scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतइतना हंगामा क्यों है भाई, नसीरुद्दीन शाह ने सच ही तो बयान किया है

इतना हंगामा क्यों है भाई, नसीरुद्दीन शाह ने सच ही तो बयान किया है

मोहल्लों की दुनिया बदल रही है. जहां सब बच्चे आपस में मिल-जुलकर खेलते थे, गलबहियां करते थे, आज उनमें दूरियां बढ़ती जा रही हैं.

Text Size:

सिर्फ नसीरुद्दीन शाह को ही नहीं, मालिश करने वाली शबाना को भी अब इस मुल्क से डर लगता है. अपने बच्चों के भविष्य को लेकर वह बहुत चिंतित और आशंकित है. उनका भय निर्मूल नहीं है. शबाना और उसके बच्चे रोज बहुसंख्यक समुदाय की नफरतों को झेलते हैं. नसीर ने उसी भय की तरफ संकेत किया है. ये नफरतें गहरे जड़ें जमा चुकी हैं. इतनी पहले कभी न थी. या उनका उभार पहले इतना कभी न था जितना आज दिखाई दे रहा है.

नफरत की विष बेलें अब बड़ी हो गई हैं जो हमारे बच्चों को डस रही हैं. अब भी न संभले तो तबाही तय है. नसीर ने खुलकर कह दिया मगर इस कौम के जाने कितने लोगो के भीतर यह भय भर गया है. वे अपने ही देश में परायों की तरह रहने लगे हैं. ये राम मंदिर का मसला जब से तेज हुआ है, छोटे-छोटे बच्चे इसका शिकार होने लगे हैं. उन्हें राम मंदिर बनने के पक्ष में तैयार किया जा रहा है.

ऐसा करके उनके बचपन को खतरनाक औजारों में बदला जा रहा है और अधिकांश मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय मां-बाप इससे अनभिज्ञ हैं. उनकी चोरी छिपे उनके बच्चों को पकड़ कर उनसे रायशुमारी की जा रही है. इसका खुलासा हाल में शबाना ने किया. हिंदू बच्चों को धर्म की अफीम चटा रहे हैं रामभक्त. हमें अहसास ही नहीं. बच्चों को पता ही नहीं कि जिस राम के नाम पर उन्हें खतरनाक औजारों में बदला जा रहा है, दो समुदायों को आपस में लड़ाया जा रहा है, जिन्हें पूजने के लिए भव्य मंदिर चाहिए, उस राम का पूरा जीवन ही छल और धोखे से भरा है. उन्हें भी अपनी मर्यादा क़ायम रखने के लिए छल का सहारा लेना पड़ा था. उनके भक्त कौन से कम निकलेंगे.

मेरे पड़ोस के खोड़ा गांव में कुछ रामभक्त घर-घर घूम रहे हैं और नन्हें बच्चों को पकड़ कर रायशुमारी कर रहे हैं कि अयोध्या में राम मंदिर बनना चाहिए या नहीं. बच्चे भावुक हो उठते हैं- बच्चा बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का…

बच्चे ना नहीं कह सकते. बच्चे हां बोलते हैं और फिर उसके बाद बच्चों से एक साइन करने को कहा जाता है. बच्चे अपना खेल रोककर मंदिर अभियान के पक्ष में साइन कर रहे हैं. राम भक्तों ने बच्चों को नहीं छोड़ा है. बाल्यावस्था में ही मंदिर निर्माण की चाहत भरी जा रही है और उन्हें यह अहसास कराया जा रहा है कि किस क़ौम की वजह से मंदिर निर्माण में बाधा पहुंच रही है. अपने साथ खेल रहे अपने दोस्त शहनवाज़ को , रमेश संदिग्ध निगाह से देखने लगता है. उसके भीतर नफरत के बीज बो कर निकल जाते हैं भक्तगण. मोहल्लों की दुनिया बदल रही है. जहां सब बच्चे आपस में मिल-जुलकर खेलते थे, गलबहियां करते थे, आज उनमें दूरियां बढ़ती जा रही हैं.

वे हिंदू मुसलमान का खेल खेलने लगे हैं. बच्चे अपने दोस्तों की तरफ उंगली उठाकर कहते हैं- ‘वो मुस्लिम हैं, हम नहीं खेलेंगे उनके साथ.’ दो बच्चे आपस में भारत-पाकिस्तान खेल खेलते हैं और उन्हें घुट्टी में पिलाया गया है- पाकिस्तान, भारत का सबसे बड़ा दुश्मन है.

बच्चे अपने मुस्लिम दोस्त को संशय से देखते हैं कि ये हमारे देश में क्यों है? पाकिस्तान क्यों नहीं चला जाता. बच्चों का ये खेल मैंने अपनी आंखों से देखा और उनके संवाद सुने हैं. तब से हिल गई हूं. हमारी सोसायटी में मालिश के लिए शबाना आती है, पूरी सोसायटी की औरतों का दैहिक दर्द वो दूर करती है और रोज मानसिक दर्द लेकर घर लौटती है. उसके चार बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं और चारों को स्कूल में भेदभाव झेलना पड़ रहा है.

इधर शबाना रोज मैडमों से जूझती है कि मंदिर क्यों नहीं बनना चाहिए? ज़मीन तुम लोग छोड़ क्यों नहीं देते? वह मैडमों की नस-नस पहचानती है, वहां से दर्द को दूर भगाती है लेकिन अपने भीतर गहरे उतरते दर्द को दूर नहीं कर पाती. वह डरी हुई है, मोहल्ले में बच्चों के बीच हस्ताक्षर अभियान से. वह डरी हुई है कि उसके बच्चे पढ़ाई बीच में छोड़ कर कोई और राह न पकड़ लें. इसी आशंका से वह स्कूल के प्रिंसिपल के पास पहुंच गई.

वह गिड़गिड़ाती रही कि सर, आप रोज प्रार्थना के बाद कुछ ऐसा कहिए, जिससे बच्चों में एकता का भाव जगे, उनके भीतर से हिंदू-मुस्लिम का भेद खत्म हो. हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं… टाइप बात करिए. क्योंकि बच्चों को बहुत सहना पड़ रहा है. हिंदू बच्चे, मुस्लिम कह कर दूरी बना रहे हैं. प्रिंसिपल को यह सब गंभीर मसला नहीं लग रहा है. उन्हें शबाना की बात पर हंसी आ रही है. उन्हें यकीन हीं नहीं आ रहा कि बच्चों में ऐसी भावना आ सकती है. अब उन्हें कौन समझाए कि बच्चे इन दिनों टारगेट पर हैं. उन्हें बदला जा रहा है.

शबाना का एक बेटा सातवीं में पढ़ता है, वो कई दिन स्कूल नहीं गया. वो ऐसे माहौल में स्कूल जाना नहीं चाहता जहां उसके दोस्त मुस्लिम कह कर दूरी बना लें. अपने ही देश में ग़ैर की तरह रहना, बसना कौन चाहेगा.
बेखौफ, बेशर्म रामभक्तों का नृशंस उत्साह बढ़ता चला जा रहा है.

सरकारी स्कूल का ये हाल है तो प्राइवेट स्कूल कौन से कम हैं. इंदिरापुरम (उत्तर प्रदेश) स्थित एक बड़ा ब्रांड नेम वाला स्कूल अपने पांचवी क्लास के बच्चों को निबंध के लिए एक टॉपिक देता है- ‘गाय हमारी माता है’ इस पर लिख कर लाओ.

बच्चे हैरान परेशान. वो तो एक ही माता को जानते थे अब तक. उनकी माताओं ने जरूर बचपन से सुना था कि गाय हमारी माता है, हमको कुछ नहीं आता है… बैल हमारा बाप है, नंबर देना पाप है.

उन माताओं ने बचपन में सिर्फ ‘गाय’ पर निबंध लिखना सीखा था. उसमें माता कहीं दर्ज नहीं था. स्कूली निबंध में शुरुआत ऐसे होती थी- गाय एक चौपाया जानवर है, जिसके दो सींग, दो पैर… वह दूध देती है…

अब आलम ये है कि निबंध के लिए विषय ही बदल दिया गया. अब टॉपिक ‘गाय’ नहीं, ‘गाय हमारी माता है’ हो गया है. ये कैसे हुआ? बच्चों की माताओं ने कहावतों, मुहावरों या क़िस्सों में सुना था कि गाय हमारी माता है. अब गाय हमारी माता है.. इस पर शिक्षा व्यवस्था की मुहर लगेगी क्या? कौन देता है ऐसी पढ़ाई की अनुमति? कहां से उपजी है ये भावनाएं? शिक्षा क्या भावनाओं से चलती है? इसका वैज्ञानिकता से कोई लेना देना नहीं? दूध देने के आधार पर एक जानवर माता हो गई. जब उस माता ने दूध देना बंद किया, उपयोगिता खत्म हुई तो माता के प्रति सारा आदर भस्म हो जाता है. गाय माताएं लावारिस सड़कों पर भटकने और मरने के लिए छोड दी जाती हैं. बिना दूध देने वाली माता की सेवा करने से पल्ला क्यों झाड़ लेता है समाज?

बच्चे सवाल नहीं उठा सकते, उनकी मेधा अभी उतनी तीक्ष्ण नहीं है. इसीलिए उनकी मेधा को कच्चेपन में ही दूषित करने का प्रयास किया जा रहा है. बचपन ख़तरे में है. आने वाली नस्लों को ज़हरीला बनाने का प्रयास किया जा रहा है. कोई सचेत करने वाला नहीं है.

शबाना को ये सब मालूम है. वह मैडमों से जूझती हुई उन्हें करारा जवाब देती है- ‘हम क्यों जाएं पाकिस्तान! हम तो यहीं रहेंगे. ये हमारा मुल्क नहीं है क्या?’

शबाना इससे ज्यादा बहस नहीं करती. मैंने उसे टटोलने की कोशिश की. वह बताती है- ‘मैडम जी, हम तो आधी-आधी ज़मीनें बांटने को तैयार हैं, मगर उन्हें पूरा चाहिए. सिर्फ राम जन्मभूमि का सवाल नहीं है न. इसके बाद काशी, मथुरा भी मांगेंगे. वहां भी यही विवाद है. क्या हमेशा यही झगड़े होते रहेंगे?’

शबाना अनपढ नहीं है. हिंदू-मुस्लिम राजनीति से पूरी तरह अवगत है और सबकुछ जानती है. लेकिन जबसे उसके बच्चों के साथ स्कूल में भेदभाव होने लगा है, उसकी चिंताएं बढ़ गई हैं.

शबाना जैसी चिंतित स्त्रियां और भी हैं जो रोज अपना नाम बदलती हैं. कभी सलमा तो कभी सीमा बनती हैं. अपनी पहचान छिपा कर रोजगार की तलाश में निकलना जिनका मकसद है. कुछ यासिर मोहम्मद जैसे लोग हैं जिन्हें अपार्टमेंट में या हिंदुओं के मोहल्ले में घर नहीं मिलता, किराये पर. वे सबके साथ मिलजुल कर बसना चाहते हैं, उनका नाम सुनते ही किराये घर पर ताला बंद हो जाता है.

अब ऐसे में डर भला क्यों न लगे साहब. इस मुल्क में डर का माहौल जो बना दिया गया है!

(ये लेखक के निजी विचार हैं. गीताश्री स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक हैं.)

share & View comments