्रीम कोर्ट को इन वर्गों का प्रतिनिधित्व जरूर सुनिश्चित करना चाहिए, ताकि लोगों का न्यायपालिका पर बना विश्वास मजबूत हो.

(लेखक ऑल इंडिया बहुजन कॉर्डिनेशन कमेटी के संयोजक हैं)

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17 टिप्पणी

  1. ऐसे ही अपने हकों लिए मुखर रहना होगा तभी ये मनुवादी विचारधाराओं के लोग हमें हमारे अधिकार देंगे जय भीम

  2. काफी प्रभावशाली लेख है लेकिन इसमें कई जगह लेखक का नजरिया एकतरफा है । समस्या तो कई सारी बताई लेकिन उसके समाधान की बात करने पर बड़ी चालाकी से बच निकले ।

    जैसे – 50% का जो सामान्य कोटा है वो केवल सवर्ण वर्ग के लिए ही है क्या, क्या उसमे अन्य वर्ग प्रतिबंधित है ।

    यदि आरक्षण वंचित वर्गों को संतुलित प्रतिनिधित्व प्रदान करने लिए था तो वर्तमान में उसकी क्या स्थिति है इसका मूल्यांकन क्यों नहीं होना चाहिये, मूल्यांकन होगा तभी तो उसकी खामियां सामने आएंगी जिनको दूर करने की जिम्मेदारी सरकार की होगी ।

    लेखक ने शेयर बाजार में प्रतिनिधित्व की बात की , ये प्रतिनिधित्व मिलेगा कैसे इस पर तो आपने कुछ नही कहा ।

    लेखक महोदय अपने मुद्दा तो सही उठाया लेकिन एक चूक आपसे हो गई जिस तरह दरबारी मीडिया न्यूट्रल न होकर किसी पक्ष के साथ खड़े होकर भावनात्मक पत्रकारिता कर रही है आपके विचार भी कुछ कुछ उसी तरफ जाते दिखाई पड़ रहे हैं । ऐसा करके आप इस अति संवेदनशील मुद्दे को बैकवर्ड बनाम फारवर्ड की ओर ले जा रहे हैं और वंचित वर्गों के लिए समस्या को और कठिन बना रहे हैं ।
    हम सभी को एक साथ मिलकर समाज के वंचित वर्ग के उत्थान के लिए प्रयास करना पड़ेगा । और मैं आपकी इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूँ कि दलित की समस्या केवल दलित ही समझ सकता है, किसी की समस्या समझने के लिए उस जाती का होने आवश्यक नही है । एक जिम्मेदार व्यक्ति बनकर भी किसी के दर्द को समझा जा सकता है । क्या आप ये चाहते है की इस देश में प्रत्येक जाती का अपना अपना प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, सरकारी अधिकारी हो तभी वो उनकी समस्याओं को समझ सकता है और उसका समाधान कर सकता है ।

  3. Sahi h log Aaj bhi bhedbaahav krte h jati k naam par maarpit krte h to phir Kya suprim court jhaag maar rhi h har baat k do phlu hote h suprim court ek hi dekhna chahti h. Or agr koi virodh krega to usko jail m daal denge deshdrohi btakr. Aarakshan jaati adhar h to jaati bnayi jisne usne bhedbhaav qu kiye . Agar jaatiya bnaayi hi nhi hoti to kbhi bhedbhaav hota nhi or na hi arakshan ata. Phle suprim court bhedbhaav mitaaye phir jatiya or phir arakshan.

  4. में एक क्षत्रिय सवर्ण हु, भारत के वीर सम्राट प्रथ्विराज चौहान वंश से हु, मेरा पूरा नाम कुंवर अंकुर सिंह चौहान है में भारत का नागरिक हु इसलिए मुझे संविधान और कानून का जबरदस्ती पालन करना पड़ रहा है क्यो की यह संविधान मुझे मेरे सनातन धर्म की रक्षा और क्षत्रिय कुल की संस्कृति रीति-रिवाज पालन करने का अधिकार नही देता, मुझे मेरे क्षत्रिय कुल अस्त्र-शस्त्र-शास्त्र के ज्ञान से वंछित किया जा रहा है , जिबकी मेरे पूर्वजो ने भारत देश के लिए ओर अन्य वर्ग को सनातन हिन्दू बनाये रखने के लिए चारों युगों सत्ययुग्,त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलयुग 1947 तक शंघर्ष ओर बलिदान दिए है , भारत मे लोकतंत्र-प्रजातंत्र के लिए समस्थ रियासतें भी सिलेंडर कर दी,
    मेरी वर्तमान स्थति ओर सभी गरीब स्वर्ण वर्ग की भी स्थति 70 सालो की जातिगत आरक्षण बीमारी से कमजोर होती ही जा रही है, वर्तमान में में ओर मेरे पिताजी एक प्राइवेट कंपनी में एक ड्राइवर के पद पर कार्यरीत है मतलब भारत के राजा अब बन गए रंक, मेरे मेरे परदादा को सरकारी नोकरी या शिक्षा में सरकारी मदद मिली इसलिए वो जीवन से परेशान होकर वो बागी बन गए उनका नाम ठाकुर देवी सिंह चौहान (डाकू) था उसके बाद न मेरे दादा को कोई सरकारी मदद मिली उन्होंने ने भी होटल में कार्य करके अपना जीवन व्यतीत कर दिया आज मेरी ओर मेरे पिताजी की भी यही हालत है मेरे 12वी तक अध्यन किया है क्यो की पिताजी डाइवर पद पर इतने आर्थिक सक्षम नही थे और मैने 2 बार इंडियन आर्मी ओर 2 बार पुलिस की भर्ती भी दी है
    लेकिन अब ऐसा लगता है मेरा सवर्ण होना अभिशाप बन गया है आर्थिक स्थति गरीब से ओर गरीब बनाती जा रही है
    70 सालो का आरंक्षण – मेरे ही पडोसी है SC/ST वर्ग में आते है उनके परदादा भी सरकारी नोकरी में कार्यरत थे उनके पुत्र भी है और उनके पुत्र के पुत्र भी सरकारी नोकरी में है 70 सालो से जाती के नाम पर आरंक्षण मिल रहा है करीब 4 लाख रुपये महीना उनके घर मे आता है उन्हें क्या अब आरंक्षण की जरूरत है
    सोचो पूरे भारत मे करोड़ो ऐसे ही सवर्ण गरीब है और ऐसे ही करोड़पति SC/ST जो कि सिर्फ जाती के नाम पर अमीर ओर अमीर होते जा रहा है करीब ओर गरीब
    ये हालात है भारत देश स्थति
    जय हिंद, जय भारत
    हर हर महादेव
    कुंवर अमित सिंह चौहान
    गरीब सवर्ण समाज

  5. लेखक महोदय स्वार्थ का चश्मा उतार कर लिखें, माननीय सुप्रीम कोर्ट को पता है क्या सही और क्या गलत है

  6. आप sc है तभी sc का पक्ष ले रहे है। कभी सवर्ण के बारे मे सोच लिया करो। Sc कास्ट या OBC के लोगो ने ही नहीं दिलाई आजादी हमने भी संघर्ष किया है।पढ़े लिखे हो या अनपढ़ हो।

  7. आप sc है तभी sc का पक्ष ले रहे है। कभी सवर्ण के बारे मे सोच लिया करो। Sc कास्ट या OBC के लोगो ने ही नहीं दिलाई आजादी हमने भी किया है।पढ़े लिखे हो या अनपढ़ हो।

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