जब राकेश टिकैत – भारतीय किसान यूनियन के असल नेता – पिछले हफ्ते मीडिया के सामने रो पड़े, तो उन्होंने गणतंत्र दिवस की हिंसा के बाद किसानों के विरोध प्रदर्शन में एक नई जान फूंकने का काम किया. लेकिन टिकैत ‘आंसू बहाने की कला’ का प्रभावी इस्तेमाल करने वाला भारतीय राजनीति का नवीनतम नेता बनने के साथ ही कुछ और करने में भी सफल रहे हैं. उन्होंने भारत के हताश उदारवादियों को 2013 के मुज़फ्फ़रनगर दंगों में अपनी विवादास्पद भूमिका को भुलाने के लिए बाध्य कर दिया, और अब वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी केंद्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार के खिलाफ उनके वैचारिक और लोकतांत्रिक संघर्ष का नया चैंपियन बन गए हैं.
टिकैत ने अपने आंसुओं से न केवल 2013 के दंगों की जनस्मृति को धो दिया, बल्कि वह सिखों की अगुआई वाले एक आंदोलन को जाटों के विद्रोह में भी बदलने में भी कामयाब रहे हैं, साथ ही उन्होंने उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को भी अपना रुतबा दिखा दिया है.
पंजाब के खेतों से उठा विरोध प्रदर्शन सहसा भाजपा के नए गढ़ अराजक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रवेश कर गया है, जहां अगस्त 2013 की महापंचायत, जिसके बाद सांप्रदायिक दंगे फैले थे, से पार्टी ने खूब राजनीतिक और चुनावी फायदा उठाया था. महापंचायत मुज़फ्फ़रनगर जिले में कुछ हफ्तों के भीतर हत्या की तीन घटनाओं से बने तनाव के माहौल में आयोजित हुई थी. भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) और कई भाजपा नेताओं ने महापंचायत में सक्रिय रूप से भाग लिया था, जबकि दंगों के बाद दर्ज प्राथमिकियों में अन्य लोगों के साथ टिकैत और उनके बड़े भाई नरेश के नाम भी थे.
लेकिन ये बातें अब भुलाई जा चुकी लगती हैं, क्योंकि अब राकेश टिकैत मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का नेतृत्व कर रहे हैं और भारतीय उदारवादियों के मुद्दों को भी स्वर दे रहे हैं.
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राजनीति को आंसुओं से गुरेज नहीं
बिल्कुल असहाय दिखते टिकैत ने मीडिया के सामने रोते हुए ऐलान किया था कि यदि निर्दयी सरकार कृषि कानूनों को निरस्त नहीं करती है तो वह उसके सामने झुकने के बजाय आत्महत्या कर लेंगे. इसके बाद किसानों का विरोध प्रदर्शन वापस पटरी पर आ गया, जो कि गणतंत्र दिवस के दिन समानांतर ‘ट्रैक्टर परेड’ के दौरान हुई हिंसक घटनाओं के बाद जनसमर्थन खोता दिख रहा था. उसके बाद विरोध में अधिक गहराई और विविधता दिखने लगी. जल्दी ही मेरठ, बागपत, बिजनौर, मुज़फ्फ़रनगर, मुरादाबाद और बुलंदशहर के लोग किसानों के संघर्ष में शामिल होने के लिए दिल्ली की गाज़ीपुर सीमा पर पहुंचने लगे.
इससे पहले आखिरी बार आंसू बहाकर जनभावनाओं को इस तरह झकझोरने का काम नरेंद्र मोदी ने किया था. वास्तव में, मोदी केवल रोकर किसी भी कार्य के लिए खुद को सबसे ईमानदार, भरोसेमंद और सच्चा साबित करने की कला में पारंगत हैं. मामला 2016 की नोटबंदी का हो, जब उन्होंने रोते हुए जनता से उन पर भरोसा करने और परेशानियों को झेलने की अपील की थी. या, उस क्षण का जब पक्षाघात से पीड़ित एक महिला ने रियायती दरों पर दवाइयां उपलब्ध कराने के लिए उन्हें ‘भगवान’ कहा था. रोने से भयावह नीतियां असल के मुकाबले बहुत बेहतर दिख सकती हैं.
नोटबंदी जहां काले धन को खत्म करने या भारत को कैशलेस अर्थव्यवस्था बनाने में नाकाम रही, वहीं जनौषधि योजना में अनियमितताओं और हेराफेरी की खबरें सामने आ चुकी हैं.
उदारवादियों की दुविधा
लेकिन यहां बात राकेश टिकैत और नरेंद्र मोदी की रोने की क्षमता की नहीं है. यह बिल्कुल गलत रूप ले चुके किसानों के विरोध प्रदर्शन को पटरी पर वापस पर लाने की टिकैत की क्षमता के बारे में है. और, एक नए नेता के उदय की बात करते मेरे जैसे लोगों के बारे में हैं.
तो क्या मुज़फ्फ़रनगर दंगों, जिनमें 66 लोग, अधिकांश मुस्लिम, मारे गए थे और 60,000 से ज्यादा लोग बेघर हुए थे, के आरोपियों में शामिल रहे राकेश टिकैत, हिंदू राष्ट्रवादी नेताओं के नेतृत्व वाली बहुसंख्यवाद की राजनीति के खिलाफ हमारी लड़ाई के नया नेता हैं?
यहीं पर उदारवादियों की दुविधा सामने आती है.
भाजपा की मोदी-योगी-शाह त्रिमूर्ति के विकल्प के लिए क्या हम इतने हताश हैं कि कांस्टेबल से नेता बने और कभी भाजपा से सांठगांठ रखने वाले व्यक्ति को एक क्रांतिकारी के रूप में स्वीकार करें जो कि मौजूदा सत्ताधारकों को चुनौती देगा? शायद उन्हें अब स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि वह भाजपा को समर्थन देने के लिए खेद जता चुके हैं.
पुरस्कृत वृत्तचित्र निर्माता नकुल सिंह साहनी लिखते हैं, ‘2019 (लोकसभा चुनाव) के बाद से, भाकियू के नेतृत्व में मुज़फ्फ़रनगर और शामली जिलों में कई विरोध प्रदर्शन हुए हैं. उनमें उल्लेखनीय बात थी अनेक मुस्लिम किसानों की उपस्थिति… ये साफ दिख रहा था कि राकेश टिकैत भाकियू को पुनर्जीवित करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं. टिकैत के आंसू भरे भाषण के दो दिन बाद 29 जनवरी 2021 को, सिसौली गांव में हुई महापंचायत में हजारों लोगों ने भाग लिया.’
साहनी के अनुसार, जब भाकियू नेता गुलाम मोहम्मद जौला मंच पर आए और उन्होंने टिकैत को उनकी ‘दो सबसे बड़ी गलतियों’ – ‘मुसलमानों की हत्या’ और ‘अजीत सिंह को हरवाना’ – की याद दिलाई ‘तो लोगों ने न तो शोर मचाया, न ही उन्हें चुप कराने की कोशिश की गई. बिल्कुल खामोशी छाई थी. आत्मनिरीक्षण चल रहा था.’ महापंचायत में, साहनी के अनुसार, ‘एक बहुत ही दुर्लभ निर्णय लिया गया – भाजपा के बहिष्कार का.’
जवाब आसान है
‘आदर्श नेता’ नाम की कोई चीज नहीं होती है. और, ‘भारत-माता-के-सपूत’ वाली छवि के कारण, और जो संभवत: भाजपा के कायदों को भी जानता है, शायद राकेश टिकैत जैसा नेता ही इस भारी प्रतिद्वंद्वी को ठिकाने लगाने की जुगत को समझ सकता है.
वास्तव में, किसानों के मौजूदा विरोध प्रदर्शन के दौरान लंबे समय तक टिकैत को भाजपा का ‘पिट्ठू’ माना जाता रहा. लेकिन जब कई किसान मोर्चा और किसान नेता, ख़ासकर राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के प्रमुख वीएम सिंह, राजद्रोह के आरोपों के डर से विरोध प्रदर्शन से हट गए, तो वैसे में टिकैत डटे रहे और इस तरह उन्होंने किसानों को अपने पीछे लामबंद होने की वजह दी. उत्तर प्रदेश सरकार के बेदखली आदेशों के बावजूद गाज़ीपुर नहीं छोड़ने के संकल्प ने उन्हें एक संदिग्ध छवि वाले नेता से उठाकर राष्ट्रीय नायक बना दिया.
इसका मतलब यह नहीं है कि टिकैत के नए उदारवादी नायक बनने की राह की सारी चुनौतियों और बाधाओं का अंत हो गया है. गाज़ीपुर की सीमा पर किसानों ने अपना समर्थन देने आए जामिया मिलिया इस्लामिया के मुस्लिम छात्रों को कथित तौर पर हटा दिया है. लेकिन किसानों के विरोध की विशिष्टता ये है कि यह धर्म से जुड़ा नहीं है, और न कभी जुड़ेगा, भले ही कुछ प्रदर्शनकारियों ने लाल किले में निशान साहिब को फहराया हो. और यह काफी हद तक राकेश टिकैत के कारण संभव हो पाया है. यदि भारतीय जनता का एक बड़ा हिस्सा मोदी सरकार का आकलन सिर्फ हिंदुत्व के बजाय उसकी नीतियों के आधार पर शुरू कर दे, तो देश के अनुपस्थित विपक्ष के लिए मतदाताओं के समक्ष खुद को एक विकल्प के रूप में पेश करना आसान हो जाएगा.
किसानों को हमेशा ही जनता की सहानुभूति मिलेगी. आप सिख प्रदर्शनकारियों को ‘खालिस्तानी’ और मुस्लिम प्रदर्शनकारियों को ‘जिहादी’ भले ही कह लें, आप कभी भी देश के नागरिकों की नज़र में किसानों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ साबित नहीं कर सकते. और अगर टिकैत अपने विरोध प्रदर्शन को जीवंत बनाए रखते हैं और अंततः मोदी सरकार को किसानों की मांगें मानने के लिए विवश करते हैं, तो भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार का सब्जबाग जल्दी ही बंजर में तब्दील होने लगेगा. इसलिए ये अच्छा नहीं होगा कि भारत के उदारवादी मौजूदा अवसर पर ध्यान दें और अन्य संघर्षों को आगे के लिए टाल दें?
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(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक और लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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