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Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमतसावरकर ब्रिटेन के पिट्ठू थे या एक रणनीतिक राष्ट्रवादी? राय बनाने से पहले इसे पढ़ें

सावरकर ब्रिटेन के पिट्ठू थे या एक रणनीतिक राष्ट्रवादी? राय बनाने से पहले इसे पढ़ें

विनायक दामोदर सावरकर की याचिकाओं की कुछ पंक्तियों को बिना पूर्णता में देखे या बिना संदर्भ के उद्धृत करना बौद्धिक बेईमानी है.

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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ में अपनी एक चुनावी रैली में हाल ही में जब कथित रूप से यह कहा कि स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर ने कैद से छूटने के लिए ब्रितानी अधिकारियों से माफी मांगी थी, तो इसके विरोध में प्रतिक्रिया अपेक्षित थी. सावरकर के पोते रंजीत सावरकर ने मुंबई में पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, जबकि राजनीतिक वर्ग और टेलीविज़न चैनलों को कीचड़ उछालने और शोरशराबे वाली बहसों के लिए एक नया मुद्दा मिल गया. एक इतिहासकार के रूप में, मुझे तकलीफ होती है जब तुच्छ राजनीतिक हितों के लिए राष्ट्रीय नायकों को कलंकित किया जाता है.

कानून के छात्र के रूप में लंदन में बिताए पांच वर्षों के दौरान सावरकर ने ब्रितानी शासन से पूर्ण आज़ादी की मांग करने वाले क्रांतिकारी आंदोलन को मज़बूत किया. ब्रिटेन शासित भारत को वैश्विक चर्चा के केंद्र में लाने के लिए उनके मार्गदर्शन में भारत से लेकर यूरोप और अमेरिका तक में सक्रिय बहादुर क्रांतिकारियों के नेटवर्क ने आयरिश, फ्रांसीसी, रूसी और अमेरिकी नेताओं, क्रांतिकारियों और प्रेस सें संपर्क किया. बेशक, ब्रितानी सरकार ने उन्हें सर्वाधिक खतरनाक राजद्रोहियों में शामिल किया था.

भगोड़ा अपराधी कानून 1881 के तहत अन्यायपूर्ण तरीके से भारत प्रत्यर्पित कर सावरकर पर मुक़दमा चलाया गया. लंदन में वे एक वैध छात्र थे न कि कोई भगोड़ा. उन्हें अपील करने या अपना बचाव करने की इजाज़त नहीं दी गई. उन्हें आजीवन कारावास की कुल 50 वर्षों की दो सज़ाएं देकर उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर के साथ अंडमान के सेलुलर जेल में सड़ने के लिए छोड़ दिया गया. दस्तावेज़ों में दर्ज है कि सावरकर की उपस्थिति मात्र से ही ब्रितानी अधिकारियों में इतनी घबराहट थी कि वे चाहते थे उन्हें भारत की मुख्यभूमि से जितना दूर हो सके रखा जाए.

सेलुलर जेल में उन्हें बहुत बुरी तरह दंडित किया गया. बेड़ियों में जकड़ा गया, पीटा गया, छह महीने तक कालकोठरी में रखा गया, दिन-दिन भर के लिए बैल की तरह कोल्हू में जोता गया और लगातार कई दिनों तक हथकड़ी लगाकर रखा गया. उन्हें पानी और टॉयलेट जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं दी गई थीं, और कीड़े-मकोड़ों से भरा खाना दिया जाता था. सचमुच में यह एक शैतानी द्वीप था.

सावरकर और कई अन्य कैदियों ने जेल में अपने साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के विरोध में 1913 में भूख हड़ताल और असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया. अंडमान के बाहर आम देशवासी काला पानी में हमवतनों को दी जा रही यातनाओं से अंजान थे. इसलिए जेल के भीतर से भारतीय अखबारों के लिए गुपचुप तरीके से लेख भेजे जाते थे. पोर्ट ब्लेयर में बम बनाने की सावरकर की गुप्त कोशिश ने अधिकारियों को चौकन्ना कर दिया.

अंतत: अक्टूबर 1913 में भारत सरकार के गृह विभाग के प्रभारी सर रेजिनाल्ड एच क्रेडॉक ने सेलुलर जेल का दौरा कर वहां के कुछ प्रमुख राजनीतिक कैदियों से उनकी शिकायतों के बारे में बातचीत करने का फैसला किया. सावरकर के अलावा राजनीतिक कैदियों में से बरीन घोष, नंद गोपाल, हृषिकेश कांजीलाल और सुधीर कुमार सरकार से बातचीत की गई और उन्हें याचिकाएं पेश करने की अनुमति दी गई.

यह प्रक्रिया उसी तरह एक वैध साधन के रूप में ब्रितानी भारत के सभी राजनीतिक कैदियों के लिए उपलब्ध थी, जिस तरह किसी वकील के ज़रिए अदालत में खुद का बचाव करने का अवसर उपलब्ध था. एक बैरिस्टर होने के नाते सावरकर कानून जानते थे और वह खुद को आज़ाद कराने या जेल में अपनी स्थिति में सुधार के लिए तमाम उपलब्ध उपायों का इस्तेमाल करने के पक्षधर थे. सावरकर अक्सर अन्य राजनीतिक कैदियों को भी सीख देते थे कि एक क्रांतिकारी का प्रधान कर्तव्य खुद को ब्रितानी चंगुल से आज़ाद कराना है ताकि स्वतंत्रता संग्राम और मातृभूमि की सेवा में दोबारा लगा जा सके.

क्रेडॉक को 14 नवंबर 1913 को सौंपी अपनी याचिका में सावरकर ने दलील दी थी कि हत्या, बलात्कार, चोरी और अन्य अपराधों के लिए सज़ायाफ़्ता कैदियों को उनके अच्छे आचरण के आधार पर ऊपर की श्रेणी में प्रोन्नत किया जाता है या 6 से 8 महीने के बाद उन्हें खुले में काम करने दिया जाता है, जबकि उन्हें यह सुविधा नहीं दी गई थी क्योंकि वह ‘विशेष श्रेणी’ के कैदी थे.

लेकिन जब उन्होंने बेहतर खाने और उपचार की मांग की, तब उन्हें ‘सामान्य सज़ायाफ़्ता’ बताते हुए उनकी मांगों को खारिज़ कर दिया गया. यदि वह किसी भारतीय जेल में राजनीतिक कैदी होते तो उन्होंने सज़ा अवधि में छूट अर्जित की होती या उन्हें तब के एक बार के मुकाबले साल में एक से अधिक बार पत्र लिखने और परिवार से मिलने की अनुमति प्राप्त हुई होती. इस भेदभाव से उन्हें दोनों ही मामलों में नुकसान हुआ.

वर्ष 1909 में मॉर्ले-मिंटो सुधारों के ज़रिए भारतीयों के लिए विधायी परिषदों और शिक्षा के क्षेत्र में भागीदारी के अनेक अवसर उपलब्ध हुए. इसलिए सावरकर ने अपनी याचिका में कहा कि बंदूक उठाना अब ज़रूरी नहीं रह गया है इसलिए उन्हें राजनीति की मुख्य धारा से जुड़ने और भारतीयों की संवैधानिक भागीदारी बढ़ाने की दिशा में सरकार के साथ मिलकर काम करने में प्रसन्नता होगी.

‘मैं किसी तरजीही व्यवहार की मांग नहीं कर रहा,’ उन्होंने कहा, ‘हालांकि मुझे लगता है कि स्वतंत्र राष्ट्रों की दुनिया में एक राजनीतिक कैदी के रूप में किसी भी सभ्य प्रशासन से इसकी उम्मीद की जा सकती है; मैं तो बस उन रियायतों और सुविधाओं की बात कर रहा हूं जो निकृष्टतम कैदियों और छंटे अपराधियों तक को मिलती हैं.’ यह एक तरह से परोक्ष रूप से असभ्य कहकर ब्रितानी भारत का मज़ाक उड़ाए जाने जैसा था.

विडंबना यह है कि याचिकाओं के लिए सावरकर की आलोचना करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता वही हैं जो कि कसाब, याकूब मेमन, और नक्सलियों एवं उनके बौद्धिक समर्थकों के पक्ष में आवाज़ उठाते हैं. विवादों के केंद्र में मौजूद याचिका की अंतिम पंक्ति की एकाधिक तरीके से व्याख्या हो सकती है: ‘सिर्फ बलवान ही कृपालु हो सकते हैं और इसलिए घर से भागा बेटा सरकार रूपी मां-बाप के अलावा किसके पास लौटकर आ सकता है?’ बाइबिल का संदर्भ होने के कारण, यह कहा जा सकता है कि वह उन्हें कैद में डालने वालों की धार्मिक भावनाओं को जगाने का प्रयास कर रहे थे. इस याचिका की मात्र कुछ पंक्तियों को पूर्णता में देखे बिना या बिना संदर्भ के उद्धृत करना बौद्धिक बेईमानी है.

यह बात दिलचस्प है कि क्रेडॉक ने अपनी रिपोर्ट भारत वापसी के दौरान जहाज़ पर लिखी जिसमें उसने लिखा कि सावरकर को अपने कार्यों को लेकर ‘कोई अफसोस या पछतावा है यह कहा नहीं जा सकता है.’

क्रेडॉक ने आगे लिखा, ‘वह इतना महत्वपूर्ण नेता है कि भारतीय अराजकतावादियों की यूरोप स्थित जमात उसे छुड़ाने की साजिश रचेगी जिसे शीघ्र ही अंजाम दिया जाएगा. यदि उसे अंडमान में सेलुलर जेल से बाहर रखा गया तो उसका भागना निश्चित है. उसके मित्र आसानी से कोई स्टीमर किराये पर लेकर तैयार रहेंगे और स्थानीय लोगों में थोड़े पैसे बांटने से बाकी का काम हो जाएगा.’ स्वाभाविक है सरकार ने उनकी याचिका खारिज कर दी और सावरकर के लिए परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं हुआ.

पहला विश्व युद्ध छिड़ने के साथ ही सावरकर ने अक्टूबर 1914 में एक और याचिका दायर कर ‘मौजूदा युद्ध में भारतीय सरकार की मर्ज़ी की कोई भी सेवा करने’ की पेशकश की. उसी याचिका में उन्होंने ‘उन सभी कैदियों, जिन्हें कि भारत में राजनीतिक अपराधों के लिए सज़ा मिली है,’ की आम रिहाई का भी आग्रह किया. ऐसा अनेक ब्रितानी उपनिवेशों में किया जा रहा था.

दिचलस्प बात है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस नाज़ुक वक़्त में ब्रिटेन का खुलकर समर्थन किया था. जब प्रथम विश्व युद्ध छिड़ा, महात्मा गांधी इंग्लैंड में थे जहां उन्होंने एक चिकित्सा सहायता दल गठित करने का प्रयास शुरू किया, उसी तरह का दल जो कि उनकी अगुवाई में बोअर युद्ध में ब्रितानियों की सहायता के लिए गया था और इस वफादारी के लिए उन्हें स्वर्ण पदक भी मिला था. उन्होंने 22 सितंबर 1914 को जारी एक सर्कुलर में अपनी फील्ड एंबुलेंस ट्रेनिंग कोर में भर्ती की अपील जारी की थी.

जनवरी 1915 में भारत वापसी के बाद, गांधीजी ने विश्व युद्ध संबंधी ब्रितानी प्रयासों में बिना शर्त सहयोग की पेशकश की. उनका मानना था कि ब्रिटेन को शर्मिंदा करने या भारत की मुक्ति के लिए उसकी मुश्किलों का फायदा उठाने के लिए यह सही वक़्त नहीं था.

उन्होंने कहा, ‘इंग्लैंड की मुश्किल परिस्थिति का अपने लिए अवसर के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए और युद्ध के जारी रहते अपनी मांगों पर ज़ोर नहीं देना ज़्यादा शोभनीय और दूरदृष्टि वाला कद़म है.’ गुजरात में गांव-गांव घूमते हुए उन्होंने युद्ध में ब्रितानियों की सहायता के लिए स्वयंसेवकों को भर्ती किया. यह भला सावरकर की 1914 की याचिका से कैसे अलग था?

सावरकर ने 5 अक्टूबर 1917 को भारतीय मामलों के विदेश मंत्री एडविन सैमुअल मांटेग्यू को प्रेषित अपनी अगली यचिका में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों का ज़िक्र किया जिसमें भारतीयों के लिए सीमित स्वशासन और दो सदनों वाली विधायिका का वादा किया गया था. उन्होंने भारत को स्वशासन का अधिकार दिए जाने और उसे राष्ट्रमंडल का एक स्वायत्त सदस्य बनाए जाने की जमकर वकालत की.

उन्होंने कहा, ‘किसी संविधान की अनुपस्थिति में संवैधानिक सुधारों की बात मज़ाक की तरह होती. पर अब जबकि एक संविधान मौजूद है, और होमरूल निश्चय ही ऐसा है, तो ऐसे में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षिक रूप से इतना काम किया जाना है और संवैधानिक रूप से किया जा सकता है, कि सरकार इस बात को लेकर पूरी तरह निश्चिंत रह सकती है कि कोई भी राजनीतिक कैदी मात्र मौज के लिए गुप्त आंदोलनों में शामिल होकर खुद के लिए भारी विपत्ति को न्योता नहीं देगा.’ रूस, फ्रांस, आयरलैंड, ट्रांसवाल और ऑस्ट्रिया में क्षमादान की परंपरा स्थापित होते जाने का उल्लेख करते हुए उन्होंने एक अच्छे वकील की तरह अपनी दलील पेश की.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपनी याचिका में उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा, ‘यदि सरकार सोचती है कि सिर्फ अपनी रिहाई के लिए मैंने यह लिखा है; या यदि मेरा नाम ऐसे क्षमादान की राह का सबसे बड़ा अवरोध है; तो सरकार अपने क्षमादान आदेश से मेरा नाम निकालकर बाकियों को रिहा कर दे; इससे मुझे अपनी खुद की रिहाई जितनी संतुष्टि मिलेगी.’

क्या ये शब्द किसी कायर या मौकापरस्त ब्रितानी पिट्ठू के हो सकते हैं?

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर, सम्राट जॉर्ज पंचम की शाही घोषणा के ज़रिए पूरे भारत और अंडमान में कैद सभी राजनीतिक बंदियों को एकमुश्त क्षमादान दिया गया. बरीन घोष, त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती, हेमचंद्र दास, सचींद्रनाथ सान्याल, परमानंद और अन्य कैदियों को सेलुलर जेल से रिहा किया गया, इस शपथ के साथ कि वे एक निर्धारित अवधि तक राजनीति में शिरकरत नहीं करेंगे.

कांग्रेस के 1919 के असहयोग आंदोलन के बाद गिरफ्तार कार्यकर्ताओं को भी इसी सिद्धांत के अनुरूप रिहाई मिली. फिर भी, इन सबको मिली रियायतें सावरकर और उनके बड़े भाई को नहीं दी गईं. सचींद्रनाथ सान्याल ने अपनी आत्मकथा में सावरकर जैसी ही याचिका भेजने और रिहा किए जाने, जबकि सावरकर को कैद में ही रखे जाने का उल्लेख किया है, क्योंकि सरकार को डर था कि उनकी रिहाई महाराष्ट्र में शांत पड़ चुके क्रांतिकारी आंदोलन को पुनर्जीवित कर देगी जिसका कि उन सबने अपने गुप्त संगठन अभिनव भारत के ज़रिए नेतृत्व किया था.

स्वाभाविक है कि सावरकर ने इस अन्याय के खिलाफ अपनी 20 मार्च 1920 की याचिका के ज़रिए अपील की. इन याचिकाओं में से किसी में भी उन्होंने कभी ये नहीं कहा कि अपने क्रांतिकारी अतीत को लेकर उन्हें अफसोस है.

आखिर में जब सेलुलर जेल को बंद किया जाने वाला था तब जाकर ब्रितानियों ने मई 1921 में सावरकर को रत्नागिरि जेल में स्थानांतरित करने का फैसला किया. तब तक सावरकर पोर्ट ब्लेयर में महत्वपूर्ण जेल सुधारों को लागू करवा चुके थे जिनमें पुस्तकालय की स्थापना, कैदियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था और जबरिया धर्म परिवर्तन पर रोक जैसी बातें शामिल थीं. उन्हें यह जानकर बड़ा झटका लगा कि अथक प्रयासों से जो रियायतें उन्हें अंडमान में मिली थीं वो रत्नागिरि जेल में वापस ले ली गई थीं और वह दोबारा अपनी जेल यात्रा की शुरुआत की स्थिति में आ चुके थे.

इस बात ने उनका मनोबल तोड़ दिया और उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘माय ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ़’ में खुलकर लिखा कि यह तीसरा मौका था (इससे पहले दो बार पोर्ट ब्लेयर में) कि उन्होंने आत्महत्या की सोची क्योंकि उन्हें अपनी स्थिति बेहद निराशाजनक लग रही थी. अपनी दृढ़ता और आंतरिक ताकत के बल पर ही वे उन निराशाजनक विचारों से पार पा सके, वरना कई अन्य राजनीतिक बंदी या तो अपनी छोटी कालकोठरियों में फंदे से झूल गए थे या विक्षिप्त हो गए थे. ऐसी मानसिक अवस्था में, 19 अगस्त 1921 की उनकी याचिका में एक टूटे और निराश व्यक्ति की भावना झलकती है जोकि राजनीतिक संन्यास तक की सोच रहा था.

इसके तीन साल बाद 6 जनवरी 1924 को सावरकर को कैद से रिहा किया गया, लेकिन उनको रत्नागिरि जिले की सीमा में कड़ी निगरानी में रखा गया और उनके राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने पर पाबंदी थी. उन्होंने जीवन के अगले 13 साल इन्हीं परिस्थितियों में गुज़ारे. परंतु यह उन्हें रत्नागिरि ज़िले में जाति प्रथा के खिलाफ अनेक सामाजिक सुधारों की शुरुआत करने से रोक नहीं पाया. हरिजन आंदोलन या बीआर आंबेडकर के आह्वान से काफी पहले सावरकर अंतरजातीय भोज की शुरुआत कर चुके थे और उन्होंने रत्नागिरि में पतित पावन मंदिर भी बनवाया जिसमें सभी जातियों को प्रवेश की अनुमति थी.

बेहद बदनाम किए गए विनायक दामोदर सावरकर के एक निष्पक्ष आकलन के लिए कई सवाल उठाने की ज़रूरत है.

क्या उनके लंबे और प्रतिष्ठित राजनीतिक जीवन में भावी घटनाएं वास्तव में ब्रितानियों से रज़ामंदी के लिए उनके तैयार होने के आरोपों को सही ठहराते हैं? इस बात के आकलन का प्रयास शायद ही कभी हुआ हो कि कि क्या महात्मा गांधी की अगुआई में होने वाले जनआंदोलनों के कुछ पहलुओं पर उनका विरोध देश के लिए सही था या उनसे स्वतंत्रता आंदोलन को ही नुकसान हुआ. क्या अंग्रेज़ों को उनकी कथित निष्ठा में सचमुच का यकीन था या क्या वे उनके रज़ामंदी के लिए कथित रूप से तैयार होने की बात पर भरोसा करते थे या वे अंत तक उनकी तरफ से आ सकने वाले खतरों को लेकर सशंकित रहे? इन सवालों की कसौटी पर ही हमें सावरकर की याचिकाओं की श्रृंखला का मूल्यांकन करना चाहिए, और यहां इतिहास की तुला पर्याप्त रूप से उनके पक्ष में झुकती है.

(लेखक एक इतिहासकार और नेहरु स्मृति संग्रहालय में सीनियर रिसर्च फेलो हैं, और उनकी लिखी सावरकर की जीवनी प्रकाशित होने वाली है.)

(यह लेख 20 नवंबर 2018 को भी पब्लिश किया जा चुका है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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