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Sunday, 24 November, 2024
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शाहनवाज़ हुसैन का बिहार में पुनर्वास BJP के मुस्लिम नेताओं के विकल्पों पर क्या संदेश देता है

हुसैन 'नीतीश को खत्म करने के अभियान' को वहां से आगे बढ़ा सकते हैं, भाजपा उन्हें नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में भी शामिल करा सकती है.

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अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में 32 वर्षीय सबसे युवा केंद्रीय मंत्री बनने के बीस साल बाद, सैयद शाहनवाज़ हुसैन बिहार की राजनीति में लौट रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें बिहार विधान परिषद चुनाव में प्रत्याशी बनाया है. राज्य विधानसभा में दलगत आंकड़ों को देखते हुए हुसैन का चुना जाना एक औपचारिकता मात्र है. इस नामांकन को दो तरह से देखा जा सकता है: भाजपा ने अंतत: उनका राजनीतिक पुनर्वास किया है; या, भाजपा ने अंतत: उन्हें दिल्ली से बाहर कर दिया है.

इसे पुनर्वास के रूप में देखने वालों की ये दलील होगी कि शाहनवाज़ हुसैन 2014 में अपने आखिरी चुनाव, जब ‘मोदी लहर’ के बावजूद वे जीत नहीं पाए, के बाद से राजनीतिक बियाबान में गुम थे. अब उनके पास बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जिनसे उनके अधिक सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं रहे हैं, को परेशान करने वाले प्रमुख नेता के रूप में उभरने का अवसर है. शाहनवाज़ हुसैन ने 2019 में अपनी भागलपुर लोकसभा सीट को जनता दल (यूनाइटेड) के कोटे में डालने के लिए सार्वजनिक रूप से कुमार को दोषी ठहराया था.

हुसैन ‘नीतीश को खत्म करने के अभियान’ को वहां से आगे बढ़ा सकते हैं, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘हनुमान’ चिराग पासवान ने ला छोड़ा था. भाजपा उन्हें नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में भी शामिल करा सकती है, ऐसा होने पर वह मंत्रिपरिषद का इकलौता मुस्लिम चेहरा बन जाएंगे.

राज्य के पिछले विधानसभा चुनाव में जहां जदयू के 11 मुस्लिम उम्मीदवारों में से कोई भी नहीं जीत पाया था, वहीं भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के अन्य घटकों ने किसी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में उतारा ही नहीं था.

कल्पना कीजिए एक वरिष्ठ मंत्री, एक मुसलमान, द्वारा लगातार मुख्यमंत्री की आलोचना किए जाने की! नीतीश कुमार को इस संभावना के बारे में सोचने मात्र से ही घबराहट होगी.


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इससे अधिक और कुछ संभव नहीं

यदि आप किसी भाजपा नेता से पूछें, तो वो कहेंगे कि पार्टी ने शाहनवाज़ हुसैन को एक अहम ज़िम्मेदारी सौंपी है — बशर्ते उन्हें नीतीश कुमार सरकार में मंत्री भी बनाया जाता है. और ये कोई तय बात नहीं है.

तो क्या बिहार में मंत्री बनाए जाने पर भी हुसैन खुश होंगे? वैसे, क्या उनके पास और कोई विकल्प है? दरअसल, 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में, भाजपा केंद्रीय नेतृत्व चाहता था कि वह चुनाव लड़ें, लेकिन वह राज़ी नहीं हुए. जाहिर है, उन्होंने विधायक या राज्य में मंत्री बनने की संभावना को अपनी पदावनति के रूप में देखा था.

आखिरकार, वह बमुश्किल 30 की उम्र पार करते ही इतिहास रचने वाले नेता रहे हैं, जब 1999 में उन्होंने भाजपा उम्मीदवार के रूप में मुस्लिम बहुल किशनगंज लोकसभा सीट जीती थी. वाजपेयी ने उन्हें एक जूनियर मंत्री के रूप में मंत्रिपरिषद में शामिल किया था, और कुछ वर्षों के भीतर ही उन्हें कैबिनेट रैंक दे दिया गया था.

आगे चलकर, हुसैन ने दो बार भागलपुर संसदीय सीट जीती. वह 2014 का लोकसभा चुनाव बहुत थोड़े अंतर से हार गए, लेकिन उन्हें राज्यसभा में भेजे जाने और फिर केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने की उम्मीद थी. लेकिन ऐसा होना नहीं था.

इसे 2014 के बाद से राज्यसभा भेजे गए भाजपा प्रत्याशियों के नामों पर एक नज़र डालने मात्र से समझा जा सकता है. मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के लिए नामों को अंतिम रूप देना आसान नहीं रहा होगा. इसलिए नहीं कि योग्य उम्मीदवार अधिक संख्या में थे और उच्च सदन में रिक्तियां कम थीं, बल्कि मामला इसके उलट था.

कल्पना कीजिए कि हुसैन को पिछले साल अपनी पार्टी द्वारा सैयद ज़फर इस्लाम, जो 2014 में भाजपा में शामिल हुए थे, को राज्यसभा भेजा जाते देख कैसा लगा होगा. भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति के सदस्य हुसैन को 2019 के आम चुनाव में उम्मीदवार नहीं बनाया गया क्योंकि सीटों के तालमेल के तहत पार्टी नेतृत्व ने उनकी भागलपुर सीट जदयू को दे दी.

अपने निर्वाचन क्षेत्र को खोने के बाद, वह दिल्ली में ‘बेघर’ भी हो गए. वह पार्टी के एक सांसद को आवंटित पंडित पंत मार्ग के एक बंगले में रह रहे थे. चूंकि उक्त सांसद को भी 2019 में टिकट नहीं दिया गया था, सो हुसैन को बेघर होना पड़ा. वह अंततः दक्षिण दिल्ली में किराये के एक मकान में रहने लगे.


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सीमित दायरा, सीमित भूमिका

तो, शाहनवाज़ हुसैन के लिए अब सबसे अच्छी संभावना क्या है — केंद्रीय कैबिनेट मंत्री रहने के 20 साल बाद बिहार मंत्रिमंडल में शामिल होना? क्योंकि वह कितनी भी उम्मीद और कोशिश करें, वह एक ऐसी पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा नहीं बन सकते जिसने कि 17 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले राज्य में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा नहीं करने का फैसला किया हो. वैसे, भाजपा ने पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश में भी यही रणनीति अपनाई है, जहां मुसलमानों की आबादी 19 फीसदी है. भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में यूपी में 384 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद एक भी मुस्लिम को मैदान में नहीं उतारा था.

पार्टी ने बाद में एक मुसलमान को यूपी विधान परिषद में मनोनीत किया और उसे योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री बनाया. शाहनवाज़ हुसैन के मामले में भी अधिक से अधिक यही हो सकता है.

विधानसभा चुनाव लड़ने से इनकार के बमुश्किल तीन महीने बाद, बिहार स्थानांतरित होने का उनका फैसला सत्ता के गलियारे में, भले ही पटना में, वापसी को लेकर उनकी अधीरता को दर्शाता है. उन्हें हैरत हो रही होगी कि वह अपनी पार्टी के आकाओं के अनुग्रह से दूर कैसे हो गए. वह उमा भारती और स्वर्गीय सुषमा स्वराज के बहुत करीब रहे थे और राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ भी उनका अच्छा तालमेल था.

1990 के दशक की शुरुआत में, अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद सियासी उथल-पुथल के बीच भारती ने एक ब्राह्मण युवती, जिससे हुसैन के प्रेम संबंध थे, के साथ उनकी शादी ‘तय कराई’ थी. युवती के माता-पिता तब इस अंतरधार्मिक विवाह के खिलाफ थे. उन दिनों हुसैन अक्सर कहते थे कि भला ‘धर्म का प्रेम से क्या संबंध’. बेशक, वह अब वह इस बात को नहीं दोहराते हैं — कम से कम सार्वजनिक रूप से तो नहीं ही.

शाहनवाज़ हुसैन को शायद अपनी राजनीति को बदलते वक्त के अनुरूप नहीं बदलने का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है — यानि अपने पुराने राजनीतिक संरक्षकों से दूरी नहीं बनाना जैसा कि उनके कई सहयोगियों ने मोदी-शाह काल में किया है. अपनी पार्टी के अधिकांश प्रमुख मुस्लिम नेताओं के विपरीत, हुसैन ने भाजपा से ही अपनी राजनीति शुरू की थी.

अयोध्या आंदोलन के चरम पर भाजपा का युवा मुस्लिम नेता होना आसान नहीं था. हुसैन को निश्चय ही एक समय भाजपा का पोस्टर-ब्वॉय रहे स्वर्गीय सिकंदर बख्त के भाग्य से ईर्ष्या होती होगी. वर्षों तक कांग्रेसी रहने के बाद बख्त जनता पार्टी में शामिल हो गए थे और फिर भाजपा का संस्थापक-सदस्य बने. आगे चलकर वह राज्यसभा में विपक्ष के नेता, केंद्रीय कैबिनेट मंत्री और फिर केरल के राज्यपाल बने थे. केरल के राजभवन में अब भाजपा का एक अन्य मुस्लिम नेता मौजूद है — आरिफ़ मोहम्मद खान — जो कांग्रेस और अन्य दलों से अपने लंबे जुड़ाव के बाद 2004 में पार्टी में शामिल हुए थे.

हुसैन जैसे 53 वर्षीय राजनेता के लिए, राज्य की राजनीति में एक कार्यकाल कोई बुरा कदम नहीं माना जाएगा. कई राजनेता इसे दो कदम आगे बढ़ने के लिए एक कदम पीछे हटने के रूप में लेंगे. हालांकि हुसैन शायद इतने आशावादी नहीं हों. केंद्र में एक मुख्तार अब्बास नक़वी, आदित्यनाथ सरकार में एक मोहसिन रज़ा, और शायद बिहार में नीतीश कुमार सरकार में एक हुसैन — भाजपा ‘सबका साथ, सबका विकास’ के अपने नारे के लिए इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकती है. नक़वी एक बहुत ही सक्षम मंत्री हो सकते हैं, लेकिन यह उन्हें अल्पसंख्यक मामलों के विभाग से बेहतर किसी ज़िम्मेदारी के काबिल नहीं बना देता.

जैसा कि पिछले साल दिप्रिंट ने रिपोर्ट किया था, एक दर्जन राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन केवल उत्तरप्रदेश में ही मंत्रिपरिषद में कोई मुस्लिम चेहरा है — राज्यमंत्री मोहसिन रज़ा. उनके विभाग का अनुमान लगाना आसान है: अल्पसंख्यक कल्याण, मुस्लिम वक़्फ़ और हज.

भाजपा के महत्वाकांक्षी मुस्लिम नेताओं को तब तक इंतजार करना होगा जब तक कि उनकी पार्टी उन्हें चुनावी रूप से उपयोगी नहीं मानने लगती. और यदि ऐसा कभी संभव हुआ, तो भी उसमें लंबा, बहुत लंबा वक़्त लगने की संभावना है. तब तक के लिए, पटना का विकल्प शाहनवाज हुसैन के लिए बेहतर रहेगा.

ये लेखक के निजी विचार हैं. 

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए आप यहां क्लिक करें)

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