हाईवे पर चलते हुए अब करीब दस दिन होने को आए हैं. इन दस दिनों में जिंदगी के दो पहलुओं से मुलाकात हुई- मौत और जन्म. दिल्ली में रहते हुए प्रवासी मजदूरों के पलायन की सारी दर्दनाक तस्वीरें देखीं लेकिन वो दर्द दिल्ली में बैठकर उतना महसूस नहीं हुआ जितना उनके साथ हजारों किलोमीटर की यात्रा तय करके हुआ. इस यात्रा पर मेरे साथ मेरी सहयोगी बिस्मी टस्कीन और हमारे ड्राइवर मनीष हैं. ये अनुभव हमारे साझे हैं.
मौत
यूपी के संत कबीर नगर के 68 वर्षीय राम कृपाल की मौत का दृश्य हमारे दिलों-दिमाग में हमेशा के लिए रहेगा. एक गरीब मजदूर जो अपनी बीवी के लाख मना करने के बावजूद भी मुंबई से एक ट्रक पर बैठकर अपने घर के लिए निकल पड़ा. सिर्फ इसलिए कि भूखे ही मरना है तो परिवार के साथ मरेंगे. लेकिन शायद किस्मत ने उनके लिए कुछ और ही सोचा था. वो अपने घर से सिर्फ तीस किलोमीटर दूर आकर ही लड़खड़ाकर गिर गये और उनकी मृत्यु हो गई. हाईवे की यात्रा उनकी अंतिम यात्रा साबित हुई.
उनका बेटा सुरेंद्र मुझे जिला अस्पताल के एक गंदे बाथरूम के कोने पर पीपीई सूट पहने रोते हुए मिला था. उनके पिता के शव को लेकर मेडिकलकर्मी कुछ सुरक्षा के इंतजाम कर रहे थे और सुरेंद्र आंखों में आंसू भरकर शून्य में ताक रहे थे. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उस वक्त मैं सुरेंद्र से ऐसा क्या कहूं कि उनको सांत्वना मिल जाए. उसके बाद हम इसे स्टोरी समझ कर अपने काम में लग गए. हमने उनसे वो सारे सवाल पूछे जो एक पत्रकार होने के नाते पूछे जाने चाहिए थे. अस्पताल से लेकर श्मशान घाट तक हमारे साथ हमारे ड्राइवर भी उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए. भले ही एक किलोमीटर की दूरी से.
इस पूरी खबर के दौरान सबसे भावुक क्षण तब आया जब हमने उनकी पत्नी को एक किलोमीटर दूर दहाड़े मार कर रोते हुए देखा. वो अपने पति का आखिरी बार चेहरा तक नहीं देख पाईं. एक पत्रकार के तौर पर हमारी ड्यूटी थी कि हम रिपोर्ट करते लेकिन इंसानियत के नाते हमें उनसे वो सहानुभूति भी रखनी थी जो एक इंसान दूसरे इंसान के लिए रखता है. फोन में ली उनकी तस्वीरों में वो रो रही हैं और उनकी आंखें प्रशासन, सरकार या हम सबको घूर रही हैं. और अब ऐसा लगता है कि उनकी आंखें ना जानें कब तक घूरती रहेंगी.
जो उस वक्त हमने महसूस किया वो हम शायद सही-सही बता भी ना पाएं. उनके साथ की औरतें मातम के गीत गाती रहीं. उसके अगले ही दिन उनके परिवार के तीन लोगों को क्वारेंटाइन कर दिया गया. क्वारेंटाइन सेंटर से सुरेंद्र फोन कर लगातार रोता रहा और कहता रहा कि मेरी मां को अपने पति की मौत का शोक तो मना लेने दीजिए.
जन्म
एक प्रवासी मजदूर की मौत देखने के 72 घंटे बाद ही हमने एक बच्चे को जन्म लेते देखा. सुपौल जिले के 28 वर्षीय रेखा को हमारे ड्राइवर मनीष ने यूपी-बिहार बॉर्डर पर देखा था. वो ना बैठ पा रही थीं और ना उठ पा रही थीं. वो नौ महीने के पेट से थीं और अपनी प्रसव पीड़ा में थीं. बिस्मी और मनीष ने उन्हें बैठने के लिए कहा और पानी पिलाया. वो रो पड़ीं और बताया कि उन्हें दर्द शुरू हो गया है. इसके तुरंत बाद मैंने गोपालगंज के एसपी मनीष तिवारी को फोन किया और एक एंबुलेंस अरेंज कराने के लिए कहा. उन्होंने तुरंत मदद भी की.
इस दौरान हैरान करने वाली बात थी कि जिस औरत को बच्चा होने वाला है वो ना चिल्ला रही है और ना ही अपनी परेशानी बता रही है. उनके रिश्तेदार चाहते थे कि हम उनके लिए किसी साधन का इंतजाम कर उन्हें सुपौल पहुंचा दें. डिलीवरी तो रास्ते में भी करा लेंगे. लेकिन जिस देश में अभी भी अखबारों से जच्चा-बच्चा की मौत की खबरें गायब नहीं हुईं हैं वहां हम रेखा को उनके हाल पर नही छोड़ सकते थे. उनके अस्पताल पहुंचने के बाद ही हम अपनी रिपोर्टिंग में व्यस्त हुए.
करीब तीन घंटे बाद मैं और ड्राइवर रेखा को अस्पताल देखने गए. वहां पाया कि डॉक्टरों ने उन्हें ना ही भर्ती किया और ना ही बेड दिया. ये सब इसलिए किया जा रहा था क्योंकि डॉक्टरों को लगा कि रेखा को कोविड हो सकता है. इसके तुरंत बाद हम डीएम से जाकर मिले और उनसे कहा कि रेखा की मदद की जाए. डीएम ने अस्पताल फोन कर रेखा को भर्ती करने के लिए कहा.
हम फिर अस्पताल की तरफ भागे. जब मैं अस्पताल पहुंची तब रेखा वार्ड में थीं और उनके पति सबसे छोटी बेटी के साथ बाहर परेशान खड़े थे. उनके हाथ में रेखा का गुलाबी पर्स था. वहां मौजूद नर्सों ने बताया कि रेखा का ये पांचवां बच्चा है और मामला बिगड़ भी सकता है. लेकिन वार्ड में मौजूद चार अनुभवी नर्सों की मदद से दस मिनट बाद रेखा ने एक बच्ची को जन्म दिया.
प्रसव पीड़ा से लेकर रेखा की बच्ची के पैदा होने तक सब मैं देखती रही. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे महसूस करूं. मैंने पहली बार किसी बच्चे को पैदा होते देखा था. मैंने तुरंत बिस्मी को फोन किया. रेखा के चेहरे पर किसी किस्म के भाव नहीं थे. उनकी बच्ची की सड़ी नाल को लेकर नर्सें कुछ कह रही थीं. वो बस शून्य में ताक रही थीं. मां बनने को लेकर लिखी गईं सारी खूबसूरत कविताएं मुझे भद्दी लग रही थीं. बाहर वार्ड में खड़े उनके पति को जब मैंने बताया की बेटी हुई है तो वो रो पड़े.
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शाम को हम लोग फिर से डीएम से मिले और इस बात का आश्वासन लेकर ही लौटे कि रेखा और उसके परिवार को सुपौल तक उनके घर पहुंचाया जाएगा. हम शाम को फिर रेखा और उनके पति से मिलने गए. रेखा के चेहरे के भाव अभी भी वही थे. खाली और उदास.
उनके पति ने हमसे कहा, ‘चार बेटियां पहले से ही हैं. पांचवीं बच्ची का क्या करूंगा?’