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Thursday, 27 November, 2025
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राजनाथ सिंह भारत और पाकिस्तान की साझा सभ्यता की धरोहर को नए सिरे से खोज रहे हैं

भले ही भारत और पाकिस्तान युद्ध के मुहाने पर खड़े लग रहे हों, लेकिन उनकी इंटेलिजेंस सर्विस अक्सर तनाव कम करने और दोनों देशों के लिए रिस्क कम करने के लिए जगह ढूंढती रही हैं.

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सजीले अंदाज़ में बिल्कुल ठीक से बांधी गई साड़ी पहने, सिर पर हल्के से जड़ी हीरे की सुंदर ताज सजाए, क्राउन प्रिंसेस सर्वत अल हसन कभी न्यूयॉर्क के सोयरे तो कभी कूटनीतिक डिनरों में नज़र आती थीं. कोलकाता में जन्मे पाकिस्तान के जाने-माने राजनयिक मुहम्मद इकरामुल्लाह और उनकी पत्नी, लेखिका शाइस्ता सुहरावर्दी इकरामुल्लाह की बेटी होने के नाते, क्राउन प्रिंसेस ने हमेशा उन सांस्कृतिक जड़ों को महत्व दिया जिन्होंने उनकी ज़िंदगी को आकार दिया. उनके चाचा मुहम्मद हिदायतुल्लाह भारत के मुख्य न्यायाधीश और उपराष्ट्रपति रह चुके थे. उनके रिश्तेदारों में शिक्षाविद बदर-उन-निसा अख्तर और इब्राहीम सुहरावर्दी शामिल थे.

पिछले वर्ष, 1987 में, भारत-पाकिस्तान के तनाव तेज़ी से बढ़ गए थे. बड़े पैमाने पर किए जा रहे सैन्य अभ्यासों ने इस्लामाबाद में यह डर पैदा कर दिया था कि भारत शायद सिंध को पाकिस्तान से अलग करने की तैयारी कर रहा है, जैसा कि उसने बांग्लादेश में किया था.

अपने पति, जॉर्डन के पूर्व क्राउन प्रिंस हसन बिन तलाल—जो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उस समय की पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो दोनों के निजी मित्र थे—के सहयोग से उन्होंने शांति के लिए एक साहसिक योजना बनाई. प्रस्ताव सीधा था: क्या अम्मान के शाही परिवार भारत और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों को गुप्त रूप से मिलवा सकते हैं ताकि कोई रास्ता निकाला जा सके?

इस सुझाव ने घटनाओं की एक उल्लेखनीय कड़ी शुरू की, जिसके बारे में आज भी केवल कुछ ही प्रमुख लोग जानते हैं. यह समझौता, जो पाकिस्तान की सिंध को लेकर चिंताओं और भारत की पंजाब को लेकर आशंकाओं के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था, 2016 तक लगभग अज्ञात ही रहा.

हैरानी की बात है कि यह विचार चार-दिवसीय युद्ध के बाद भी जीवित रहा, जिसने दिखाया कि भविष्य में कोई संघर्ष कितनी जल्दी बेकाबू हो सकता है. दिल्ली में हाल की कार-बम घटनाओं के बाद भारत के नेताओं ने पाकिस्तान का नाम लेने से बचना ही पसंद किया—क्योंकि अनुभव ने सिखाया है कि अपनी ही बयानबाज़ी के चक्कर में फंसने का कितना बड़ा खतरा होता है.

राजनाथ का कराची प्लान

इस सप्ताह की शुरुआत में, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी का ज़िक्र करते हुए कहा कि “उनकी पीढ़ी के सिंधी हिंदू आज तक सिंध खोने के दुख को भूल नहीं पाए हैं.” उन्होंने आगे कहा कि “सिंध में रहने वाले मुसलमान भी इंडस नदी के पानी को मक्का के ज़मज़म के पानी जितना पवित्र मानते हैं.” उन्होंने कहा, “आज सिंध भारत का हिस्सा नहीं है, लेकिन सभ्यता के तौर पर सिंध हमेशा हमारा हिस्सा रहेगा. सीमाएं बदलती रहती हैं; कौन जानता है, शायद एक दिन सिंध फिर भारत में शामिल हो जाए.”

ज्यादातर लोगों को यह एक तरह की भावुक बात ही लगी, जैसी बुजुर्ग लोग कभी-कभी कह देते हैं—कभी इससे पहले तो कभी इसके बाद कि भारत में मुसलमान बहुत ज़्यादा हो गए हैं. लेकिन कुछ वजहें हैं यह मानने की कि रक्षा मंत्री सिर्फ भावुकता में नहीं बोल रहे थे.

कई दावे किए गए हैं कि 2021 में एलओसी पर युद्धविराम लागू होने के कुछ ही हफ्तों बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोबारा रिश्ते सुधारने के लिए एक बड़ा राजनीतिक कदम उठाने पर विचार कर रहे थे. कहा जाता है कि यह यात्रा पाकिस्तान के सबसे बड़े हिंदू तीर्थस्थल, लियारी नदी की संकरी घाटी में स्थित हिंगलाज माता मंदिर पर समाप्त होने वाली थी. इसके बाद मोदी और इमरान खान के बीच 20 साल के लिए कश्मीर विवाद को स्थगित करने पर समझौता होना था.

ऐसा दावा सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन यह बात दोनों पक्षों ने खंडित भी नहीं की है—और इसीलिए इसे सच के काफ़ी करीब माना जा सकता है.

भले ही भारत और पाकिस्तान कई बार युद्ध के कगार पर पहुंच गए हों, दोनों देशों की खुफिया एजेंसियां अक्सर तनाव कम करने और जोखिम घटाने का रास्ता ढूंढती रही हैं. क्या सिंह एक नई बातचीत की शुरुआत कर रहे हैं जो नई दिल्ली और इस्लामाबाद को चार-दिवसीय युद्ध की स्थिति से दूर खींच सके?

गुप्त बातचीत

इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए, हमें प्रिंसेस सर्वत द्वारा शुरू की गई बातचीत की तरफ लौटना होगा. 1987 के मध्य में यह साफ हो गया था कि सोवियत संघ अफगानिस्तान से अपनी सेना निकालने का फैसला कर चुका है. इससे इस्लामाबाद और नई दिल्ली दोनों चिंतित थे, हालांकि अलग-अलग कारणों से. राजीव गांधी को, जैसा कि डिक्लासीफाइड दस्तावेज़ दिखाते हैं, डर था कि इससे इस्लामिक राजनीतिक आंदोलन पूरे क्षेत्र में फैल जाएंगे. पाकिस्तान के सैन्य शासक जनरल मुहम्मद ज़िया-उल-हक को चिंता थी कि पश्चिमी मदद बंद हो जाएगी.

इसी पृष्ठभूमि में क्राउन प्रिंसेस सर्वत की बातचीत की पहल बिल्कुल सही समय पर आई. विद्वान एशले टेलिस ने लिखा है कि ज़िया और राजीव दोनों ने यह सबक सीख लिया था कि अगर प्रतिद्वंद्वी देशों के शीर्ष नेता सीधे संपर्क नहीं रखते, तो खुफिया एजेंसियों और सेनाओं के ‘हमेशा बदतर सोचने वाले’ अधिकारियों को नियंत्रण मिल जाता है.

अम्मान में हुई गुप्त बैठकों और बाद में जिनेवा के पास हुई मीटिंगों के बाद, RAW के पूर्व प्रमुख एएन. वर्मा ने लिखा है कि उन्होंने और ISI प्रमुख लेफ्टिनेंट-जनरल हमीद गुल ने सियाचिन ग्लेशियर पर सैनिकों को पीछे हटाने की गुप्त योजना तैयार की थी और सद्भावना के तौर पर चार सिख सैनिकों को वापस भारत सौंपने पर सहमति बनाई थी, जो स्वर्ण मंदिर पर हमले के बाद पाकिस्तान भाग गए थे और शरण मांग रहे थे.

लेकिन 1988 में जनरल ज़िया की मौत का कारण बने विस्फोटक छिपे आमों के कथित मामले ने यह बातचीत भी खत्म कर दी. पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के पास न तो सियाचिन समझौते का कोई रिकॉर्ड था और न ही इस गुप्त बैठक का.

विश्लेषक तैय्यब अली शाह ने लिखा है कि 1980 के दशक के मध्य से कराची अपराध सिंडिकेट, जिहादी, मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट और पश्तून-आधारित अवामी नेशनल पार्टी जैसे हथियारबंद समूहों के कारण अराजकता में बदलने लगा था. RAW के पूर्व अधिकारी बी रामन ने बताया कि प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो के पास इस बारे में एक सटीक राय थी: “आप भारत के खिलाफ सिखों का इस्तेमाल कर रहे हैं. अब उन्होंने हमारे खिलाफ सिंध का इस्तेमाल शुरू कर दिया है. सिखों का इस्तेमाल बंद करें और भारत को पाकिस्तान में रह रहे सभी सिख नेताओं को सौंप दें.”

लेकिन ISI प्रमुख लेफ्टिनेंट-जनरल हमीद गुल ने इसका विरोध किया. उनका कहना था कि पंजाब को अस्थिर रखना पाकिस्तान की सेना को बिना ज़्यादा खर्च किए दो अतिरिक्त डिवीज़न सैनिकों का फायदा देता है.

इस संघर्ष की बढ़ती कीमतों के बीच पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने 1990 के अंत में गुप्त वार्ता का एक और दौर शुरू करने का प्रस्ताव रखा. कुछ ही हफ्तों बाद RAW प्रमुख जीएस बजपेई और ISI प्रमुख लेफ्टिनेंट-जनरल असद दुर्रानी सिंगापुर के एक होटल में मिले. इस बार बातचीत, जैसा कि रामन बताते हैं, अटक गई. दुर्रानी ने सिंध में मोहाजिर समूहों और MQM को भारत द्वारा मदद देने का आरोप लगाया और भारत में आतंकी गतिविधियों में पाकिस्तान की किसी भूमिका से इंकार किया.

लड़ाई के बीच बातचीत

हालांकि आने वाले दशकों में कई बड़े संकट आए, लेकिन भारत और पाकिस्तान ने गुप्त बातचीत जारी रखी. कारगिल के बाद, सैन्य शासक जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने कश्मीर में हिंसा बढ़ा दी. 2001 के संसद हमले के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सैन्य कार्रवाई की धमकी दी, लेकिन शोधकर्ता अर्ज़न तारापोर ने लिखा है कि उन्हें “भारतीय सेना की तैयारियों की खराब हालत” का पता चला. युद्ध के अनिश्चित नतीजों को देखते हुए वाजपेयी ने आखिरकार पीछे हटने का फैसला किया.

मुशर्रफ को भी समझ आ गया कि जश्न मनाने की कोई वजह नहीं है. लेफ्टिनेंट-जनरल मुयिनुद्दीन हैदर, जो मुशर्रफ सरकार में गृह मंत्री थे, ने लिखा कि भारत के साथ लगातार तनाव ने पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को कमजोर कर दिया था.

2007 के अंत में, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के गुप्त दूत सतिंदर लांबा ने कहा कि दोनों देशों ने एक चार-सूत्रीय फॉर्मूले पर सहमति बनाई थी, जिसके तहत एलओसी को सीमा की तरह मान लिया जाना था—लेकिन कश्मीर के दोनों हिस्सों को ज्यादा स्वायत्तता दी जानी थी. हालांकि यह समझौता 26/11 हमलों के बाद टूट गया. सतिंदर लांबा और तारीक अज़ीज़ के नेतृत्व में भारत और पाकिस्तान ने इस चार-सूत्रीय योजना को तैयार किया था, जिसमें मुख्य रूप से मौजूदा सीमाओं को मानते हुए दोनों तरफ कुछ अतिरिक्त स्वायत्तता देने की बात थी.

यह योजना 26/11 हमलों के बाद खत्म हो गई, जिनके बारे में कुछ लोगों का मानना है कि यह मुशर्रफ के खिलाफ उनकी ही सेना का कदम था. हालांकि शांति की कोशिशें मोदी के दौर में भी जारी रहीं. 2015 के अंत में, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने अपने पाकिस्तानी समकक्ष नासिर जंजुआ से बैंकॉक में मुलाकात की. इसके तुरंत बाद मोदी ने लाहौर जाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को उनकी पोती की शादी की बधाई दी.

2018 में पुलवामा संकट से पहले, ISI अधिकारी मेजर-जनरल साहिबज़ादा इस्फंदियार पटौदी और RAW के आर कुमार के बीच भरोसा बढ़ाने के उपायों पर बातचीत हुई. संकट के बाद, फरवरी 2021 में, डोभाल ने उस समय के ISI प्रमुख लेफ्टिनेंट-जनरल फैज़ हामिद से गुप्त रूप से मुलाकात की ताकि एलओसी युद्धविराम की शर्तों पर सहमति बनाई जा सके.

ये बातचीत फिर विफल हो गई, जैसा कि चार-दिवसीय युद्ध से स्पष्ट है—लेकिन हर संकट की तरह, यह संभव है कि दोनों देश फिर से संपर्क करें.

चार-दिवसीय युद्ध से पहले कुछ छोटे-छोटे कदम भी दिखे थे. पिछले साल सिंध से आए यात्रियों ने अयोध्या में राम मंदिर का दौरा किया था.

सिंध को एक अद्वितीय सांप्रदायिक मेल-जोल वाली जगह बताने के दावों को पेशेवर इतिहासकार संदेह से देखते हैं. इतिहासकार आसमा फ़ैज़ ने लिखा है कि विभाजन से पहले समुदायों के बीच धीरे-धीरे दूरी बढ़ती गई और 1927 और 1938 में भयानक दंगे भड़के. और सिंधी राष्ट्रवादी आंदोलन आज भी मौजूद हैं, लेकिन कड़ी कार्रवाई और आंतरिक मतभेदों ने उन्हें कमजोर कर दिया है. पाकिस्तान के असली खतरे उसके उत्तरी सीमावर्ती इलाकों से हैं, न कि कराची की भीड़भाड़ वाली सड़कों से.

फिर भी दोनों देशों के लिए, सिंध एक तरह की सांत्वना देता है—चाहे वह आधा सच ही क्यों न हो—जो उनकी कड़वी कहानियों के बीच थोड़ा अलग रंग दिखाता है. जितनी साधारण ये बातें लग सकती हैं, सिंह के ये विचार शायद इतना स्थान बना सकें कि दोनों देश फिर से बातचीत शुरू करें और अगले युद्ध के खतरे को कम करने की दिशा में आगे बढ़ सकें.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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