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Saturday, 23 November, 2024
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रविदास मंदिर आंदोलन से कोई बुनियादी फर्क नहीं आने जा रहा है

धर्म-अध्यात्म के नाम पर जो भी हलचल होगी, जो भी जनजागरण होगा, वह आखिर में जाकर मनुवादी ताकतों को मजबूती देगा, न कि दलित बहुजन आंदोलन और उसकी वैचारिकी को.

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मेरे लिये रविदास क्रांतिकारी कवि हैं. मैं उन्हें विज़नरी, आध्यात्मिक व्यक्तित्व मानता हूं, जो सदियों पहले ‘मिले सबन को अन्न’ कहकर ‘राईट टू फ़ूड फ़ॉर ऑल’ की उद्घोषणा करते नजर आते हैं. उनका यह कहना कि सब को अन्न मिले, सब प्रसन्न रहें, मुझे जॉयफुल लाइफ़ की, सुपोषित समाज की, भरे पेट के खुशहाल समाज की कल्पना देता है.

गुरु रैदास, जिन्हें रविदास बनाया गया है, उनका बेगमपुरा (बिना ग़म का शहर) एक समतामूलक आनंद नगर है. वे तत्कालीन समय की तमाम राजनीतिक सामाजिक विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जाति-वर्ण की घृणित व्यवस्था को चुनौती देते दिखाई देते हैं, ब्राह्मणवाद और मूर्तिपूजा के पाखंडों की खाल उधेड़ते नजर आते हैं.

संत, भक्त, कवि, गुरु, समाज सुधारक, आध्यात्मिक चमत्कारिक महात्मा के अलग-अलग रूपों में रैदास लोकमानस में स्थापित हैं. हमारे राजस्थान में, विशेषकर मेवाड़ अंचल में वे चित्तौड़गढ़ की महारानी मीरां (मीराबाई) के आध्यात्मिक गुरु हैं. राजस्थान की कुछ जातियों के लिए वे किसी अवतार की तरह हैं. हमने अपने बचपन मे ‘प्रभुजी हम चंदन तुम पानी’ और ‘ऐसी भक्ति करे रैदासा’ जैसे काव्यों को पाठ्यक्रमों में पढ़ा है.

इसलिये यह समझ बनाना अनुचित होगा कि मैं गुरु रैदास को लेकर किसी प्रकार के मतिभ्रम का शिकार हूं. मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि वे निस्संदेह बहुजन वैचारिकी के सबसे चमकते सितारे हैं.

रैदास को अवतार बनाकर बेअसर कर दिया गया

जिस तरह कबीर के भक्तों ने कबीर को मठों, चौरों में कैद कर दिया है. उनके नाम पर सम्प्रदाय चला दिया है, उनकी मूर्तियां बना दी हैं और मन्दिर बना कर पूजना चालू कर दिया है. ठीक वैसी ही साज़िश रैदास के साथ हुई है. वे भी अवतार बनाए जा चुके हैं. उनके भी पूजाघर हैं. वे भी गुरु, भगवान आदि इत्यादि बनकर ब्राह्मणवादी कर्मकांडों से आवृत्त हो चुके हैं.


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हमारा समाज पहले से ही ब्राह्मणवादी कर्मकांड, पूजा पाठ, भजन-कीर्तन, नाम सत्संग के दुष्चक्र का शिकार है. मंदिरों, मठों, डेरों, पंथों की भयंकर गिरफ्त में है. इससे हमारी वैज्ञानिक चेतना अवरुद्ध सी है. बरसों बाद अब जबकि आंबेडकरी आंदोलन के परिणामस्वरूप वैज्ञानिक सोच का प्रचार-प्रसार समाज में बढ़ने लगा है, लोग धार्मिक पाखंडों से परे हो कर वैज्ञानिक समझ को अपना रहे हैं, ऐसे समय में पुनः समाज को मंदिरों, मठों के भीतर धकेलना एक अंधी सुरंग में प्रवेश करने जैसा है. यह बहुजन समाज में पहले से ही व्याप्त भीतर के ब्राह्मणवाद को और अधिक मजबूती देगा, ऐसी मेरी मान्यता है.

प्रतीकवाद से किसका फायदा

दूसरी असहमति मेरी यह है कि प्रतीकों व पहचान की राजनीति या आंदोलन का फायदा आखिरकार दक्षिणपंथी समूह उठा ले जाते हैं. अगर ये प्रतीक धार्मिक हों तो उनके लिए और भी बेहतर साबित होते हैं. अस्मितादर्शी आध्यात्मिक आंदोलन नरम हिंदुत्व का खाद पानी साबित होते हैं. प्रतीकों के इस्तेमाल और जातीय चेतना के उभार के ज़रिए भारत के दक्षिणपंथी संगठन इस प्रयोग को सफलतापूर्वक लागू कर चुके हैं.

मैं 1990-91 के वक्त में ‘सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनायेंगे’ जैसे नारे लगाने वाले दलित युवाओं में से मैं एक हूं. मैंने 1991 में पहली कारसेवा में हिस्सा लिया. अयोध्या पहुंचने से पहले ही गिरफ्तार हुआ. 10 दिन आगरा में जेल में रहा हूं.

मैं रामदेव पीर के मंदिर के परंपरागत पुजारी परिवार में पैदा हुआ. तकरीबन 20 बरस मैं भी पूजा-पाठ का हिस्सा था. मैं राम मंदिर आंदोलन में शरीक रहा. उस विचारधारा से बाहर आने के बाद सन 2006 में कई महीनों तक मैंने सूलिया गांव में एक सफल मंदिर प्रवेश आंदोलन का नेतृत्व किया. इसलिए मैं अपने अनुभवों के आधार पर यह कह सकता हूं कि मंदिर और उनके इर्दगिर्द बुने जाने वाले आंदोलन हमारा भला नहीं कर सकते हैं. यह सिर्फ उलझाए रखने का गणित है.

मंदिर का कोई भी आंदोलन बहुजन हित में नहीं

मेरा यह भी स्पष्ट मानना है कि भारत जैसे देश में धर्म-अध्यात्म के नाम पर जो भी हलचल होगी, जो भी जनजागरण होगा, उसका अंतिम फलित मनुवादी ताकतों को मजबूती देगा, न कि दलित बहुजन वैचारिकी को.

इस खतरे को हम रविदास मंदिर मूवमेंट में भी साफ देख सकते हैं. मुझे तो इसके नारों भी दक्षिणपंथी टोन दिख रहा है. 90 के दशक में जो नारा ‘मंदिर वहीं बनाएंगे-जय श्री राम’ था, वह अब ‘मंदिर वहीं बनायेंगे-जय रविदास’ में तब्दील हुआ सुनाई देता है. भावुकता, उग्रता और अराजकता वैसी की वैसी ही है.

रविदास मन्दिर आंदोलन में कोई बड़ी संभावना मैं नहीं देखता. इससे कोई बुनियादी फर्क नहीं आने जा रहा है. हां, इसका एक मात्र फायदा राजनीतिक सत्ता को झुका कर फिर से उसी जगह मंदिर बना लेने में सफलता प्राप्त कर लेना भर है, जो हो जायेगा. अंतरराष्ट्रीय रविदासिया बिरादरी इसमें सक्षम है. वे कर सकते हैं. वे कर लेंगे, इसमें कोई शक नहीं है. पर मन्दिर वहीं बना लिए जाने से क्या होने वाला है? आज लड़ाई पूजा पाठ या उपासना के अधिकार अथवा मंदिर-मस्जिद की नहीं है. शायद इन जगहों को हमारे लिए खोल दिया जाएगा, ताकि हम उनमें बैठकर घंटा बजाएं, कीतर्न करें, भजन सुनायें, मूर्तियों को नहलाएं, मंदिरों में प्रसाद चढ़ाएं. लेकिन क्या आज हमको इसकी जरूरत है?

मेरा साफ मानना है कि धार्मिक पूजा स्थलों में प्रवेश या उनमें घुस कर पूजा पाठ करना या उन पर कब्ज़ा करके हिंदुत्व की नकल करना हमारी प्राथमिकता में नहीं होना चाहिये. हमारे लिए संसाधनों में हिस्सेदारी और बुनियादी जरूरतों तक हमारी पहुंच सबसे बड़े प्रश्न है. मेरी समझ यह है कि हमारी मुक्ति धर्मों में नहीं, बल्कि धर्मों से मुक्त हो जाने में है. मैं बुद्ध, कबीर, रैदास को भगवान, अवतार, गुरु के रूप में देखने के बजाय बहुजन वैचारिकी के क्रांतिकारी विचारकों के रूप में स्वीकार करने का इच्छुक हूँ. उनके विचारों के प्रचार प्रसार के लिए किताबघर हों, पुस्तकालय हों, जहां पर उनकी पूजा न हो, बल्कि उनको पढ़ा जाए.

रविदास मन्दिर आंदोलन की तुलना राम मंदिर आंदोलन से किए जाने पर कई लोगों ने आपत्ति की और कहा है कि यह मंदिर वैसा मंदिर नहीं है. बाद में कई लोगों ने इसे रविदास गुरुघर लिखना शुरू किया. लेकिन यह सिर्फ शब्दावली बदलने का मामला नहीं है. यह मानसिकता का प्रश्न है.


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दिल्ली में रविदास मंदिर को लेकर एक बड़ा प्रदर्शन हो चुका है. लेकिन मैं सिर्फ इसलिए इस जन आक्रोश के से खुश नहीं हो जाऊंगा कि इसमें नरेंद्र मोदी के खिलाफ नारे लगाए गए. राजसत्ता पर बैठने वाले लोगों के प्रति आक्रोशित लोगों की भाषा व भाव सदैव ही इसी तरह के रहते आये हैं और आगे भी रहेंगे.

बुनियादी मुद्दों की किसी ने बात नहीं की

मैं इस बात को लेकर भी हतप्रभ हूं कि किसी ने भी रविदास मंदिर दिल्ली के इतिहास, उसके न्यायिक केस और तोड़ दिए जाने के संबंध में तथ्यात्मक रिपोर्ट जारी नहीं की. क्या मामला था, केस क्या चला, दलीलें क्या दी गई, केस में फैसला किस आधार पर दिया गया, क्यों अदालत ने इस आस्थास्थल को तोड़ दिए जाने का आदेश दिया, इस बारे में जानकारियों का अभाव है. यह मंदिर जातीय दुर्भावनाओं और पूर्वाग्रहों के चलते टूटा या कमजोर दलीलों व किन्हीं और कारणों से? इस मंदिर की प्रबंधन कमेटी में कौन लोग थे, क्या बहुजन समाज इस मंदिर से जुड़ा हुआ था, अगर हां तो जब मन्दिर तोड़ा गया, तब लोग इसके विरुद्ध क्यों नहीं खड़े हुये?

इस संबंध में कोई भी तथ्यात्मक जानकारी बाहर नहीं आई. समाज को सिर्फ भावनात्मक तरीके से उकसाया गया. उन्हें सम्पूर्ण जानकारी देने के बजाय सलेक्टेड जानकारियां पहुंचाई गईं. चारों तरफ एक ही बात आई, गुरु रविदास का मंदिर तोड़ दिया गया, उसके विरोध में ‘प्रदर्शन करना है, ज्ञापन देना है, दिल्ली पहुंचना है’. बस इतना सा आह्वान काफी होता है. हमारे युवा जो सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, वे सीधे सड़कों पर उतर कर अपनी शक्ति क्षीण करने में माहिर है. उनको बस आंदोलन करना है और उस आंदोलन के फोटो सोशल मीडिया में पोस्ट करने हैं. यह प्रवृत्ति अन्ततः खतरनाक साबित होगी, इससे अंधभक्तों की भीड़ निर्मित होगी, ऐसी नासमझ भीड़ जो कभी भी अराजक हो जाएगी. ऐसी ही भीड़ मॉब लिंचिंग जैसे जघन्य अपराधों का हिस्सा बन जाती है.

हमें हमारे करोड़ों युवाओं की असीमित ऊर्जा का संचयन कर उसे सही दिशा देने की जरूरत है, मंदिर मस्जिद के बेबुनियाद मुद्दों को पूरी तरह छोड़ देने का समय है. डॉ. आंबेडकर ने 1930 से पहले ही इस तरह के मुद्दों की निरर्थकता समझ ली थी, लेकिन हम अभी भी नहीं समझ पा रहे हैं कि काला राम मंदिर प्रवेश आंदोलन के बाद बाबा साहेब ने फिर कभी मंदिर प्रवेश आंदोलन नहीं चलाया. हम 2019 में वैसा ही आंदोलन चला रहे हैं.

(लेखक शून्यकाल डॉटकॉम के संपादक हैं. लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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