परमाणु शक्ति संपन्न दो देशों के बीच अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी आधारित लगभग पारंपरिक किस्म की टक्कर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से उठा गुबार जब थमने लगा है, इस सवाल पर घनघोर बहस छिड़ी हुई है कि आखिर जीता कौन? भारत और पाकिस्तान, दोनों ने अपनी जीत के दावे किए हैं. दोनों देशों की जनता और मीडिया देशभक्ति के उबाल में अपनी जीत दूसरे पक्ष को जान-माल को पहुंचाए गए नुक़सानों के आधार पर अपनी जीत साबित करने में जुटी है.
दोनों देश खुद को हुए नुक़सानों और दूसरे पक्ष को पहुंचाए गए नुक़सानों के बारे में इस कदर गलत सूचनाएं प्रसारित कर रहे हैं कि दुनिया भर के तटस्थ रक्षा विशेषज्ञों के लिए भी कोई तार्किक आकलन करना काफी मुश्किल हो गया है.
अनुभव जनित ज्ञान यही कहता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से विनाशकारी युद्ध और निर्णायक जीत बीती बात हो गई है, खासकर परमाणु हथियारों से लैस देशों के बीच हुए युद्ध में. इसलिए, युद्धों और संघर्षों के नतीजे का आकलन मनोवैज्ञानिक पहलू से करना ही बुद्धिमानी की बात होगी. संबंधित देशों में चाहे जितनी लफ्फाजी की जाती हो, उनका राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व तो नतीजे का हिसाब लेता ही है और इसी के आधार पर राष्ट्रीय सुरक्षा की भावी.रणनीति बनाई जाती है.
कौन जीता?
भारत का राजनीतिक मकसद था: पाकिस्तान के अंदर खौफ पैदा करना. दूसरे शब्दों में, वह पाकिस्तान को मजबूर करना चाहता था कि वह आगे कभी भारत में जम्मू-कश्मीर या कहीं भी आतंकवाद के जरिए छद्मयुद्ध न छेड़ पाए. यह लक्ष्य एक तरह के सीमित युद्ध जैसे नियंत्रित सैन्य ऑपरेशन के जरिए हासिल किया जाना है. और इससे भी महत्वपूर्ण यह कि इसमें पाकिस्तान की परमाणु क्षमता का उल्लंघन न हो. इसकी औपचारिक घोषणा भी कर दी गई है.
भारत का सैन्य लक्ष्य ‘एक्शन-उसका जवाब-फिर एक्शन’ वाला नियंत्रित, गतिशील सैन्य ऑपरेशन चलाना था जिसमें पाकिस्तान के जमीनी और हवाई क्षेत्रों का उल्लंघन न हो, और ऐसे हालात पैदा करके मनोवैज्ञानिक शिकस्त देना था जिसमें शत्रु के लिए जवाबी कार्रवाई असहनीय रूप से महंगी साबित हो. इस रणनीति को सबसे पहले भारतीय वायुसेना को अपनी सीमा में रहते हुए पाकिस्तान के अंदर आतंकी तथा फौजी ठिकानों को नष्ट करके लागू करना था. सेना की हवाई सुरक्षा तथा मानव रहित हवाई सिस्टम ‘यूएएस’ वायुसेना के संसाधनों में इजाफा करने वाली थी.
पाकिस्तान का राजनीतिक लक्ष्य भारत को पाकिस्तान पर ज़ोर-ज़बरदस्ती करने से रोकना और अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखना था. उसे उम्मीद थी कि ऐसा करते हुए वह भारत के साथ खुद को फिर से उलझा सकेगा और कश्मीर विवाद को अंतरराष्ट्रीय प्रचार दिला सकेगा. उसका सैन्य लक्ष्य अपनी सीमित अत्याधुनिक सैन्य टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके भारत के आक्रमणकारी कार्रवाइयों को परास्त करना था जिसके तहत उच्च क्षमता वाली जवाबी कार्रवाई करनी थी ताकि आगे के ऑपरेशन काफी महंगे साबित हों.
दोनों देशों को पता था कि युद्ध के बढ़ते स्तर और परमाणु शक्ति वाले दो देशों के बीच युद्ध में दुनिया भर की कोई दिलचस्पी नहीं थी. भारत अंतरराष्ट्रीय दखल को रोकने पर डटा था, और पाकिस्तान का इरादा यह था कि अंतरराष्ट्रीय दखल जल्द-से-जल्द हो ताकि भारत को रोका जा सके.
साफ है कि दोनों देश ऐसी स्थिति बनाने की कोशिश कर रहे थे जिसमें दूसरा पक्ष अपना भारी नुकसान करवाए बिना जवाबी कार्रवाई न कर सके. दोनों पक्ष अपना राजनीतिक और सैन्य लक्ष्य हासिल करने के लिए ‘जैसे को तैसा’ वाली कार्रवाई में तेजी लाने को तत्पर थे. इसी के साथ दोनों पक्ष सामान आदि के भारी नुकसान और युद्ध में तेजी लाने से बचना चाहते थे.
ऐसे माहौल में जो पक्ष ‘ओओडीए’ (ऑब्जर्व-ओरिएंट-डिसाइड-एक्ट) का चक्र बार-बार और तेजी से पूरा कर सकता था वही रणनीति के मामले में मनोवैज्ञानिक लकवे की स्थिति पैदा कर सकता था, जिसमें दुश्मन संसाधन होने के बावजूद जवाबी कार्रवाई करने में नाकाम हो जाता है.
अपने पिछले लेख में मैंने ऑपरेशन की पूरी प्रक्रिया का विस्तार से ब्योरा दिया था. लब्बोलुआब यह है कि थलसेना की हवाई सुरक्षा व्यवस्था और ‘यूएएस’ की सहायता से वायुसेना ने ‘ओओडीए’ वाले चक्र को तेजी से पूरा किया और रणनीति के मामले में मनोवैज्ञानिक लकवे की स्थिति पैदा करने में सफल रही. इसमें 6/7 मई की रात नौ आतंकी अड्डों पर सटीक मगर प्रतीकात्मक हवाई/ड्रोन हमले; पाकिस्तान की जवाबी हवाई कार्रवाई को झेलना और हवाई युद्ध में अपने विमानों के नुकसान के कारणों का पता लगाना; 8/9 मई की रात दुश्मन की हवाई सुरक्षा व्यवस्था को सफलतापूर्वक दबा देना; और 7 से 9 मई तक तीन रातों तक पाकिस्तान की ओर से ‘यूएएस’ तथा मिसाइल हमलों को समेकित हवाई सुरक्षा कमांड तथा कंट्रोल सिस्टम की मदद से नाकाम करना शामिल था.
दुश्मन की एअर डिफेंस सिस्टम को दबा देने के बाद पाकिस्तानी वायुसेना एस-400 और हवा से हवा में मार करने वाली मिसाइलों की जद से अलग रहने पर मजबूर हो गई. ‘ओओडीए’ वाले चक्र तेजी से बार-बार पूरे किए जाने से मुक्ति प्रहार की स्थिति बन गई. 10 मई की सुबह भारतीय वायुसेना ने पूरे पाकिस्तान में 11 विमान अड्डों/रडार तथा कमांड व कंट्रोल केंद्रों पर भारी हमले किए. पाकिस्तान ने अब बताया है कि इस ऑपरेशन में सात और अड्डों पर हमले किए गए थे.
भारत के राजनीतिक तथा सैन्य उद्देश्यों के तहत ये हमले जान-माल का नुकसान करने से ज्यादा, अपनी ताकत दिखाने के लिए किए गए. रणनीति के मामले में मनोवैज्ञानिक लकवे की ऐसी गंभीर स्थिति पैदा कर दी गई थी कि पाकिस्तानी वायुसेना और उसकी हवाई सुरक्षा व्यवस्था इस ऑपरेशन में कोई दखल तक नहीं दे पाई. पाकिस्तान का सैन्य तथा आर्थिक इन्फ्रास्ट्रक्चर भारतीय वायुसेना की रहम पर निर्भर हो गई थी. इसलिए पाकिस्तान ने संघर्ष विराम की मांग की.
इस लिहाज से देखें तो जान-माल के नुकसान की बात करना बेमानी है. पाकिस्तान को रणनीति के मामले में जबरदस्त मनोवैज्ञानिक हार का सामना करना पड़ा. याद रहे कि 16 दिसंबर 1971 को उसकी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में जब आत्मसमर्पण किया था तब वह लगभग साबुत थी. उस समय जीत रणनीति के मामले में मनोवैज्ञानिक पराजय देकर हासिल की गई थी.
यहां यह बताना उपयुक्त होगा कि ऊपर मैंने राजनीतिक और सैन्य लक्ष्यों के बारे में जो चर्चा की है वह सैन्य सिद्धांत पर आधारित है. घोषित राजनीतिक तथा सैन्य लक्ष्य आतंकवादियों और उनके रहनुमाओं (पाकिस्तानी सेना) को सजा देना था. अगर वास्तव में यही लक्ष्य था, तो यह गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि इसका अर्थ यह हुआ कि रणनीतिक नतीजा योजना के मुताबिक नहीं बल्कि संयोग से हासिल हो गया.
क्या पाकिस्तान को मजबूर बनाया गया?
पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व को पता है कि उसकी परमाणु क्षमता के नीचे टेक्नोलॉजी केंद्रित संघर्ष की गुंजाइश है. आप अपनी राजधानी तथा सैन्य संपत्तियों, और पूरे आंतरिक इलाके में मौजूद सैन्य ठिकानों के इर्द-गिर्द मिसाइलें तैनात करने के बाद भी यह भरोसा नहीं कर सकते कि आपको दूसरे पक्ष की मर्जी पर चलने को मजबूर नहीं किया गया है. पाकिस्तान को रणनीति के मामले में मनोवैज्ञानिक रूप से पराजित करके मजबूर वाली स्थिति में ला दिया गया है. लेकिन यह स्थिति कब तक रहेगी, यह इस पर निर्भर करेगा कि भारत सैन्य टेक्नोलॉजी के मामले में भारी बढ़त कब तक बनाए रखता है, जो कि पाकिस्तान की पहुंच से बाहर है.
चूंकि रणनीति के मामले में पाकिस्तान की मनोवैज्ञानिक हार के बावजूद उसकी परमाणु क्षमता ने उसकी रक्षा व्यवस्था को साबुत रखा है, इसलिए वह भारत को फिर चुनौती देने के लिए टेक्नोलॉजी के मामले में बढ़त लेने और अपनी ताकत बढ़ाने की हमेशा कोशिश करेगा. लेकिन उसकी बदहाल अर्थव्यवस्था इसमें रोड़ा बनेगी. 373 अरब डॉलर की अपनी जीडीपी के कारण उसकी यह हसरत एक सपना ही बनी रहेगी. चीन उसे मुफ्त में कुछ देने से रहा. ऐसा उसने उत्तरी कोरिया के लिए भी नहीं किया. लेकिन भारत के साथ लड़ाई के उसके पुराने इतिहास के मद्देनजर पाकिस्तान के लिए अपनी समस्याओं से उबरने की संभावना कम ही है.
पाकिस्तान अब आतंकवाद को अपनी नीति का साधन बनाने की रणनीति की गंभीर समीक्षा करेगा. लेकिन यहां यह बता देना उपयुक्त होगा कि आतंकवाद को एक अवधारणा के रूप में कभी खारिज नहीं किया गया है. पाकिस्तान दोहरा खेल खेलने में माहिर रहा है, जैसा उसने 2001 और 2021 में अमेरिका के साथ खेला था. यह भी हो सकता है कि आतंकवादी बगावत पर उतर आएं और मनमानी करने लगें. इसलिए, पाकिस्तान मामले को गरम रखने के लिए छद्म युद्ध को सावधानी से दूसरा रूप दे सकता है. वह फिर से स्थानीय आतंकवादियों पर ज्यादा भरोसा कर सकता है.
भारत क्या करे
चीन लंबे समय तक भारत का प्रतिद्वंद्वी रहेगा और पाकिस्तान महज एक उकसावा बना रहेगा. चीन चूंकि उसे केवल परोक्ष समर्थन देता रहा है और हथियार बेचता रहा है इसलिए भारत पाकिस्तान को रणनीति के मामले में मनोवैज्ञानिक पराजय दे सका. जैसा कि मैंने कहा है, वह बाल बाल बच गया. उस स्थिति की कल्पना कीजिए जब सीधी टक्कर होगी.
भारत को अपनी सेना में तेजी से बदलाव लाने के लिए अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और उसके साथ राष्ट्रीय रक्षा नीति को औपचारिक रूप देना चाहिए. यह उस सैन्य रणनीति का रास्ता बनाएगा जो संघर्ष से जुड़े जिससे सभी तरह के खतरों का सामना किया जा सकेगा. जनसभाओं में नेतृत्व जिस राजनीतिक सुरक्षा सिद्धांत की बात करता है उसे तार्किक सुरक्षा रणनीति में बदलना होगा. कोई भी राष्ट्र गिनती के आतंकवादियों की हरकतों पर आधारित ‘स्थायी संघर्ष’ में उलझा नहीं रह सकता.
सैन्य मामलों में पाकिस्तान से भारी तकनीकी बढ़त लेने और चीन को जिच में डालने के लिए, वह भी ऐसे संघर्ष में जिसमें दोनों प्रतिद्वंद्वियों के बीच मिलीभगत हो, भारत को अपनी सेना में बदलाव करने ही पड़ेंगे. इस बदलाव के लिए हमें अपने रक्षा बजट को जीडीपी के 4 फीसदी के बराबर करना होगा. सैन्य दृष्टि से अमेरिका और उसके मित्र देशों की बराबरी करने के लिए सोवियत संघ खुद भीख मांगने पर उतारू हो गया था. पाकिस्तान भी ऐसा ही करेगा.
जम्मू-कश्मीर में भारत को आतंकवाद के खिलाफ अपनी ‘डेटरेंस बाइ डिनायल’ वाली रणनीति को बेहतर बनाना होगा. अंदरूनी इलाकों में घुसपैठ विरोधी और आतंक विरोधी ग्रिडों को सुधारना होगा. गिनती के आतंकवादी जंगली और ऊपरी पहाड़ी इलाकों में हावी हैं. आंकड़ों पर सरसरी नजर डालने से ही साफ हो जाएगा कि भारत जम्मू-कश्मीर में जीत रहा है.
वहां हिंसा न्यूनतम स्तर पर है. पहल आतंकवादियों के हाथ में है और वे कभी भी कोई बड़ा कांड कर सकते हैं. लेकिन इसके बाद ज़ोर-जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए, वरना स्थानीय आबादी फिर से अलग-थलग हो जाएगी. राजनीतिक सुलह की कोशिशों को इक्का-दुक्का आतंकवादी घटनाओं का बंधक नहीं बनाया जाना चाहिए. उसे फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा देना स्थानीय लोगों का दिल-दिमाग जीतने में बड़ी मदद कर सकता है.
चीन के दबाव और मिलीभगत से फिर जोश में आए पाकिस्तान के साथ एक और टक्कर हो सकती है. मेरा आकलन है कि इसमें पांच साल या अधिकतम 10 साल लग सकते हैं. लेकिन भारत अगर पाकिस्तान को निर्णायक रूप से हराने और चीन को भी गतिरोध की स्थिति में डालने लायक सैन्य क्षमता हासिल कर लेता है तो अगले संघर्ष को रोका जा सकता है.
लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, एवीएसएम, ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवा की. वे उत्तरी कमान और केंद्रीय कमान के कमांडर रहे. रिटायरमेंट के बाद, उन्होंने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में सदस्य के रूप में काम किया. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.
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