संसार की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में गिना जाने वाला भारत निरंतर घटती दुखद घटनाओं से कलंकित हो रहा है, जिनमें लोग ऐसी भगदड़ों में मारे जा रहे हैं जिन्हें टाला जा सकता था. देश में सार्वजनिक स्थानों का शायद ही सम्मान, संरक्षण और बेहतर रखरखाव किया जाता है. नतीजतन, किसी सेवाकार्य या आयोजन के लिए उन स्थानों पर लोगों की भीड़ जमा होती है और तमाम तरह की समस्याएं पैदा होती हैं.
‘‘अर्बन इंफ्रास्ट्रक्चर डीके’’ अर्थात शहर के बुनियादी ढांचे के लगातार होते पतन एवं शहर की क्षमता और शहरी सुविधाओं में बेकाबू गिरावट इस संकट को गहरा कर रही है. 15 फरवरी को नई दिल्ली स्टेशन पर भगदड़ में 18 लोग मारे गए. यह केवल स्थानीय दुर्घटना नहीं थी बल्कि इसने दुनियाभर में हमें शर्मसार किया. इसने यह एहसास करा दिया कि ‘विश्वगुरु’ बनने की ख्वाहिश रखने वाले देश को सबसे अहम स्थलों का रखरखाव और प्रशासन करने जैसे बुनियादी काम में भी संघर्ष करना पड़ रहा है.
राष्ट्रीय राजधानी के केंद्रीय स्थान के प्रबंधन में असफलता के कारण इतने लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी, यह एक घिनौना संदेश देती है कि इस देश ने पिछली गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा है और यह संकेत दे रहा है कि न कभी सबक वह सीखेगा.
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बार-बार होती दुर्घटना
इस तरह के हादसे बार-बार घट रहे हैं, यह सदमा पहुंचाने और निराश करने वाली बात है. हाल में पूरी दुनिया में भीड़ के कारण जिन देशों में घातक हादसे हुए उनमें भारत ही अकेली ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसका नाम बार-बार दर्ज़ है. हम नाइजीरिया, गिनी, कोंगो, केमरून, मडागास्कर, अल साल्वाडोर, यमन, पाकिस्तान, और यूगांडा जैसे देशों में शुमार हैं जो पिछले कुछ साल से इस लिस्ट में सबसे प्रमुख बने हुए हैं, खासकर इन देशों की तुलना में.
यह हमारी व्यवस्थाओं की बार-बार विफलता की निर्विवाद पुष्टि करता है और यह स्वीकार करना हमें शर्मसार करता है कि दुनिया हमें अभी भी इसी नज़र से देख रही है.
भगदड़ में मौत सबसे दुखद है. कल्पना कीजिए कि कोई व्यक्ति लड़खड़ाता है और भगदड़ शुरू हो जाती है, लोग कुचले जाते हैं और लोगों के शरीरों के नीचे दब जाते हैं. इस तरह की बात सोचना भी डरावना है.
लेकिन भारत में लोग भगदड़ से अनजान नहीं हैं. यह प्रायः घटती रहती है. 29 जनवरी को प्रयागराज में महाकुंभ मेले में भगदड़ में कम-से-कम 30 लोग मारे गए, हालांकि इसका सरकारी आंकड़ा नहीं आया है और यह एक घपला बन गया है.
लेकिन इसी बीच सरकार ने यह ‘गिनती’ कर डाली कि वहां 4,000 हेक्टेयर क्षेत्र में ‘64 करोड़’ श्रद्धालुओं ने संगम में डुबकी लगा ली. इसने व्यवस्था की इस दुखद खामी को उजागर कर दिया कि वह मनुष्य की जान से ज्यादा आंकड़ों को महत्व देती है.
इस तरह के हादसे पूरे भारत में होते रहते हैं. उदाहरण के लिए चेन्नई में भारतीय वायुसेना के एअर शो का समापन पांच व्यक्तियों की मौत के साथ हुआ, 100 से ज्यादा दूसरे लोगों को अस्पतालों में भर्ती करना पड़ा. 6 अक्टूबर को इस शो का आयोजन भारतीय वायुसेना की 92वीं वर्षगांठ मनाने के लिए किया गया. बिना उपयुक्त योजना के हुए इस शो को देखने के लिए भारी संख्या में लोग आए, जिसके कारण अराजकता फैल गई. भीड़ को संभालने, ट्रैफिक का संचालन करने में असमर्थता और पर्याप्त मेडिकल सेवा के अभाव की भारी निंदा की गई.
इसी तरह, जुलाई 2024 में हाथरस में एक आयोजन के लिए लोगों के जमावड़े में भगदड़ में 121 लोग मारे गए और 150 से ज्यादा घायल हुए थे. जनवरी 2022 में जम्मू-कश्मीर में वैष्णोदेवी मंदिर में 12 लोगों ने अपनी जान गंवाई और 16 लोग घायल हुए थे. हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में हुई भगदड़ ने 145 लोगों की जान ले ली थी. ये सभी हादसे भीड़ को संभालने में असमर्थता के ही उदाहरण हैं.
तीर्थयात्रा हो या कोई त्योहार हो, इन सभी आयोजनों का प्रायः ठीक से मैनेज नहीं किया जाता जिससे घातक हादसे होते हैं. ये घटनाएं बार-बार घटती रही हैं, लेकिन सरकार ने बुनियादी मसले का समाधान करने की ज्यादा कोशिश नहीं की है.
नई दिल्ली स्टेशन पर हादसा उस दौरान महाकुंभ के लिए टिकट बुकिंग में अचानक तेज़ी के कारण हुआ. 15 फरवरी को शाम 6 से 8 बजे के बीच 9,600 टिकट काटे गए, जबकि समान्यतः 7,000 टिकट बुक हुआ करते थे. अधिकारियों को टिकट के लिए भीड़ बढ़ने की जानकारी थी, लेकिन उन्होंने भीड़ को नियंत्रित करने के कोई उपाय नहीं किए.
ऐसे हादसे और घपले से बचने के लिए सार्वजनिक सुविधाओं के पूरे ढांचे और प्रशासनिक उदासीनता को दुरुस्त करने की ज़रूरत है. दुर्भाग्य से, रेल मंत्रालय वंदे भारत जैसी दिखावटी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने में व्यस्त है.
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नागरिकता की भावना
राष्ट्रीय आपदा के ऐसे मौकों पर व्यवस्था को कोसना आसान है, लेकिन नागरिकता की भावना की कमी की अनदेखी भी अनुचित होगी. भारतीय मानस में अनुशासन, सहानुभूति, और सार्वजनिक आचरण के विवेक की भारी कमी है. भारत में भीड़भाड़ और अस्तव्यस्तता आम बात है, चाहे वह मुंबई की लोकल ट्रेन हो या दिल्ली की मेट्रो हो, या धार्मिक त्योहारों पर लोगों के जमावड़े हों. इन सबमें उचित सार्वजनिक आचरण की कमी नज़र आती रही है. लोग एक-दूसरे को धक्का देते हैं, सार्वजनिक स्थानों की आम तौर पर परवाह नहीं करते. यह सब भारतीय मानस का हिस्सा है, चाहे हम भारत में हों या विदेश में.
लंदन से मिले एक वीडियो से भी यह बात सामने आती है. भारतीय लोग बस में चढ़ने के लिए धक्का देते हुए और स्थानीय लोग उन्हें हैरानी से देखते नज़र आते हैं, जो नस्लीय भेदभाव को भी उजागर करता है. भारतीय लोगों के प्रति नस्लीय भेदभाव बेशक निंदनीय है, लेकिन हमें भी समझना पड़ेगा कि इस तरह के आचरण से भारत की छवि ‘तीसरी दुनिया के देश’ वाली बनती है, जो सामान्य व्यवस्था का भी पालन नहीं कर पाते. इस तरह का हल्का किस्म का आचरण उस समय तो महत्वहीन लगता है, लेकिन यह एक बड़ी सांस्कृतिक समस्या का संकेत देता है. नागरिक जिम्मेदारी की ऐसी कमी के कारण ही भगदड़ जैसी घटनाएं बढ़ती हैं.
क्या बदलाव ज़रूरी हैं
अक्टूबर 2022 में सियोल में भगदड़ में 150 लोगों की जान चली गई, लेकिन दक्षिण कोरिया ने भीड़ नियंत्रण, नियमन और सुरक्षा के उपाय फौरन लागू किए. शीघ्र ऐसी व्यवस्था विकसित की गई ताकि इस तरह के हादसे फिर न हों.
इसके विपरीत भीड़ और भगदड़ के मामले में भारत का रिकॉर्ड बुरा है. बार-बार ऐसी घटनाएं और मौतें होने के बावजूद भीड़ नियंत्रण के मामले में प्रशासन के रुख में कोई खास बदलाव नहीं आया है. दिशा-निर्देशों और प्राथमिक प्रोटोकॉल की कमी साफ दिखती है.
बहरहाल, दो ज़रूरी कदम तुरंत उठाने की ज़रूरत है : शासन में सुधार और सांस्कृतिक बदलाव.
पहली बात : सरकार भीड़ नियंत्रण के व्यापक नियम बनाए और उन्हें सख्ती से लागू करे. इन नियमों के तहत तय किया जाए कि सभाओं आदि में कितनी भीड़ इकट्ठा हो सकती है और बड़ी भीड़ के लिए बड़ी जगह चुनी जाए. स्थानीय अधिकारी खास तौर से उन आयोजनों में सार्वजनिक सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लें जिनमें भारी भीड़ जमा होने की उम्मीद हो. सुरक्षा के नाम पर जुबानी उपाय करना काफी नहीं है, नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी देने के लिए बुनियादी सुविधाओं और तकनीक के विकास में निवेश करना होगा.
दूसरी बात : भारतीय नागरिकता की संस्कृति में मौलिक बदलाव ज़रूरी है. कतार में लगने, सार्वजनिक स्थानों का सम्मान करने, उन्हें साफ-सुथरा रखने जैसी ज़रूरी सामाजिक जिम्मेदारियों की सीख बचपन से ही दी जानी चाहिए. यह किसी कानून के जरिए नहीं सिखाया जा सकता. इसे कोर्सवर्क में ही शामिल किया जाना चाहिए और जागरूकता कार्यक्रमों के जरिए लोगों के आचरण में दाखिल किया जा सकता है.
(कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका एक्स हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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