अयोध्या में बनने जा रहा राम मंदिर केवल मंदिर की संरचना भर नहीं है, बल्कि हिंदू एकजुटता का प्रतीक है. कामेश्वर चौपाल, तीन दशक पहले मंदिर की नींव रखने वाले दलित और अब राम मंदिर ट्रस्ट में सक्रिय सदस्य के रूप में शामिल, के साथ हिंदू परिकल्पना में दलितों की महत्वपूर्ण स्थिति एक पूर्व निर्धारित निष्कर्ष है. हिंदू सामाजिक व्यवस्था में यह बात व्यापक बहस और विरूपण का विषय है कि यह जन्म आधारित है या मूल्य आधारित. यह बहस जारी रहेगी क्योंकि यह भारत के राजनीतिक वर्ग के काम आती है, जो चुनावी लाभ के लिए हमेशा पहचान का मुद्दा उठाने और उसमें घालमेल करने में लगा रहता है.
कामेश्वर चौपाल की मौजूदगी स्पष्ट कारणों से काफी हद तक अनदेखी रह गई है. चौपाल के अलावा कल्याण सिंह, उमा भारती और विनय कटियार जैसे कुछ अन्य नेता, जो राम जन्मभूमि आंदोलन में अगुआ थे- भी निम्न जाति और पिछड़े वर्गों से आते हैं. हालांकि, भारत का शैक्षणिक और बौद्धिक वर्ग इससे सामंजस्य नहीं बना पा रहा है, क्योंकि यह जाति व्यवस्था को लेकर मिथ्या तथ्यों की बुनियाद पर खड़ा है, जो निस्संदेह सबसे महत्वपूर्ण सभ्यतागत फाल्टलाइन में से एक है.
गहरी समावेशी ऐतिहासिक नींव
रामायण के कई उपलब्ध संस्करणों में से सबसे प्रामाणिक एक की रचना ऋषि वाल्मीकि ने की थी, जो आधुनिक समाजशास्त्रीय संदर्भ में सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय से आते थे. यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि रामायण और महाभारत दोनों के रचयिता-वाल्मीकि और वेदव्यास- दलित थे.
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राम मंदिर के इस आधुनिक अवतार में वाल्मीकि भी मौजूद रहेंगे. कुछ खबरों के मुताबिक अयोध्या में भूमि पूजन के लिए इस ‘समुदाय (दलित) के लिए महत्वपूर्ण’ जिन स्थानों की मिट्टी भेजी गई है, उसमें सीतामढ़ी स्थित महर्षि वाल्मीकि आश्रम और मध्य दिल्ली का वाल्मीकि आश्रम शामिल है.
दिल्ली विश्वविद्यालय में संस्कृत की सहायक प्रोफेसर कौशल पंवार का तर्क है, ‘दलित हमारी सभ्यता के सांस्कृतिक योद्धा रहे हैं.’ शबरी के संदर्भ का जिक्र करते हुए उन्होंने मुझसे कहा, ‘राम, अपने वनवास (निर्वासन) के दौरान, एक जीर्ण-शीर्ण घर में बेर खाकर गुजारा करने वाली एक आदिवासी महिला के समक्ष पहुंचते हैं. राम अपने भाई लक्ष्मण के मना करने के बावजूद उसके पास जाते हैं और उसके फलों में हिस्सा बंटाते हैं और एक स्त्री के साथ समानता का व्यवहार करते हैं.’ यह स्पष्ट रूप से पवित्र शास्त्रों में दबे-कुचले तबके के प्रति गहरे सम्मान का संकेत है.
शबरी के अलावा, अहल्या और निषादराज से जुड़े संदर्भ भी रामायण के बारे में एक अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, जैसा विहिप के महासचिव मिलिंद परांडे कहते हैं, यह ‘सामाजिक सद्भाव का उत्कृष्ट चित्रण है.’
भारत के ग्रामीण इलाकों में ऐसी कई कहानियां प्रचलित हैं, जो हमारे समाज में हाशिये पर रहे तबकों का व्यापक चित्रण करती हैं. कबीर, जिनके उत्तर और पूर्व भारत में ओबीसी, एससी और एसटी समुदायों में काफी अनुयायी हैं, भी समान रूप से राम का गुणगान करते हैं. राम की भक्ति में वह खुद को उनका पालतू जीव बताते हैं. ‘कबिरा कुत्ता राम का, मोतिया मेरा नाम। गले राम की जेवरी, जित खैंचे तित जाऊँ’. यह उन प्रतीकों के समर्पण भाव को दर्शाता जाता है जिनकी बड़ी संख्या में दलित पूजा और अनुसरण करते हैं.
इस संदर्भ में छत्तीसगढ़ के रामनामी समुदाय का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है. इसके सदस्य अपने पूरे शरीर पर राम का नाम गुदवाते हैं. एक सदी पुराना आंदोलन इस तथ्य को दर्शाता है कि अस्पृश्यता की विसंगतियां भी उनके लिए भगवान राम की पूजा में बाधक नहीं बनीं.
हिंदू एकता का प्रतीक
बहुत ज्यादा लंबे समय तक हिंदू विदेशी शासन के अधीन रहे हैं. दिप्रिंट के लिए अपने पिछले एक लेख में मैंने तर्क दिया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफलता निचले तबके के सामूहिक उत्थान की परिचायक है. हिंदुत्व के बदले सांचे में दलितों और ओबीसी का एक खास स्थान है. दलितों और मुसलमानों के बीच काल्पनिक गठबंधन स्थापित करने का पूरा विचार हिंदू एकता को तोड़ने का एक प्रयास है.
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सवर्णों की तरह दलितों ने भी आदि काल से ही हिंदू सभ्यता के कर्तव्यों और दायित्वों को निभाया है. बहुसंख्यक दलितों का निर्विवाद रूप से हिन्दू होना इस तथ्य का प्रमाण है. मिशनरियों और मार्क्सवादियों के अतिरेक के बावजूद दलित हमेशा सनातन धर्म के विश्वसनीय और समर्पित अनुयायी बने रहेंगे.
(लेखक पटना विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर और इंडिया फाउंडेशन के फेलो हैं. वह भाजपा की युवा इकाई भारतीय जनता युवा मोर्चा, बिहार के प्रवक्ता है. विचार उनके निजी हैं.)
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