सरकारी उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए आरक्षण की रोस्टर प्रक्रिया को लेकर सामाजिक न्याय आंदोलन की जीत हुई है. डिपार्टमेंट की जगह विश्वविद्यालय/कॉलेज/संस्थान को यूनिट मानकर रिज़र्वेशन लागू करने का विधेयक लोकसभा में 1 जुलाई 2019 को पास कर दिया गया. केंद्रीय शैक्षणिक संस्था (शिक्षकों के काडर में आरक्षण) विधेयक, 2019 (विधेयक संख्या 103-सी) के मुताबिक अब देश भर में शिक्षकों की नियुक्तियां होंगी और रिज़र्वेशन दिया जाएगा. इससे 41 केंद्रीय शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों को 8,000 पदों को भरने का रास्ता साफ हो गया है.
रोस्टर को लेकर पिछले साल मचा था बवाल
यह विवाद तब शुरू हुआ, जब सितंबर 2017 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक आदेश के आधार पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने 5 मार्च 2018 को विभाग को यूनिट मानकर विभागवार आरक्षण (यानी 13 प्वाइंट रोस्टर) लागू करने का निर्देश दे दिया. हाईकोर्ट के आदेश का अनुमोदन सुप्रीम कोर्ट ने भी किया था. विभाग को इकाई मानकर रोस्टर लागू करने से एससी, एसटी, ओबीसी और शारीरिक रूप से असमर्थ लोगों के आरक्षित पद कमोबेश समाप्त हो गए.
इसके विरोध में देशभर में आंदोलन हुआ. अनवरत चलते आंदोलनों के दबाव में पिछली केंद्र सरकार ने 7 मार्च 2019 को अपनी अंतिम कैबिनेट मीटिंग में 200 प्वाइंट रोस्टर पर अध्यादेश पारित किया था. इसी अध्यादेश को 1 जुलाई 2019 को लोकसभा में विधेयक के बतौर पारित करके कानून बना दिया गया है.
विभागवार रोस्टर के पीछे जातिवादी मानसिकता
विभागवार (13 प्वाइंट) रोस्टर लागू करने के पीछे एक ख़ास मनुवादी सामंती मानसिकता थी. इस मानसिकता के लोगों को लगता है कि वंचित दलित, पिछड़े, आदिवासियों, पसमंदा तबके के लोगों के उच्च शिक्षा में आने से उनका वर्चस्व टूट जाएगा. ‘विवेकानंद तिवारी व अन्य बनाम भारत संघ – 43260/2016′ के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के आधार पर 5 मार्च 2018 को यूजीसी के निर्देश पर विभागवार (13 प्वाइंट) रोस्टर लागू कर दिया गया. जबकि यूजीसी से पास न्यायालय में जाने का विकल्प मौजूद था. 13 प्वाइंट रोस्टर में हर चौथा पद ओबीसी के लिए, हर सातवां पद एससी के लिए और हर चौदहवां पद एसटी के लिए आरक्षित करते हुए रोस्टर बनाया गया. चूंकि विश्वविद्यालय और कॉलेजों में विभाग काफी छोटे हो गए हैं और उनमें कई जगह इतने पद ही नहीं हैं कि चौथी, सातवीं या चौदहवीं नियुक्ति हो. इस कारण वस्तुत:आरक्षण निरर्थक हो गया.
विभागवार रोस्टर के विरोध में सड़क से लेकर संसद तक लोग मुखर हुए. दिल्ली विश्वविद्यालय में एक ऐतिहासिक बहुजन आंदोलन खड़ा हुआ. आंदोलन के दबाव में सरकार ने कोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पेटीशन दायर की, लेकिन इस बीच नौकरियों के विज्ञापन आते रहे. पिछले साल संसद के मानसून सत्र में रोस्टर के मुद्दे को कई दलों ने उठाया. इसके दबाव में 19 जुलाई 2018 को सरकार ने शैक्षणिक पदों पर सभी तरह की नियुक्तियों पर रोक लगा दी. 22 जनवरी 2019 को सरकार द्वारा दायर दोनों स्पेशल लीव पेटीशन खारिज कर दी गईं. सरकार के टालमटोल रवैये के खिलाफ 5 मार्च 2019 को भारत बंद का आयोजन किया गया. इसके दबाव में सरकार ने 7 मार्च 2019 को अध्यादेश लाकर 200 प्वाइंट रोस्टर लागू कर दिया.
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उच्च शिक्षा में सामाजिक विविधता का अभाव
आंकड़े बताते हैं कि उच्च शिक्षा में कमोबेश नब्बे फ़ीसदी से अधिक पदों पर सवर्ण तबका काबिज़ है. 16 जनवरी 2018 को इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़ उच्च शिक्षा में प्रोफ़ेसर पद पर सामाजिक हिस्सेदारी कुछ यूं है – ओबीसी 0 फ़ीसदी, एससी 3.47 फ़ीसदी और एसटी 0.7 फ़ीसदी. इसी रिपोर्ट के मुताबिक 95.2 % प्रोफेसर, 92.9 % एसोसिएट प्रोफेसर और 66.27% एसिस्टेंट प्रोफेसर जनरल कटेगरी से हैं. इसमें वे लोग शामिल हैं, जिन्होंने रिज़र्वेशन का लाभ नहीं लिया है.
इसकी वजह ये है कि उच्च शिक्षा में आरक्षण बहुत देर से लागू हुआ और जब ये लागू हो भी गया, तो इसका ईमानदारी से पालन नहीं हुआ. संविधान में एससी-एसटी आरक्षण बेशक 1950 से लागू है. लेकिन, एससी-एसटी को उच्च शिक्षा में आरक्षण 1997 से मिलना शुरू हुआ. उसी तरह ओबीसी आरक्षण 1993 से लागू है. लेकिन इसे उच्च शिक्षा में 2007 में लागू किया गया. 1997 के पहले तक शिक्षक नियुक्ति में आरक्षण लागू नहीं होने से सभी पद सैद्धांतिक व व्यावहारिक दोनों तौर पर अनारक्षित हुआ करते थे. उस समय का बना हुआ सवर्ण वर्चस्व आज भी जारी है. क्योंकि उच्च पदों पर मौजूद लोगों की राय नौकरियों के इंटरव्यू में निर्णायक होती है.
उच्च शिक्षा में आरक्षण के प्रावधान लागू होते ही दो स्तर पर गहरी साज़िशें हुईं. पहली यह कि नब्बे के बाद मनुवादी सामंती सत्ता ने नवउदारवादी पूंजी से गठजोड़ करके उच्च शिक्षा में निजीकरण की प्रक्रिया तेज़ कर दी और दूसरी यह कि आरक्षण लागू होने के बाद स्थाई नियुक्तियों पर काफी हद तक विराम लगा दिया गया.
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हालांकि, इस बीच विश्वविद्यालयों में बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं रिज़र्वेशन के कारण आए हैं. रोस्टर आंदोलन में भी यही तबका सबसे आगे रहा. ऐसा लगता है कि आरक्षण को निरस्त करने की कोई भी कोशिश अब आसानी से कामयाब नहीं हो पाएगी, क्योंकि आरक्षण को बचाने की लड़ाई लड़ने वाला एक पढ़ा-लिखा तबका तैयार हो चुका है. इनकी मांगों में 1997 व 2007 से रोस्टर बनाना, बैकलॉग-शॉर्टफ़ॉल तथा आरक्षित पदों पर स्पेशल ड्राइव चलाकर स्थायी नियुक्तियां कराना, 13 प्वाइंट रोस्टर से हुई नियुक्तियों को रद्द कराना, एकल पदों (मसलन कुलपति, रजिस्ट्रार, प्राचार्य, डीन इत्यादि) पर भी आरक्षण रोस्टर लागू करना शामिल है. ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में भारत के कैंपसों में सामाजिक न्याय के आंदोलनों से गूंज सुनाई देती रहेगी.
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में हिंदी साहित्य पढ़ाते हैं.)