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Monday, 23 December, 2024
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गैरबराबरी के असुर निगलने को हैं गणतंत्र के सारे गुण और मूल्य

गैरबराबरी के ये आंकड़े इस लिहाज से ज़्यादा चिंतनीय हैं कि ये हमारे दुनिया का सबसे ‘महान’जनतंत्र होने के दावे की कनपटी पर किसी करारे थप्पड़ से कम नहीं हैं.

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जब हम ‘भारत के लोग’ अपने देश का नया गणतंत्र दिवस मना रहे हैं, बाबा नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता का वह सवाल पहले से ज़्यादा प्रासंगिक हो गया है, जिसमें पहले वे पूछते हैं- ‘किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है’, फिर अपने सवाल को ‘कौन यहां त्रस्त है, कौन पस्त और कौन मस्त’ तक ले जाते हैं. उनके इस सवाल पर विचार करते हैं तो लगता है कि उन्हें आज की तारीख में हमारे गणतंत्र के सामने उपस्थित विकट हालात का पहले से इल्म था!

बहरहाल, हालात की विडम्बना देखिये: एक ओर तो अब हमारे नेता देश को समता, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित संकल्प को संविधान की पोथियों में भी चैन से नहीं रहने देना चाहते और दूसरी ओर गैरबराबरी का भस्मासुर न सिर्फ हमारी, बल्कि दुनिया भर की जनतांत्रिक शक्तियों के सिर पर अपना हाथ रखकर उन्हें भस्म कर देने या धमकाने पर आमादा हैं कि अपनी लोकतंत्र की परिकल्पनाओं को लेकर वे किसी मुगालते में न रहें. अमीरी का जाया यह असुर लोकतंत्र के सारे के सारे मूल्यों को तहस-नहस करने का मंसूबा लिये उन्मुक्त होकर आगे बढ़ा आ रहा है और आरजू या विनती कुछ भी सुनने के मूड में नहीं है.


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इस गणतंत्र दिवस से महज चार-पांच दिन पहले आई ब्रिटेन के गैरसरकारी संगठन आक्सफेम इंटरनेशनल की रिपोर्ट कहती है कि अमीरी और गरीबी के बीच की खाई अब इतनी गहरी हो गई है कि बीते साल दुनिया के 26 धनकुबेरों ने अपनी सम्पत्ति इतनी बढ़ा ली कि उसकी आधी आबादी की समूची सम्पत्ति उसके आगे पानी भरने लगे. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में इस स्थिति का अक्स यों नज़र आता है कि उसके नौ कुबेरों की ही मुट्ठी में आधी गरीब आबादी जितनी सम्पत्ति है.

इससे आगे गैरबराबरी के और कौन-कौन से गुल खिलने वाले हैं, समझना हो तो जानना चाहिए कि देश के शीर्ष एक प्रतिशत अमीरों की सम्पत्ति हर साल 39 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है तो गरीबों की महज तीन प्रतिशत की दर से. ऐसे में किसी को तो यह सवाल, किसी और से नहीं तो खुद से ही सही, पूछना चाहिए कि जिसे हम गणतंत्र कहते आ रहे हैं, वह अमीरों के तंत्र में नहीं बदल गया है क्या? अगर नहीं तो जो आर्थिक विषमता सभी तरह की स्वतंत्रताओं और इंसाफों की साझा दुश्मन है, उसकी ऐसी पौ-बारह क्यों हो गयी है?

हम अपना पिछला गणतंत्र दिवस मनाने वाले थे तो भी इसी आक्सफेम इंटरनेशनल के सर्वेक्षणों ने बताया था कि उसके पिछले साल बढ़ी 762 अरब डॉलर की संपत्ति का 82 फीसदी हिस्सा एक प्रतिशत धनकुबेरों के कब्ज़े में चला गया है, अधिसंख्य आबादी को जस की तस बदहाल रखते हुए.

इस सम्पत्ति के रूप में धनकुबेरों ने तभी गरीबी को सात बार सारी दुनिया से खत्म कर सकने का सामर्थ्य इस एक साल में ही अपनी मुट्ठी में कर लिया था तो क्या आश्चर्य कि गरीबों के लिए आज भी ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ का अर्थ एक संचार सेवा प्रदाता कम्पनी के झांसे का शिकार होना भर बना हुआ है? तिस पर अनर्थ यह कि 50 प्रतिशत अत्यंत गरीब आबादी को आर्थिक वृद्धि में कतई कोई हिस्सा नहीं मिल पा रहा, जबकि अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. इन अरबपतियों में 90 फीसदी पुरुष हैं, यानी यह आर्थिक ही नहीं लैंगिक असमानता का भी मामला है, पितृसत्ता के नये सिरे से मज़बूत होने का भी.

बताने की ज़रूरत नहीं कि यह अनर्थ भूमंडलीकरण की वर्चस्ववादी नीतियों से पोषित अर्थनीति का अदना-सा ‘करिश्मा’ है और यह गरीबों के ही नहीं, बढ़ते धनकुबेरों के प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी हादसे से कम नहीं है, क्योंकि इन कुबेरों ने यह बढ़त कठिन परिश्रम और नवाचार से नहीं, बल्कि संरक्षण, एकाधिकार, विरासत और सरकारों के साथ साठ-गांठ के बूते कर चोरी, श्रमिकों के अधिकारों के हनन और ऑटोमेशन की राह चलकर स्पर्धा का बेहद अनैतिक माहौल बनाकर पाई है.

निश्चित ही यह इस अर्थनीति की निष्फलता का भी द्योतक है, क्योंकि इन कुबेरों द्वारा सम्पत्ति में ढाल ली गयी पूंजी अंततः अर्थतंत्र से बाहर होकर पूरी तरह अनुत्पादक हो जानी है और उसे इस तथ्य से कोई फर्क नहीं पड़ना कि कई अरब गरीब आबादी बेहद खतरनाक परिस्थितियों में भी ज़्यादा देर तक काम करने और अधिकारों के बिना गुजर-बसर करने को मजबूर है. वह भोजन तथा इलाज जैसी अपनी बुनियादी ज़रूरतों को भी पूरा नहीं कर पाती.

अपने देश की बात करें तो हमारा ‘दुनिया की सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यवस्था’ होने का दावा भले ही चुनौतियां झेलता आया हो, उसमें अमीरों द्वारा सब-कुछ अपने कब्ज़े में करते जाने की रफ्तार इतनी तेज़ रही है कि जो एक प्रतिशत अमीर 2016 में देश की 58 प्रतिशत सम्पत्ति के स्वामी थे, उन्होंने 2017 में ही 73 प्रतिशत सम्पत्ति अपने कब्ज़े में कर ली थी.

यहां एक पल रुककर यह भी समझ लेना चाहिए कि चूंकि हमने बेरोक-टोक भूमंडलीकरण को सिर-माथे लेकर अनेकानेक विदेशी कम्पनियों को हमारे देश में कमाया मुनाफा देश से बाहर ले जाने की छूट भी दे रखी है, इसलिए विदेशी अरबपतियों को खरबपति बनाने में भी हमारा कुछ कम योगदान नहीं है.

तिस पर यह समझने के लिए अर्थशास्त्र की बारीकियों में बहुत गहरे पैठने की ज़रूरत नहीं कि यह अमीरी ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को आर्थिक विकास का फायदा देकर यानी ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे को सदाशयता से ज़मीन पर उतारकर संभव ही नहीं थी. इसलिए विकास के सारे लाभों को लगातार कुछ ही लोगों तक सीमित रखकर हासिल की गयी है. साफ कहें तो तथाकथित आर्थिक सुधारों के उस मानवीय चेहरे पर अमानवीयतापूर्वक तेज़ाब डालकर, जिसकी चर्चा 24 जुलाई, 1991 को देश में भूमंडलीकरण की नीतियों का आगाज़ करते हुए उसके सबसे बड़े पैरोकार तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने की थी.

गैरबराबरी के ये आंकड़े हमारे लिए इस लिहाज से ज़्यादा चिंतनीय हैं कि ये हमारी दुनिया का सबसे ‘महान’ जनतंत्र होने के दावे की कनपटी पर किसी करारे थप्पड़ से कम नहीं हैं. इसलिए और भी कि जहां कई अन्य छोटे-बड़े देशों ने भूमंडलीकरण के अनर्थों को पहचानना और उनसे निपटने के प्रतिरक्षात्मक उपाय करना शुरू कर दिया है, हमारे सत्ताधीश कतई किसी पुनर्विचार को राज़ी नहीं हैं.

उन्हें इस सवाल से कतई कोई उलझन नहीं होती कि अगर इस गणतंत्र के सात दशकों का सबसे बड़ा हासिल यह एक प्रतिशत की अमीरी ही है तो बाकी 99 प्रतिशत के लिए इसके मायने क्या हैं? इन 99 प्रतिशत को कब तक देश की राजधानी में हर गणतंत्र दिवस पर होने वाली भव्य परेड तक में अपने मन और मूल्यों की जगह का मोहताज रहना पड़ेगा.

बड़े-बड़े परिवर्तनों के दावे करके आयी नरेन्द्र मोदी सरकार ने भी अपने पांच सालों में इस अनर्थनीति को बदलना गवारा नहीं किया, जबकि यह नीति कम से कम इस अर्थ में तो भारत के संविधान की घोर विरोधी है कि यह किसी भी स्तर पर उसके समता के मूल्य की प्रतिष्ठा नहीं करती और उसके संकल्पों के उलट आर्थिक ही नहीं, प्राकृतिक संसाधनों के भी अंधाधुंध संकेन्द्रण पर ज़ोर देती है.


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यह सरकार इस सीधे सवाल का सामना भी नहीं करती कि किसी एक व्यक्ति के अमीर बनाने के लिए कितनी बड़ी जनसंख्या को गरीबी के हवाले करना पड़ता है और क्यों हमें ‘हृदयहीन’ पूंजी को ब्रह्म और ‘श्रम के शोषक’ मुनाफे को मोक्ष मानकर ‘सहृदय’ मनुष्य को संसाधन की तरह संचालित करने वाली अर्थव्यवस्था के लिए अनंतकाल तक अपनी सारी लोकतांत्रिक-सामाजिक नैतिकताओं, गुणों व मूल्यों की बलि देते रहना चाहिए?

एक ओर इन सवालों के जवाब नहीं आ रहे और दूसरी ओर इन्हें पूछने वाले हकलाने लग गये हैं, तो साफ है कि हमारे लोकतंत्र में जनतांत्रिक विचारों की कमी खतरनाक स्तर तक जा पहुंची है. यह कमी ऐसे वक्त में कोढ़ में खाज से कम नहीं है कि गरीबों को और गरीब और अमीरों को और अमीर बनाने वाली आर्थिक नीति के करिश्मे अब किसी एक देश तक सीमित नहीं हैं. वे सारे लाभों को अमीर देशों के लिए सुरक्षित कर उन्हें और अमीर, जबकि गरीब देशों को और गरीब बना रही हैं.

एक प्रतिशत लोगों की अमीरी की यह उड़ान हमें कितनी महंगी पड़ने वाली है, जानना हो तो बताइए कि गरीबों के लिए इस गैरबराबरी से उबरने की कल्पना भी दुष्कर हो जायेगी तो वे क्या करेंगे?

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