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Sunday, 22 December, 2024
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लोक में पहुंचकर राम कथा शास्त्रीय नहीं रह सकती, आदिपुरुष का भाषा विवाद निरर्थक है

गांव की रामलीलाओं और सागर के धारावाहिक से लेकर रामानुजन के 1991 के निबंध तक रामायण का अंश हमें वर्षों से महाकाव्य के सभी नुकसान और लाभ के बारे में बताता है.

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हाल में रिलीज हुई फिल्म आदिपुरुष के कुछ डायलॉग को लेकर विवाद इतना बढ़ा कि फिल्म के निर्देशक और डायलॉग लेखक पीछे हट चुके हैं. इन डायलॉग को सुधारकर या हटाकर फिल्म दोबारा रिलीज की जाएगी. उम्मीद है कि इसके बाद ये विवाद शांत हो जाएगा.

इस विवाद के कई सबक हैं. इससे साबित हुआ कि राम कथा या कोई भी धार्मिक कथा युग, समाज और स्थान के हिसाब से बदलती रहती है. लेकिन हर बदलाव सहज स्वीकार्य नहीं होता. इस बार फर्क ये है कि ये काम कमर्शियल मुनाफा कमाने वालों ने किया. इस प्रयोग या बदलाव का दायरा बहुत बड़ा है, क्योंकि माध्यम फिल्म है. विवाद का कारण भाषा संबंधी प्रयोग नहीं, बल्कि इसके तौर-तरीके और नीयत को लेकर है.

मेरा तर्क है कि राम कथा के 1987 में लोकप्रिय धारावाहिक रामायण बनने और दूरदर्शन पर उसके धारावाहिक प्रसारण के बाद इस कथा का स्वरूप काफी हद तक स्थिर हो गया है. वर्तमान विवाद से ऐसा लगता कि अब राम कथा में होने वाला कोई भी बदलाव समस्या पैदा करेगा. इस विवाद को उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में भी देखा जाना चाहिए जब 16वीं सदी में बाइबिल का पहली बार लैटिन से जनभाषा इंग्लिश में अनुवाद हुआ और चर्च ने कहा कि इससे ईश्वर की रचना बिगड़ जाएगी.

राम कथा मूल रूप में ऋषि वाल्मीकि की रचना है और इसे संस्कृत में लिखा गया था. लेकिन समय के साथ ये अलग अलग भाषायी समूहों और इलाकों में पहुंची और लोगों ने इसे अपने अपने तरीके से अपनाया और बदलावों के साथ स्वीकार किया. वाल्मीकि रामायण से तुलसीदास के रामचरितमानस और रामानंद सागर की टीवी सीरियल से ए.के. रामानुजम के थ्री हंड्रेड रामायणा और अब आदिपुरुष तक इस कथा में बहुत कुछ बदलता, घटता-बढ़ता रहा है. इन सबके इतर, इसके कई अलग रंग विभिन्न इलाकों की रामलीलाओं में हैं.

राम कथा का स्थानीयकरण एक महत्वपूर्ण बात है, जिसका ध्यान रखना मौजूदा विवाद के लिहाज से जरूरी है. जहां कहीं भी राम कथा सुनाई जा रही है या राम कथा का मंचन यानी रामलीला हो रही है, वहां भाषा किस रूप में समझी और बरती जाती है, इससे कथा की भाषा तय होती है. साथ ही कथा के कई अंश, जिन्हें प्रासंगिक या जरूरी नहीं समझा जाता है, उन्हें हटा भी दिया जाता है. स्थानीय संस्कृति के हिसाब से या बाद में किसी और कही गई राम कथा से कुछ जोड़ लिया जाना भी स्वाभाविक है. गांव या कस्बों ही नहीं, कई शहरी बस्तियों में भी रामलीला के मंचन में लोकगीत, फिल्मी संगीत या नृत्य को शामिल करके इसे लोकप्रिय बनाने की कोशिश होती है. सभी इलाकों में रामलीलाएं एक जैसी नहीं होतीं.

निजी अनुभव की बात करूं तो झारखंड के बोकारो स्टील सिटी में अस्सी के दशक में मोहल्ले और स्कूलों की रामलीलाओं में अक्सर सीता का रोल कोई लड़का या पुरुष ही करता था क्योंकि लड़कियां रिहर्सल के लिए न तो बार बार आ सकती थीं, न देर तक रुक सकती थीं. मेरे बड़े भाई साहब हनुमान का रोल किया करते थे! रामलीला की भाषा न तो वाल्मीकि की संस्कृत थी, न तुलसीदास की अवधी. इसे वहां बोली जाने वाली आम हिंदी भाषा में मंचित किया जाता था. वैसे भी भाषा समझ में न आए तो देर रात तक रामलीला देखता ही कौन? लोग देखने आएं, इसके लिए कथा में तरह तरह के मसाले डाले जाते थे.

वाल्मीकि रामायण के राम बहुत ज्यादा ही मानव रूप में हैं. रामचरितमानस और रामलीला के राम देव और अवतारी होते हैं. विष्णु के अवतार के रूप में उन्हें मंच पर दिखाया जाता है. वाल्मीकि रामायण के कई प्रसंग रामलीला में नहीं दिखाए जाते. न ही रामायण सीरियल में उन्हें दिखाया गया है. जैसे राम के इस लोक से प्रस्थान की कथा किसी भी रामलीला में नहीं दिखाई जाती. ये तुलसीदास के रामचरितमानस में भी नहीं है. शूद्र ऋषि शंबूक के वध की कथा भी रामलीला या सीरियल से गायब है. इसी तरह सीता के पृथ्वी में प्रवेश का प्रसंग भी राम कथाओं और रामलीला में नहीं होता. रामलीला या राम कथाएं आम तौर पर राम के लंका विजय के बाद अयोध्या आगमन और राम दरबार के साथ खत्म हो जाती हैं. जबकि वाल्मीकि रामायण का काफी हिस्सा इसके बाद का है.


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यही नहीं, रामलीलाओं में और राम कथाओं तथा सीरियल में कई ऐसे प्रसंग हैं जो वाल्मीकि रामायण में नहीं हैं. मिसाल के तौर पर, वाल्मीकि रामायण में सीता स्वयंवर नहीं है. जबकि किसी भी रामलीला, सीरियल या राम कथा में ये अनिवार्य तत्व है. इसी तरह राम द्वारा शबरी के जूठे बेर खाने का कोई जिक्र वाल्मीकि रामायण में नहीं है. इसे भी अब हर जगह प्रमुखता से दिखाया जाता है. वाल्मीकि रामायण में राम-रावण युद्ध दो बार हुआ है. रामचरितमानस से ये युद्ध एक बार में संपन्न होता है. रामलीलाएं रामचरितमानस से ज्यादा प्रभावित हैं. ये संस्कृत की कम व्याप्ति को भी दर्शाता है.

कालांतर में, कस्बाई और मेले वाली रामलीलाओं में फिल्मी संगीत और नृत्य का भी प्रवेश हुआ है. रामलीलाओं को मनोरंजक बनाने के लिए तमाम तरह के प्रयोग स्थानीय स्तर पर होते रहते हैं. मूल कथा के सारतत्व को बनाए रखते हुए ऐसे किए गए ऐसे बदलावों को लेकर हिंदू समाज भी उदार रहा है.

सीरियल बनने के बाद राम कथाएं बंध गईं

राम कथाओं की ये गतिशीलता और स्थानीयता को अपनाने की क्षमता खासकर रामायण सीरियल बनने के बाद कम हो गई. इस सीरियल ने राम कथा को बेशक करोड़ों घरों तक पहुंचाया लेकिन इसका एक साइड इफेक्ट ये हुआ कि राम कथाओं के लिए न सिर्फ एक खास भाषा निर्धारित हो गई, बल्कि ये भी तय हो गया कि विभिन्न चरित्र और पात्र कैसे दिखने चाहिए. अब रामलीलाओं, खासकर महानगरीय रामलीलाओं में, अक्सर रामायण सीरियल को कॉपी करने की कोशिश होती है.

राम कथाओं को स्थानीय परंपराओं और संस्कृति के अनुरूप ढालने की स्वतंत्रता अब पहले से काफी कम है. ये प्रश्न विचारणीय है कि आदिपुरुष में रावण को दाढ़ी में दिखाने पर ऐतराज कहीं इसलिए तो नहीं है कि रामायण सीरियल के बाद हमारी कल्पनाओं के रावण की मूछें तो हैं, पर दाढ़ी नहीं है? इसी तरह सीरियल के राम की मूंछ नहीं हैं, पर फिल्म के राघव की मूंछें हैं. ये सब अब अटपटा लगता है क्योंकि इनकी कोई और छवि स्थिर हो चुकी है.

ये लगभग वही प्रक्रिया है जो राजा रवि वर्मा द्वारा देवी-देवताओं की रंगीन पेंटिंग बनाए जाने और फिर प्रिंटिंग प्रेस में छापे गए कलेंडरों के जरिए इन तस्वीरों के घर-घर तक पहुंचने की वजह से हुई. पहली बार देवी-देवताओं के एक से चित्र विशिष्ट रूप में लाखों घरों तक पहुंचे तो वही रूप जनमानस में रूढ़ हो गए. रामायण सीरियल के पात्र भी राजा रवि वर्मा की पेंटिंग्स से प्रभावित हैं.

आदिपुरुष ने दरअसल इस स्थापित स्वरूप से अलग जाने के कोशिश की, न सिर्फ पात्रों के निरूपण में, बल्कि भाषा में भी, इसलिए इसे लेकर हंगामा मच गया. राम कथा का मानक स्वरूप ही लोगों के दिलो-दिमाग में है और स्थानीयता को वे रामलीलाओं में तो स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन फिल्म जैसे जन माध्यम में, जिसकी पहुंच करोड़ों लोगों तक है, वे स्थापित स्वरूप को ही चाहते हैं.

इस बात की मीमांसा शायद बाद में कभी होगी कि देवताओं के रूपों को स्थिर कर देना सही है या गलत. या फिर ये सवाल कि राम कथाओं को सांस्कृतिक विविधताओं के साथ दिखाना सही था या उसे एकरूपता में ही प्रदर्शित करना चाहिए? ये जटिल प्रश्न हैं, जिन पर चिंतक जरूर विचार करेंगे.

बाइबिल का अंग्रेजी में आना और संबंधित विवाद

लगभग छह सौ साल पहले यूरोप और ईसाई जगत ने ऐसा ही विवाद देखा था. 16वीं सदी में पहली बार जब बाइबिल का लैटिन से अंग्रेजी में अनुवाद हुआ तो ईसाई धर्मगुरुओं की त्यौरियां चढ़ गईं. बाइबिल को ईश्वर की रचना माना गया है और ईश्वर इंग्लिश जैसी आम जनभाषा में कैसे अपना संदेश दे सकता है! धर्मगुरुओं ने कहा कि जन भाषा में धार्मिक ग्रंथ का सार तत्व नष्ट हो जाएगा क्योंकि आम लोग बाइबिल पढ़कर उसकी मनमानी व्याख्याएं करने लगेंगे. दरअसल उनकी चिंता ये थी कि जब आम लोग ईश्वर की कही बातों को पढ़ने और समझने लगेंगे तो पादरियों की सर्वोच्चता खंडित हो सकती है, जो कालांतर में हो भी गई. खासकर प्रोटेस्टेंट और कैल्विन मतावलंबी ईसाई, पोप और पादरियों की सर्वोच्चता नहीं मानते और न ही मानते हैं कि ईश्वर तक पहुंचने के लिए पादरी जैसे मध्यस्थ का होना आवश्यक है.

लेकिन बाइबल के आम भाषाओं में आने से, जिसमें इसी दौर में आए प्रिंटिंग प्रेस की बड़ी भूमिका रही, ईसाई धर्म का विस्तार ही हुआ. बाइबिल की कथा जन-जन तक पहुंची और कविताओं और नाटकों में भी ढल गई. लैटिन बाइबिल के साथ ये संभव नहीं था, क्योंकि आम जन इसे बोलते ही नहीं थे और न ही समझ सकते थे.

कल्पना कीजिए कि अगर राम कथा संस्कृत में लिखी गई वाल्मीकि रामायण में ही रह जाती और तुलसीदास इसे अवधी में न लाते तो भी क्या रामलीलाएं इतनी लोकप्रिय हो पातीं?

आदिपुरुष के संवाद में समस्याएं हैं. ये समस्या फिल्म की राजनीति को लेकर है. इसमें सांप्रदायिक ओवरटोन वाले डायलॉग हैं. जैसे- जो हमारी बहनों को हाथ लगाएगा, हम उसकी लंका लगा देंगे. इस डायलॉग को जबर्दस्ती लाया गया है क्योंकि इसे बोलने वाले पात्र हनुमान (इस पात्र को दिया गया बजरंग नाम भी अकारण नहीं है) सीता को माता कहते हैं, बहन या दीदी नहीं. लेकिन माता बोलने से ये डायलॉग वह असर नहीं छोड़ पाएगा, जिसकी कामना डायलॉग लेखक या डायरेक्टर ने की थी.

आदिपुरुष में भाषा के भदेसपने का अतिरेक है. लेकिन इससे जनभाषा में धार्मिक कथाओं को लाने का महत्व कम नहीं हो जाता. आदिपुरुष विवाद को संतुलित नजरिए से देखे और समझे जाने की जरूरत है. भाषा को किसी ग्रंथ के विस्तार का वाहक होना चाहिए. अगर इसे बांधने की कोशिश हुई तो ग्रंथ लोक तक नहीं पहुंच पाएंगे. ये ग्रंथ के हित में नहीं है.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. विचार व्यक्तिगत हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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