एक निष्पक्ष बायोपिक एक विडम्बना है, और संजू कोई अपवाद नहीं है।
यदि फिल्म का शीर्षक निर्देशक द्वारा अपने नायक के प्रति लाड-प्यार की तरफ कोई इशारा है तो 2 घंटे 41 मिनट की बाकी फिल्म आश्चर्यजनक नहीं होगी।
‘संजू’ हर किसी की आँख का तारा हैं। ड्रग्स, औरतें, ए के 56 और माफिया, एक गलत समझे जाने वाले अभिनेता के जीवन में अध्याय मात्र हैं और यह फिल्म आपको ऐसा बता देगी। यहाँ तक कि नशे की हालत में संजू टॉयलेट सीट (टॉयलेट सीट का ऊपरी वृत्ताकार हिस्सा) को रूबी (सोनम कपूर) के गले में डाल देते हैं, वह (रूबी) उनके दोस्तों से विनती करती है कि जब वह (संजू) होश में आयें तो उनको इस घटना के बारे में न बताएं नहीं तो उनका दिल टूट जाएगा।
हालांकि रणबीर कपूर द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाओं में उनके अभिनय कौशल और चरित्र के प्रति वफादारी के मामले में जरा सा भी संदेह नहीं है, लेकिन कोई यह सोचते हुए थियेटर से निकल सकता है कि कपूर संजय दत्त तो नहीं लेकिन मुन्ना भाई जरूर लग रहे थे। अतिश्योक्ति चित्रण, गिरते हुए हीरो को फिर से संभालना और लोगों को खुश करने का उद्देश्य कुछ ऐसी चीजें हैं जो राजकुमार हिरानी मुन्ना भाई एमबीबीएस में पहले ही कर चुके हैं।
एक ऐसी चीज जो दत्त की लोकप्रियता को और बढ़ाती है वह है संगत संगीत। संगीत स्पष्ट रूप से एक दृश्य के संदर्भ को बदल सकता है भले ही स्पष्ट रूप से कुछ भी न कहा गया हो। जब दत्त को टाडा एक्ट के तहत गिरफ्तार किया जाता है तो फिल्म की पृष्ठभूमि में एक भावुक संगीत बजता है। यह संगीत लोगों को उन्हें अपराधी के रूप में देखने के बजाय उनके प्रति दया भाव (क्षमा भाव) जाहिर करने के लिए प्रेरित करता है।
फिर आप सलमान के बायोपिक के लिए एक संगीत की कल्पना करें!
अनुमानतयः संजू, अभिनेता और उनके पिता के साथ रिश्ते के बारे में है- जो कभी-कभी तनाव ग्रस्त होते हैं और कभी-कभी भावुक हो जाते हैं। दत्त अपने पिता सुनील दत्त की जगह लेने की कोशिश करते हैं और लगातार ऐसा करने में असफल रहते हैं। फिल्म देखकर तो ऐसा लगता है कि जैसे सुनील के जीवन का एकमात्र उद्देश्य अपने बेटे की मदद करना हो फिर यह बात कोई मायने नहीं रखती कि उनके बेटे की उम्र कितनी है, वह बच्चों की तरह हरकतें करते हैं और उनके पास उनकी हर हरकत के लिए तर्कसंगत कारण है, जिसमें अवैध रूप से एके 56 राइफल रखना भी शामिल है।
इस पिता-बेटे की कहानी में दत्त की दो बहनें लगभग नदारद हैं फिल्म में वे केवल एक सहायक सामग्री की भांति हैं, जिन्हें बहुत कम संवाद मिले हैं और वे दोनों कहानी में ज्यादातर शांत दिखाई देती हैं।
पुरुष किरदारों को इस फिल्म में अधिक जगह दी गई है। जैसे- जिम सरभ को उनके ड्रग डीलर के रूप में, विकी कौशल को उनके सबसे अच्छे दोस्त के रूप में, बोमन ईरानी को रूबी के पिता और अंडरवर्ल्ड डॉन बांडू दादा के रूप में।
महिला किरदारों के नाम पर एक लेखक विनी डायस के रूप में अनुष्का शर्मा, मान्यता दत्त के रूप में दिया मिर्ज़ा और नर्गिस दत्त के रूप में मनीषा कोइराला कहानी में थोड़ा-बहुत ही योगदान देती हैं। वे अनम्य पात्रों को चित्रित करती हैं और दर्शकों को लुभा पाने में विफल रहती हैं। दृश्य ए एवं बी को जोड़ते हुए वे केवल परिवर्ती भूमिकाएं निभाती हैं लेकिन कभी भी कथानक के केंद्र में नहीं होती हैं।
फिल्म में मीडिया को बहुत बुरे रूप में दर्शाया गया है क्योंकि समाचार पत्रों ने दत्त के जीवन को बर्बाद कर दिया है। समाचार सुर्ख़ियों के सवालिया निशान उन्हें असहाय छोड़ते हुए उन्हें दोषी ठहराते हैं।
लेकिन जो बड़ा सवाल फिल्म ने अपने दर्शकों के दिमाग में पैदा किया है उसका क्या? क्या संजय दत्त वास्तव में निर्दोष थे? उनके कई संपर्कों का क्या? क्या अंडरवर्ल्ड के साथ उनका सिर्फ एक ही बार सम्बन्ध था?
बायोपिक के पीछे क्या इरादा है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, यह हमेशा पक्षपातपूर्ण होगा और चरित्र के कई पहलुओं को छोड़ देगा। एक निष्पक्ष बायोपिक एक विडम्बना है। इस के लिए संजू अपवाद नहीं है। फिल्म के अंत में कई दर्शकों ने तालियां बजाईं, कुछ बहुत खुश हुए, जबकि मेरे जैसे कई लोग दुविधा में थे कि क्या हमने एक बायोपिक देखी या एक प्रशंसा फिल्म (ओड) देखी।
Read in English : Ranbir Kapoor as Sanju doesn’t portray Dutt but Munna bhai