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Friday, 26 April, 2024
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राणा अयूब के रूप में श्वेत पश्चिमी जगत को एक नई अरुंधति राय मिल गई है

मोदी के नए भारत के लिए खोजी पत्रकार राणा अयूब कहानी और किस्सागो दोनों ही हैं.

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सीधे-सादे श्वेत लोगों और परेशान भूरी महिलाओं के बीच सहयोग का क्या संयोग है? हर कुछ वर्षों के अंतराल पर पश्चिमी जगत भूरे लोगों की दुनिया के दर्द को बयां करने वाली शख्सियत को ढूंढने और निर्मित करने का काम करता है. पहले इस काम के लिए अरुंधति राय थीं, अब राणा अयूब हैं. न्यूयॉर्कर पत्रिका में छपा ‘ब्लड एंड सॉइल इन नरेंद्र मोदीज़ इंडिया’ शीर्षक लेख इस बात का सबूत है कि अब राणा अयूब भारत का दर्द बयां करने वाली नई शख्सियत हैं, और पश्चिमी जगत उनको ध्यान से सुन रहा है.

न्यूयॉर्कर की रिपोर्ट के लेखक डेक्सटर फिल्किंस राणा अयूब की ज़िंदगी को नए भारत की कहानी करार देते हैं. वास्तव में राणा कहानी और किस्सागो दोनों ही हैं.

फिल्किंस लिखते हैं, ‘मुंबई के एक मुस्लिम के रूप में उन्होंने ताउम्र देश के सांप्रदायिक तनाव का सामना किया है.’ फिल्किंस राणा अयूब की ‘संक्रामक गर्मजोशी’ और ‘भटकाऊ रफ्तार’ का जिक्र करते हैं. सावधानीपूर्वक आयोजित अपने दौरे में वह कश्मीर को अयूब की आंखों से देखते हैं.

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलनों की वक्ता और खोजी पत्रकारिता के लिए पुरस्कृत की जा चुकीं राणा अयूब की सुरक्षा को लेकर संयुक्त राष्ट्र में चिंता जताई जा चुकी है, राणा अयूब की रक्षा की जानी चाहिए. क्योंकि भारत को बचाने की दरकार है.

हाल-फिलहाल तक, इस भूमिका में अरुंधति राय थीं, जिन्होंने हाशिये पर पड़े लोगों और विस्थापन की प्रक्रिया जैसे मुद्दों को उठाया. वह भारत की बुराइयों की टीकाकार थीं और उन्होंने परमाणु परीक्षण, खनन माफिया, बड़े बांध और हिंदुत्व राज जैसे मुद्दों पर अपनी आवाज उठाई, और पश्चिमी जगत ने लेखों, संपादकीयों और पुरस्कारों से उनका उत्साहवर्धन किया.

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पश्चिम के श्वेत मुक्तिदाताओं का मोहरा

लेकिन, पश्चिम के लेखकों को अन्याय की घटनाओं के वर्णन के लिए विकासशील देशों के स्थानीय नायक-नायिकाओं की ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्या इसमें श्वेत वर्चस्व की समस्या निहित है? या उससे भी महीन कोई कारक जिसे रुडयार्ड किपलिंग ने ‘श्वेत व्यक्ति का बोझ’ कहा था? या शायद इससे भी गहरी कोई बात– अपने निरर्थक जीवन को सार्थक करने का प्रयास. जो भी हो, पर इन सबके केंद्र में मुक्तिदाता वाली ग्रंथि ही है.

हममें से बहुतों ने ‘अवतार’ फिल्म देखी होगी, जिसमें सेवानिवृत जख्मी सैनिक जैक सुली नेतिरी और उसके शिकारी-संग्राहक ‘जंगली’ सहजीवियों की अपने ग्रह को दुष्ट खनिकों से मुक्ति में मदद में अपने जीवन का मतलब ढूंढता है, अन्य लोग यही बात न्यूयॉर्कर में लिखते हैं.

अपने महाद्वीप में ऐसी सशक्त और असाधारण महिलाओं की एक लंबी सूची है, जो श्वेत मुक्तिदाता की मानसिकता को संतुष्ट करने और उन्हें सार्थक बनाने में सफल रही हैं जैसे, मलाला यूसुफजई जो पाकिस्तानी शासन द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के अलावा हर बात की निंदा करती हैं या अरुंधति राय जिनकी नृविज्ञान की समझ बिग बॉस के किसी प्रतियोगी से अधिक नहीं है या ‘भारतीय रॉबिनहुड’ फूलन देवी.

ये दक्षिण एशिया की ला मालिंचे– स्पेनी नायक हर्नान कोर्टेस की दुभाषिए डोना मरीना को दिया गया नाम हैं और एक लेखक, फिल्मकार या मानवाधिकार पर अंतरराष्ट्रीय बहस के नियंत्रक के रूप में श्वेत मुक्तिदाताओं को हमेशा ही दुनिया के अन्याय को उजागर करने वाला अन्वेषक करार दिया जाता है.

कश्मीर की घटनाओं की प्रतीक अयूब

डेक्सटर फिल्किंस के लिए मौजूदा भारत की कहानी 1993 के मुंबई दंगों से शुरू होती है. राणा अयूब की कहानी भी वहीं से शुरू होती है.

‘मध्यमवर्गीय जीवन के आदी अयूब परिवार की ज़िंदगी बदल गई… मुंबई भी बदल चुका था. जब उसने पड़ोस के हिंदू बहुल स्कूल में दाखिला लिया, तो क्लास के बच्चे उसे लांड्या कहते थे जो कि मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाने वाला एक अपशब्द है. वह कहती हैं, ‘वो पहला वाकया था जब मैंने गंभीरता से अपनी पहचान के बारे में सोचा.’ ‘हमारे पड़ोसी–हमारे दोस्त– हमें मार डालते.’

अयूब ने आगे फिल्किंस को बताया, ‘पर ये 2002 के गुजरात दंगे थे जिसने मुझे इस बात का अहसास कराया कि मुंबई की घटना अपने-आप में अकेली नहीं थी.’


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कश्मीर में, अयूब ने आसानी से फिल्किंस के लिए सुरक्षा व्यवस्था को धत्ता बताना संभव कर दिया. विदेशियों के रजिस्ट्रेशन वाले डेस्क के सामने से फिल्किंस को तेजी से निकाल कर और ये सुनिश्चित कर कि वह अपना सिर झुकाए रखे. ये वाकया नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को खत्म करने की 5 अगस्त की घोषणा के मात्र दो हफ्ते बाद का है. ऐसे समय का जबकि एयरपोर्ट पर और कश्मीर घाटी में चप्पे-चप्पे पर पुलिस, अर्धसैनिक बल और खुफिया एजेंसियों के लोग तैनात थे. सहज विश्वास नहीं होता, पर, जैसा कि प्रतीत होता है, राणा अयूब चीज़ों को संभव कर सकती हैं.

न्यूयॉर्कर में प्रकाशित लेख के पहले पैराग्राफ में ही स्थानीय सरकारों के प्रति गोरों के तिरस्कार भाव का दिख जाता है. डेक्सटर फिल्किंस ने लिखा है, ‘कश्मीर में किए गए परिवर्तन ने आधी सदी से भी अधिक समय की सतर्क राजनीति को बदल कर रख दिया.’ लेखक ने इस बात का जिक्र करने की ज़रूरत नहीं समझी कि इसी ‘सतर्क’ राजनीति ने उग्रवाद, जातीय संहार, आतंकवाद के दौर, हिंसक भीड़ आदि को जन्म दिया था.

फिल्किंस के अनुसार, ‘मोदी और उनके सहयोगियों ने डरा-धमकाकर और दबाव डालकर प्रेस को उनके कथित ‘नए भारत’ का समर्थन करने के लिए बाध्य कर दिया.’ सही कहा, असभ्य भूरे लोग कायर हैं और उन्हें उत्पीड़कों से आजाद कराने के लिए श्वेत मुक्तिदाताओं की दरकार है. जाहिर है, चार दशकों से कश्मीर को कवर कर रहे तमाम भारतीय पत्रकार गलत हैं. यदि वहां एक श्वेत नायक एक हफ्ता नहीं बिताता तो सही तस्वीर निकलकर आती ही नहीं.

लेख में किए गए कुछ दावों– जैसे अस्पताल में ‘गोलियों से घायल तीस लोगों’ के भर्ती होने की बात – की तस्वीरों के जरिए पुष्टि करने की जरूरत नहीं समझी गई. हालांकि अयूब और फिल्किंस के साथ एक छायाकार (अवनि राय) भी थीं. इससे भी महत्वपूर्ण, इन तीस घायलों को लेख के प्रमुख चरित्रों द्वारा देखे जाने का उल्लेख नहीं है. हालांकि किसी भी बात का कभी भी सबूत नहीं दने के राणा अयूब के रिकॉर्ड को देखते हुए इसमें कोई अचरज की बात नहीं है.

अबाध और तेज उदय

राणा अयूब डेक्सटर फिल्किंस के कश्मीर के चित्रण की दिलचस्प सूत्रधार हैं. उनकी स्वप्रकाशित पुस्तक ‘गुजरात फाइल्स: एनाटॉमी ऑफ अ कवरअप’ बहुत बिकी है, पर जिन ऑडियो टेपों पर पुस्तक आधारित है उन्हें सुनने का मौका किसी को नहीं मिल पाया है. उन्हें ना तो सार्वजनिक किया गया है, ना ही कानून की कसौटी पर कसने के लिए पेश किया गया है – इसका कारण ये दिया जाता है कि सरकारी एजेंसियां और जांचकर्ता पहले औपचारिक रूप से इसकी मांग करें.

गत दो-तीन वर्षों में पश्चिमी जगत में राणा अयूब का अचानक और इतना अधिक महत्वपूर्ण हो जाना रहस्यमय लगता है. जहां तक अरुंधति राय की बात है, वह एक उपन्यास लेखिका रही हैं जिन्हें ऑडियो रिकार्ड करने या फोटो खींचने की जरूरत नहीं थी. उन्होंने खुद को एक लोक-बुद्धिजीवी के रूप में स्थापित करने के लिए शब्द-सामर्थ्य की अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल किया.

कश्मीर में फिल्किंस की सूत्रधार (मेजबान, वाचक) बनीं राणा अयूब को एक तेज-तर्रार और नेकदिल पत्रकार के रूप में पेश किया गया है, जिनमें समय के पूर्वाभास की क्षमता है.

फिल्किंस ने लिखा है, ‘अयूब ने फहमीदा से विदा लेते हुए उनके लिए किडनी की दवा लाने का भरोसा दिलाया. (कुछ हफ्ते बाद, उन्होंने ऐसा कर दिखाया.) हम दोनों को ही अनिष्ट की आशंका हो रही थी, कि हम ऐसे घटनाक्रम के गवाह बन रहे हैं जोकि कई बरसों तक चलने वाला है. अयूब ने कहा, ‘एक मुसलमान के रूप में मुझे ऐसा लगता है कि ये सब भारत में हर तरफ घटित हो रहा है.’

‘कुछ देर हम चुप रहे. मैंने सुझाव दिया कि उनके लिए भारत छोड़ने का समय आ गया है– कि मुसलमानों का यहां कोई भविष्य नहीं है. पर अयूब अपने नोटबुक में उलझी हुई थीं. उन्होंने कहा, ‘मैं कहीं नहीं जा रही. मुझे यहीं रुकना है. मैं ये सब लिखूंगी और सबको बताऊंगी कि क्या घटित हुआ है.’

पश्चिमी जगत सुन रहा है. उम्मीद करते हैं कि वो, अपनी आदत से अलग हटते हुए, सबूतों की भी मांग करेगा.

(लेखक सेंटर फॉर पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज़ में वरिष्ठ अध्येता हैं. वह @iyervval हैंडल से ट्वीट करते हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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