पिछले दिनों में मेरे कुछ ग़ैर-पत्रकार मित्र जो अफगानिस्तान में रायटर्स के फोटो जर्नलिस्ट दानिश सिद्दीकी की तालिबान हमले में हुई मृत्यु से बहुत दुखी हैं, मुझसे पूछ रहे हैं कि पत्रकार अपने जीवन को जोखिम में क्यों डालते हैं? दानिश को युद्धग्रस्त कंधार में जाने की क्या जरूरत थी?
मैं खुद कई वर्षों तक मध्य भारत की रणभूमि में रहा हूं, वहां से रिपोर्टिंग की है और आज भी नियमित वहां जाता रहता हूं. मैं कई ऐसे पत्रकारों को जानता हूं जो इन खतरनाक रास्तों पर चलते हैं. एक अच्छी खबर हासिल करने की तड़प और इस खबर के लिए ख़ुद को क़ुर्बान कर देने की आकांक्षा के साथ सोया और जागा हूं. मैं इस मासूम भरोसे के साथ इन रास्तों पर गया हूं कि यह तड़प मुझे मंडराती मृत्यु के भय से मुक्त कर देगी.
रणभूमि में जिस पहले पत्रकार की मृत्यु से मैं रूबरू हुआ था, वह थीं मेरी कोल्विन 22 फ़रवरी दो हज़ार बारह. वह सीरिया में चल रहे युद्ध पर पत्रकारिता कर रहीं थीं, जब उनकी हत्या हुई. मैं उस दिन बस्तर में था. मेरा नक्सलियों के उस जंगल में सातवां महीना था. मैं युद्धभूमि में ख़ुद को बचाए रखने के बुनियादी सिद्धांत सीख रहा था. वे भीषण दिन थे. बस्तर में सड़कें बहुत कम थीं. ज़िला मुख्यालय से थोड़ा दूर जा जंगल शुरु हो जाता था, जहां पगडंडियों के नीचे बारूद सोया रहता था, जो बाइक के टायर के मामूली दबाव से फूट जाता था. लेकिन खबर लाने के लिए उन्हीं बीहड़ पगडंडियों से गुजरना होता था.
मध्य भारत के ये जंगल भारतीय सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच चलते संग्राम के साक्षी थे. मैं अपने शुरुआती वर्षों में कई बार बाल-बाल बचा. दो बार नक्सलियों ने मुझे बंदी बनाया, दो बार मैं उनके शिविर में था जब मुझे यह बताया गया था कि सुरक्षा बल रात में हमला कर सकते हैं. नक्सलियों ने क्लेमोर बारूद की लड़ियां चारों तरफ़ बिछा दी थीं और मुझे कहा था कि गोली चलें तो सब कुछ छोड़ कर पास की पहाड़ी की ओर भाग जाना दस बरस बाद जब मुझे लगा कि अब कुछ भी देखना बाक़ी नहीं रहा, 2021 जनवरी में फिर से अपने सौभाग्य की शरण में था. सुकमा-बीजापुर सीमा की जिस जंगली पगडंडी से मैं उस सुबह गुजर रहा था, वहां सिर्फ़ आधा घंटा पहले सुरक्षा बलों ने एक बम को बरामद कर निष्क्रिय किया था, जो कदम रखने पर फूटता था.
खतरे के कई रूप
रणभूमि में दानिश या कोल्विन जैसे पत्रकारों की मृत्यु की खबर सुन आप जीवित रहे आने के अपराधबोध से घिर जाते हैं. दानिश अफगानिस्तान में 1992 से मारे गए 54वें पत्रकार थे. लेकिन क्या उनकी मृत्यु किसी पत्रकार को काबुल या कंधार जाने से रोक पायेगी? नहीं. सुरक्षा बलों के साथ दुश्मन की सीमा में जा पत्रकारिता करने वाले दानिश पहले पत्रकार नहीं थे, न ही आखिरी होंगे.
यह भी पढ़ें : नक्सलियों के खिलाफ निर्णायक युद्ध की बात एकदम बेतुकी- बस्तर जाकर देखिए, वहां अरसे से युद्ध जारी है
दूरदर्शन के कैमरामैन अच्युतानंद साहू 2018 में बस्तर में पुलिस दल के साथ जा रहे थे जब नक्सलियों के हमले में उनकी मृत्यु हो गयी. उनकी मृत्यु के बाद कई बयान जारी हुए, दूरदर्शन ने उनके परिजनों को मुआवज़ा भी दिया. लेकिन दुर्भाग्य है कि छोटे शहरों के पत्रकारों की मौतें अक्सर अनदेखी रह जाती हैं. 2013 में माओवादियों ने बस्तर के दो पत्रकारों नेमिचंद जैन और साई रेड्डी की पुलिस का मुखबिर कह कर हत्या कर दी थी. विडम्बना देखिए कि उनके हिंदी अखबार माओवादियों के डर से उनकी मृत्यु पर लगभग चुप रहे आए.
पश्चिमी देशों के विपरीत भारत में शायद ही कोई ऐसा मीडिया घराना है जो युद्धक्षेत्र में जाने वाले पत्रकारों को प्रशिक्षण देता है. भारतीय पत्रकार मैदान में जाकर ही जान बचाने के गुर सीखते हैं. लेकिन रणभूमि में पत्रकारिता के सभी नियम जंगल के स्वभाव की तरह ही अबूझ हैं. मसलन, हमें बताया जाता है कि जंगल में जाने से कुछ दिन पहले मलेरिया की गोलियां और एंटीबायोटिक शुरु कर दो, लेकिन रोग के लक्षण के बिना इन दवाओं को लेने से शरीर दरकने लगता है. एक नियम यह है कि सुरक्षा बलों के साथ मत चलो, लेकिन कोई ठिकाना न मिलने पर अक्सर उनके शिविर में रात बितानी पड़ती हैं. युद्ध में दोनों पक्ष से दूरी बनाकर रखनी चाहिए क्योंकि किसी एक पक्ष से जुडने से आप निशाने पर आ जाते हैं. लेकिन कई बार इससे भी कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता.
कश्मीर में कई स्थानीय मुस्लिम पत्रकारों को अक्सर आतंकवादियों का हमदर्द मान लिया जाता है, तो हिन्दू पत्रकारों को सरकार समर्थक, जो दोनों के साथ अन्याय है. कुछ महीने पहले बीजापुर के पत्रकार गणेश मिश्र को माओवादियों की ओर से धमकी भरा पत्र मिला था. मेरी स्थिति भी भिन्न नहीं है. दक्षिणपंथी अक्सर मुझे ‘शहरी नक्सल’ कहते हैं, और नक्सलियों की सबसे ऊंची इकाई सीपीआई (माओवादी) की केंद्रीय कमेटी के प्रवक्ता ने मुझे हाल ही पांच पन्ने का पत्र भेजा और आरोप लगाया कि मैंने अपनी किताब ‘द डेथ स्क्रिप्ट’ में उनके साथ न्याय नहीं किया है, सरकार का पक्षधर रहा हूं. यानी, अब मुझे बस्तर में कहीं सतर्क रहना पड़ेगा.
आत्मा के घाव
लेकिन जीवन पर मंडराते ख़तरे के अलावा एक अन्य त्रासदी है, जिसकी प्रायः चर्चा नहीं होती. युद्धक्षेत्र में लंबे समय तक काम करने के बाद पत्रकार जब ‘शांति-क्षेत्र’ में आता है, खुद को अक्सर वहां अप्रासंगिक और अनुपयुक्त पाता है. लहू और मृत्यु पर लिख चुकने के बाद वह अन्य ख़बरों को लिखने में लगभग असमर्थ हो जाता है. मृत्यु को अपनी संगिनी बना लेने के बाद तमाम अन्य प्रेम नीरस महसूस होते हैं. शायद यही वजह है कि दानिश जैसे पत्रकार एक रणभूमि से लौट दूसरी की तरफ़ चले जाते हैं.
रणभूमि की पत्रकारिता आपकी देह और आत्मा को, आपके स्वभाव और इच्छाओं को बुनियादी तौर से बदल सकती है. यह आपको ‘मौत के कुएं’ में तेज गति से बाइक चलाने वाले इंसान में बदल देती है. यह आपको उस जादूगर जैसा बना देती है, जो अपने हाथ-पैर लोहे के जंजीर से बांधकर एक बक्से में बंद हो जाता है और दर्शकों से कहता है कि वे उस बक्से को तेज गति से आ रहे ट्रक के सामने रख दें. उसकी कला इसमें निहित है कि वह ट्रक द्वारा बक्से को कुचले जाने से पहले उससे बाहर निकल जाए. एक क्षण की देरी हुई कि वह ख़त्म हो जाएगा.
हमें इसी मानसिकता को समझने की जरूरत है. दानिश को अफ़ग़ानी सुरक्षा बलों के साथ ‘हमवी’ (सेना के वाहन) में जाने के लिए किस भावना ने प्रेरित किया? उन्होंने जो वीडियो ट्वीट किया, उसमें साफ़ दिख रहा है कि उनके वाहन पर गोलियां और गोले बरसाए जा रहे हैं, लेकिन वे अफ़ग़ानी सेना के साथ रहे आए. अफगानिस्तान में मारे जाने वाले वे शायद पहले भारतीय पत्रकार थे. उनकी मृत्यु के शोक में डूबे हम भारतीय पत्रकारों के लिए उन्हें श्रद्धांजलि देने का एक ज़रिया यह हो सकता है कि हम अफगानिस्तान जाकर वे खबरें पूरी करें जो दानिश न कर सके.
दूसरा, हम प्रश्न करें कि आख़िर पत्रकारों को जोखिम उठाने की प्रेरणा कहां से मिलती है? जब हैशटैग वाला आसान रास्ता उपलब्ध है जिस पर चल सिलेब्रिटी बना जा सकता है, तब वे ये कठिन राह क्यों चुनते हैं? इन सवालों के जवाब में इस महान कर्म की चुनौतियां झलक जायेंगी. आख़िर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दानिश का काम कई वर्षों से चर्चा में था, लेकिन पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित इस पत्रकार का चेहरा तो छोड़िए, उनका नाम भी कई लोगों को पता नहीं था. उनकी मृत्यु के बाद इन लोगों मालूम चला कि उन विलक्षण तस्वीरों को अपने कैमरे में दर्ज करने वाली ये निगाह किसकी थीं.
(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनकी हालिया किताब ‘द डेथ स्क्रिप्ट ’ नक्सल आंदोलन का इतिहास लिखती है. व्यक्त विचार निजी है)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)