रायपुर में कांग्रेस की स्टीयरिंग कमिटी की शुक्रवार की बैठक में जबकि इस बात पर बहस जारी थी कि कांग्रेस की नई वर्किंग कमिटी (सीडब्ल्यूसी) का गठन सदस्यों के ‘चुनाव से हो या नामांकन से’, तब लोकसभा में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी ने पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की तारीफ करते हुए कहा कि ‘क्यों न हम उन्हें नामांकन करने का अधिकार दे दें? उनकी उम्र 80 साल हो गई है, और वे एक दलित हैं.’
लेकिन चौधरी को शायद यह मालूम नहीं था कि उनके नये पार्टी अध्यक्ष अपने सीने पर दलित का तमगा लगाकर नहीं घूमते. सूत्रों ने मुझे बताया कि चौधरी के इस बयान पर खड़गे ने पलटकर बयान दे दिया कि ‘अरे, क्या दलित, दलित करता है? क्या मैं केवल इसलिए सक्षम हूं कि मैं दलित हूं?’
पार्टी के निर्णय करने वाली सर्वोच्च कमिटी सीडब्ल्यूसी का चुनाव न कराने के लिए इस तरह का छिछला बयान इस अधिवेशन में केवल चौधरी ने नहीं दिया.
बहरहाल, जैसा कि होता रहा है, गांधी परिवार हावी रहा. सीडब्ल्यूसी के लिए चुनाव नहीं हुआ, हालांकि पार्टी में असंतुष्ट गुट ‘जी-23’ ने अगस्त 2020 में सोनिया गांधी को लिखे पत्र में इसकी मांग की थी. लेकिन चुनाव न कराने का फैसला पार्टी के 85वें पूर्ण अधिवेशन में जमा हुए करीब 15,000 प्रतिनिधियों को नहीं भाया.
रविवार की बैठक में एक समय ऐसा आया जब प्रतिनिधियों की उदासीनता इतनी मुखर हो गई कि मंच पर आसीन बड़े नेताओं को यह लगने लगा कि कहीं साउंड सिस्टम तो नहीं खराब हो गया. श्रोताओं की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी— न तालियां बज रही थीं, न नारे लग रहे थे, न कोई शोर उठ रहा था. मंच पर बैठे लोगों ने नीचे बैठे एआईसीसी और पीसीसी के प्रतिनिधियों के बीच एक आदमी को यह पता करने के लिए भेजा कि वे लोग उनके भाषण सुन पा रहे हैं या नहीं. पाया गया कि साउंड सिस्टम में कोई खराबी नहीं है. प्रतिनिधि कार्यवाही में वाकई दिलचस्पी नहीं ले रहे थे, ऐसा लग रहा था कि अधिकतर श्रोताओं को सब कुछ बेमानी लग रहा था.
सेवा दल और इंडियन यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के कुछ समूहों को अहम स्थानों पर तैनात किया गया. जब नेतागण भाषण दे रहे थे तब ये समूह प्रियंका गांधी वाड्रा और राहुल गांधी के समर्थन में नारे लगा रहे थे. लेकिन भीड़ की ओर से जवाबी नारा शायद ही लगाया जा रहा था. भीड़ इस इंतजार में दिख रही थी कि कार्यवाही खत्म हो और उन्हें छुट्टी मिले.
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त्याग-दर-त्याग
इस बीच, भाषण जारी रहे, जो ‘हमारी प्रेरणा स्रोत’ और ‘त्याग की मूर्ति’ सोनिया और राहुल गांधी पर केंद्रित थे, जैसा कि इंडियन यूथ कांग्रेस के बी.वी. श्रीनिवास ने कहा, ‘जो, जब चल रहे थे, तो भाजपा/आरएसएस वाले जल रहे थे.’ हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने श्रोताओं को यह याद दिलाने की कोशिश की कि गांधी परिवार ने ‘आखिरी’ कुर्बानी क्या दी, ‘राहुल गांधी चाहते तो 2009 में प्रधानमंत्री बन सकते थे क्योंकि मनमोहन सिंह ऐसा चाहते थे.’ लेकिन श्रोताओं ने ताली बजाने की जरूरत नहीं समझी.
तमिलनाडु से आए एक प्रतिनिधि ने कहा, ‘दुनिया में किसी ने इतनी लंबी, 4000 किलोमीटर की पदयात्रा नहीं की है. हमें कोशिश करनी चाहिए कि राहुलजी प्रधानमंत्री बनें.’ तमिलनाडु से कांग्रेस सांसद जोतीमणि सेन्नीमलाई को महिला सशक्तीकरण के लिए वह घड़ी ‘निर्णायक घड़ी’ लगी जब (भारत जोड़ो यात्रा के दौरान) महिलाओं को हमारे नेता का हाथ थामना सुरक्षित लगा.’ गुजरात विधानसभा में कांग्रेस विधायक दल के नेता अमित चावड़ा को राहुल में ‘एक नया गांधी’ दिखा— ‘त्याग और समर्पण की मूर्ति’.
तीन दिनों के अधिवेशन के पहले दिन स्टीयरिंग कमिटी और सब्जेक्ट कमिटी की बैठकें हुईं और उन तीन दिन अधीर चौधरी के अलावा एक और पार्टी नेता, पार्टी के अनुसूचित जाति मामलों के विभाग के अध्यक्ष राजेश लीलोठिया ने खड़गे पर अपने विचार रखे. उन्होंने कहा कि खड़गे ‘इस दौर के आंबेडकर’ हैं. बाकी नेता तीन गांधियों का गुणगान करते रहे, जबकि इस अधिवेशन को पार्टी में नयी जान फूंकने के ‘रोडमैप’ पर मंथन करना था.
प्रियंका गांधी वाड्रा के भाषण से ऐसा लगा कि वे प्रतिनिधियों से जुड़ने में सफल हुईं. वे उस यात्री, अनोखी लाल के बारे में बताती रहीं, जो कन्याकुमारी से कश्मीर तक झंडा उठाए चलते रहे. वे दूसरे कई समर्पित कार्यकर्ताओं के अलावा उस यात्री के बारे में भी बता रही थीं जो भारत जोड़ो यात्रा में पूरे समय नंगे पांव चलते रहे. उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में, कांग्रेस कार्यकर्ता खुद को ‘आजीवन पीड़ित’ कहते हैं, क्योंकि उन्हें जीवनभर संघर्ष करना पड़ता है. हालांकि उन्होंने प्रतिनिधियों के दिल को छुआ लेकिन यह, जैसी कि उम्मीद थी, ‘साइड शो’ बनकर ही रह गया.
अधिवेशन का ‘आकर्षण’ तो राहुल गांधी को ही बनना था, जिनकी भारत जोड़ो यात्रा केंद्रीय मुद्दा रही. वे जब बोलने के लिए उठे तब कांग्रेस महासचिव के.सी. वेणुगोपाल ने, जो गांधी भाई-बहन के इर्द-गिर्द ही मंडरा रहे थे, मंच पर बैठे सभी लोगों को उठकर खड़े हो जाने का इशारा कर दिया. सबने वैसा ही किया, और वेणुगोपाल ने एक बाजी जीत ली. राहुल मुख्य रूप से अपनी यात्रा के अनुभव सुनाते रहे. मोदी-अडाणी-आरएसएस पर बरसने के अलावा 47 मिनट के उनके भाषण में ‘मैं’, ‘मुझे’, ‘मेरा’ का 112 बार प्रयोग किया गया.
कुछ नेता यह कहते सुने गए कि पूर्ण अधिवेशन में तो यह मंथन किया जाना था कि कांग्रेस कहां गलती कर रही है और उसके सामने क्या चुनौतियां हैं.
दो बाहरी
पश्चिम बंगाल से आए एक प्रतिनिधि शंकर ने अपने राज्य में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की दयनीय हालत की ओर ध्यान खींचा. शंकर ने शिकायत की, ‘पूरे देश में कांग्रेस कार्यकर्ता अगर कहीं नाखुश हैं, तो वह बंगाल में. 35 साल तक हम वामपंथियों से लड़ते रहे और अब 10 साल से तृणमूल कांग्रेस से लड़ रहे हैं. मैं कैसे सत्ता में आऊं, मेरी पार्टी कैसे सत्ता में आएगी, उस पर कोई प्रस्ताव नहीं. अगर हम पंचायत या बूथ लेवल तक में नहीं हैं तो हम पार्टी को कैसे बचा पाएंगे? गोली से मार दो या कांग्रेस से निकाल दो. ममता से लड़ने के लिए हमें एआईसीसी की मदद चाहिए.’
जहां हर कोई यात्रा की कामयाबी का जश्न मनाने के मूड में था, वहां उनकी आवाज़ में असंतोष की गूंज सुनाई दे रही थी. पांच मिनट में दो बार उन्हें टोका गया कि वे जल्द अपनी बात पूरी करें, तो वे हताश होकर निकल गए.
इसके कुछ घंटे बाद, जाने-माने और बेबाक वक्ता शशि थरूर ने कांग्रेस के वैचारिक विरोधाभासों और दुविधाओं को रेखांकित करने की कोशिश की, ‘कांग्रेस को अपने आधारभूत मूल्यों के लिए लड़ना चाहिए. हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम सबको साथ लेकर चलने वाले भारत के विचार के साथ हैं. जिन्हें हम बहुसंख्यकों की भावनाएं मानते हैं उन्हें अपने से अलग-थलग न करने के लिए कुछ विचारों को नीचा दिखाने या कुछ मुद्दों पर स्पष्ट रुख अपनाने से बचने की प्रवृत्ति हमें भाजपा के हाथों का खिलौना ही बनाएगी. हममें वैचारिक दृढ़ता होनी चाहिए. हम बिल्कीस बानो मामले, ईसाई चर्चों पर हमलों, गौरक्षा के नाम पर हत्याओं, मुस्लिम घरों को बुलडोजर से तोड़ने जैसे मामलों पर और मुखर हो सकते थे. वे सब भारत के नागरिक हैं, जो समर्थन के लिए हमारी तरफ देख रहे हैं.’
थरूर ने उन सबसे जरूरी सवालों को उठाया जिनसे कांग्रेस कतराती रही है. राहुल गांधी की कांग्रेस चाहती है कि लोग भाजपा और आरएसएस के खिलाफ उनकी ‘वैचारिक लड़ाई’ के पक्ष में वोट दें, लेकिन थरूर जिस वैचारिक संकट की बात कर रहे थे उस पर ध्यान देने वाला कोई नज़र नहीं आ रहा था. यह पार्टी के राजनीतिक प्रस्ताव से भी जाहिर हो रहा था, जिसमें जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस दिलाने की बात तो की गई है मगर अनुच्छेद 370 का कोई जिक्र नहीं किया गया है. बिल्कीस बानो मामले और गौरक्षकों के आतंक पर भी चुप्पी साध ली गई है.
थरूर जिस संकट को रेखांकित कर रहे थे उसे उस पार्टी को अपने मंथन का केंद्रीय मसला बनाना चाहिए था, जो अपने राजनीतिक व वैचारिक आधारों को लेकर इतनी दिग्भ्रमित नज़र आ रही है. लेकिन दिग्गजों के उस जमावड़े में थरूर अलग-थलग पड़े नज़र आ रहे थे. बंगाल के शंकर ने जो कुछ कहा उस पर विस्तार से विचार-विमर्श होना चाहिए था कि पार्टी के कार्यकर्ताओं को किस तरह बेसहारा छोड़ दिया गया है. केरल में, कांग्रेस वाम दलों की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी है, जबकि त्रिपुरा में उसने उन दलों के साथ हाथ मिलाया है जबकि पश्चिम बंगाल में इस तरह का मेल विफल हो चुका है.
पूर्ण अधिवेशन के अंत में खड़गे ने कांग्रेस का ‘रोडमैप’ प्रस्तुत किया, ‘हमें उस काम को आगे बढ़ाना है जिसे राहुल जी ने पथरीली राहों पर चलकर शुरू किया. भारत जोड़ो यात्रा से यही मार्गदर्शन मिला है.’ मार्गदर्शन! लेकिन अगर हम यह सोचें कि एक गैर-गांधी कांग्रेस का अध्यक्ष महज नाम के अध्यक्ष के सिवा और कुछ होगा तो हम नादान ही होंगे. पार्टी के कार्यकर्ताओं और वोटरों को खड़गे का संदेश साफ था, वह यह कि गांधी परिवार ही कांग्रेस है. आप यह मत पूछिए कि वे आपके लिए क्या कर सकते हैं, आप खुद से पूछिए कि आप उनके लिए क्या कर सकते हैं.
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(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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