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Friday, 17 May, 2024
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राज्यसभा में नामांकन को कबूल करने की क्या-क्या सफाई दे सकते हैं पूर्व सीजेआई गोगोई

गोगोई के मनोनयन को कई लोग मुख्य न्यायाधीश के रूप में की गई उनकी सेवाओं के लिए मोदी सरकार का पुरस्कार मानेंगे, और इस पेशकश को कबूल करके गोगोई अपने निंदकों के लिए और मसाला ही जुटाएंगे

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जनवरी 2018 में जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रंजन गोगोई और अन्य तीन जजों— उस समय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के बाद वरिष्ठतम— ने जस्टिस जे. चामलेश्वर के सरकारी निवास से बाहर निकलकर प्रेस कॉन्फ्रेंस किया था और मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र की मनमानी कार्यशैली पर चिंता जाहिर की थी तब कई लोगों को लगा था कि गोगोई सर्वोच्च पद पर आसीन होने के बाद ईमानदारी और शुचिता के चमकते उदाहरण साबित होंगे.

दरअसल, मिश्र संवेदनशील मुकदमों को चुनिंदा जजों के हवाले कर रहे थे, और चामलेश्वर सरीखे वरिष्ठ जजों के हाथ से लंबित मुकदमे वापस लेकर दूसरे जजों के नेतृत्व वाली बेंचों को सौंप रहे थे.

लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठने के चंद सप्ताहों के भीतर ही गोगोई ने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि उस ऐतिहासिक प्रेस कन्फरेंस में उन्होंने जो कुछ कहा था उसका उनके लिए कोई महत्व नहीं है. फिर भी, उनके पास मौका था कि वे उन्हें राज्यसभा में मनोनीत करने की नरेंद्र मोदी सरकार की पेशकश को विनम्रता से इनकार कर देते.

इस पेशकश की घोषणा इसी सोमवार की शाम की गई. लेकिन गोगोई ने इस पेशकश को मंजूर करने की सफाई देते हुए मंगलवार को यह बयान दे दिया कि ‘यह विधायिका के सामने न्यायपालिका के विचारों को रखने या न्यायपालिका को विधायिका के विचारों से अवगत कराने का मौका देगा.’

जस्टिस गोगोई सरीखे ज़हीन व्यक्ति को पता तो होना ही चाहिए कि उनके इस मनोनयन की व्यापक निंदा हो सकती है इसलिए उन्हें इससे इनकार कर देना चाहिए था. लेकिन इतिहास ने हमें जो कुछ सिखाया है उससे साफ था कि यह होना उतना ही नामुमकिन था जितना इस बात की उम्मीद करना कि बैंकों से कर्ज लेकर पचा जाने वाले पाँच बड़े व्यवसायी सूद सहित एक-एक पाई भारत को लौटा देंगे. अगले कुछ दिनों में जस्टिस गोगोई राज्यसभा सदस्य के रूप में शपथ ले लेंगे. और इसके कई कारण हैं. उनमें से कुछ की चर्चा हम यहां कर रहे हैं.

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मोदी सरकार तो भोलेभाले लोगों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करेगी कि राज्यसभा में मनोनयन तो उन लोगों को सम्मानित ही करना है जिन्होंने अपने क्षेत्र में समाज के लिए बहुत बड़ा योगदान दिया है. लेकिन हकीकत यह है कि ऐसे उदाहरण गिने-चुने ही हैं.

मसलन सचिन तेंडुलकर, जो मनोनीत सांसद के रूप में संसद में पलक झपकने भर की देरी तक ही नज़र आते थे मगर जब भी वे क्रिकेट के मैदान पर उतरते थे तब अरबों लोगों की उम्मीदें उनसे जुड़ी होती थीं. या फिर प्रख्यात कानूनदां फली एस. नरीमन, जो उच्च न्यायपालिका की अंतरात्मा के मजबूत और प्रतिबद्ध पहरुए रहे हैं.

लेकिन हाल के दिनों में राज्यसभा में प्रायः उन्हीं का मनोनयन किया जाता रहा है जो एक खास लाइन पर चलते हैं.
मुख्य न्यायाधीश के तौर पर जस्टिस गोगोई पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता था, जो हमेशा बेबुनियाद नहीं होता था, कि सुप्रीम कोर्ट के रोस्टर के मास्टर के रूप में अपने अधिकारों का उपयोग करके वे मोदी सरकार की अनुकंपा बटोर रहे थे. उनकी पहल के चलते सरकार को राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में बढ़त मिल जाती थी.

उनके सेवानिवृत्त होने के बाद से इसके पर्याप्त संकेत मिल रहे थे कि वे किसी पद की तलाश में हैं. सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने अपने गृहराज्य असम में जाकर रहने का जो फैसला किया उसे भी संदेह की नज़र से देखा जा रहा था. लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद किसी अहम कुर्सी की खातिर तत्कालीन सरकार को खुश करने की कोशिश करने वाले जस्टिस गोगोई कोई पहले जज या मुख्य न्यायाधीश नहीं हैं.


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राज्यपाल (पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशिवम) या एनएचआरसी के अध्यक्ष (पूर्व मुख्य न्यायाधीश एच. एल. दत्तू) सरीखे पदों की तुलना में राज्यसभा सदस्य के रूप में मनोनयन अवनति ही मानी जाएगी. लेकिन जस्टिस गोगोई इतने से भी काफी खुश क्यों हैं, इसकी भी सीधी सी वजह है.

पिछले मामले तो गिना ही सकते हैं

न के बारे में हमारी निजी राय जो भी हो, इसमें कोई संदेह नहीं है कि जस्टिस गोगोई कानून जानते हैं, खासकर वह कानून जो परंपरा का पालन करता है. वे उदाहरण देकर दावा कर सकते हैं वे कोई पहले या सुप्रीम कोर्ट जज नहीं हैं जिसने ऐसे सरकारी अनुग्रह को स्वीकार किया. पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र ने 1984 के सिख विरोधी दंगों में राजीव गांधी की सरकार को क्लीन चिट दी और सेवानिवृत्त होने के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पहले अध्यक्ष बन गए, इसका कार्यकाल पूरा करने के करीब दो साल के अंदर ही उन्हें 1998 में कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा के लिए निर्वाचित कर दिया गया.

गोगोई पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त (जो एक संवैधानिक पद है) एम.एस. गिल का भी उदाहरण दे सकते हैं, जिन्हें काँग्रेस ने न केवल दो बार राज्यसभा में भेजा बल्कि केंद्रीय मंत्री भी बनाया.

लेकिन क्या देश जस्टिस गोगोई को उनकी करनी के लिए इसलिए माफ कर देगा क्योंकि उनसे पहले दूसरे लोग भी ऐसा काम कर चुके हैं?


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उनके लिए तो पूर्व मुख्य न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर की मिसाल सबसे उपयुक्त होती, जिन्हें आम आदमी पार्टी ने 2017 में राज्यसभा सदस्यता की पेशकश की थी मगर इसे उन्होंने विनम्रता से इनकार कर दिया था क्योंकि इसे कबूल करने का अर्थ होता उस ऊंचे ओहदे की गरिमा को गिराना जिस पर वे आसीन थे.

लेकिन उन्हें तो ‘इसमें कुछ गलत नहीं लगता’

जस्टिस गोगोई शपथ लेने के बाद यह सफाई दे सकते हैं कि राष्ट्रपति अगर उन्हें राज्यसभा के लिए नामजद करते हैं तो इसे स्वीकार करने में कुछ भी गलत नहीं है. वे यह भी कह सकते हैं कि वे तो किसी राजनीतिक दल में शामिल नहीं हो रहे हैं और हमेशा पार्टी-पॉलिटिक्स से दूर रहकर समाज की सेवा करते रहेंगे. लेकिन आज के राजनीतिक रूप से संवेदनशील समय में कोई भी इस तरह की सफाई को कबूल नहीं करेगा. पूर्व मुख्य न्यायाधीश राज्यसभा के जिन 11 नामजद सदस्यों के साथ संसद में बैठेंगे उनमें से आठ भाजपा से जुड़े हैं.

ऐसे कई लोग होंगे जो गोगोई के मनोनयन को मुख्य न्यायाधीश के रूप में की गई उनकी सेवाओं के लिए मोदी सरकार का पुरस्कार मानेंगे, और यह कोई गलत बात नहीं होगी. और इस पेशकश को खुशी से कबूल करके गोगोई अपने निंदकों के लिए और मसाला ही जुटाएंगे. गोगोई को मालूम है कि अगर उन्होंने मना कर दिया तो दूसरे लोग खुशी से इसे कबूल करने के लिए कतार में खड़े हैं.

इस तरह के अवसर को ठुकराने का साहस केवल वे ही दिखा सकते हैं जिनकी नैतिकता के पैमाने बहुत ऊंचे हों. भारतीय न्यायपालिका के लिए यह अफसोस की बात है कि जस्टिस रंजन गोगोई में उस साहस की कमी है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में भी पढ़ सकते हैं, यहां क्लिक करें)

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