संसद में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांघी ने बजट भाषण पर बहस में भाग लेते हुए एक ज़रूरी सवाल उठाया कि बजट बनाने में कमज़ोर जातियों से आए हुए अधिकारी क्यों नहीं शामिल किए गए हैं? इस सवाल के माध्यम से उन्होंने केंद्र सरकार में पिछड़े वंचित वर्गों से आने वाले अधिकारियों के समुचित प्रतिनिधित्व की कमी का मुद्दा एक बार फिर उठाया है. प्रतिनिधित्व की समस्या के वैज्ञानिक और तार्किक समाधान के लिए उन्होंने जाति-जनगणना को ज़रूरी बताया.
केंद्रीय वित्त मंत्री को यह बात इतनी नागवार लगी कि उन्होंने अपना चेहरा ढंक लिया. अनुराग ठाकुर ने राहुल गांधी की जाति पर सवाल उठा कर उनको कथित तौर पर गाली दी कि “जिसकी जाति का पता नहीं है वह जाति जनगणना की मांग कर रहा है”. प्रधानमंत्री जो अपने को बार-बार ओबीसी बताने से नहीं चूकते हैं, ने चीयरलीडर बनते हुए अपने सोशल मीडिया हैंडल पर अनुराग ठाकुर के निंदनीय मनुवादी भाषण को साझा करने में देरी नहीं की.
ठाकुर की कुत्सित जातिवादी टिप्पणी का राहुल गांधी ने बहुत सटीक जवाब दिया कि जिसने भी दलितों पिछड़ों आदिवासियों शोषितों वंचितों के पक्ष में आवाज़ उठाई है उसको गालियां सुनने को मिली है, मैं उनकी गालियों को खुशी-खुशी ग्रहण करूंगा, लेकिन जाति जनगणना के लक्ष्य से पीछे नहीं हटूंगा.
राहुल गांधी के साथ जो हुआ वह मनुवादियों का पुराना घृणित तौर तरीका है कि जो भी पिछड़े वर्गों के हक-हकूक के वास्ते आवाज़ और कदम उठाता है उसको गालियां और आक्रमण सुनने और झेलने को मिलता है.
ज्योतिबा फुले और माता सावित्री बाई पर मैला फेंका गया. डॉक्टर आंबेडकर और पेरियार को भी गालियां सुनने को मिलीं. आज़ादी के बाद के इतिहास को देखें तो पाते हैं कि कर्पूरी ठाकुर, अर्जुन सिंह, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव को भी अपशब्द कहे गए. जगदेव बाबू की तो गोली मारकर निर्मम हत्या ही कर दी गई. राहुल गांधी न केवल गालियां सुन रहे हैं बल्कि उन पर झूठे मुकदमे भी चलाए गए, उनकी सदस्यता रद्द की गई, उन्हें सरकारी आवास से बेघर किया गया. उनको और उनकी बीमार माता सोनिया गांधी को ईडी के कार्यालय में घंटों बैठाया गया. अब राहुल गांधी ने एक्स पर शेयर किया है कि ईडी के अधिकारियों ने उनको गुप्त सूचना दी है कि उन पर ईडी के छापे की तैयारियां चल रही है.
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की अमरकृति ‘रश्मिरथी’ में एक प्रसंग आता है कि जब सूतपुत्र कर्ण ने रंगभूमि में अपनी धनुर्विद्या का प्रदर्शन किया तब राजकुल के नेताओं के पसीने छूट गए – ‘राजवंश के नेताओं पर पड़ी विपद अति भारी’. जनता अर्जुन के बजाए कर्ण के प्रदर्शन पर प्रसन्नता प्रकट करने लगी. इसके बाद कर्ण ने द्वंद्व-युद्ध के लिए राजपुत्र अर्जुन को ललकारा – ‘द्वंद्व-युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा’. राजकुल के नेता समझ गए थे कि कर्ण को पराजित कर पाना अर्जुन के वश की बात नहीं है. तब उन्होंने वक्र-बुद्धि का उपयोग किया. ज्ञान के प्रतीक कुलगुरु कृपाचार्य ने आगे बढ़कर कर्ण से कहा कि देखो, अर्जुन क्षत्रिय है, राजपुत्र है, जिस-तिस से नहीं लड़ सकता है. तुम्हें यदि द्वंद्व-युद्ध करना है तो पहले यह बताओ कि क्या तुम्हारी जाति अर्जुन से लड़ने की योग्यता रखती है?
“अर्जुन से यदि लड़ना हो मत गहो सभा में मौन
नाम, धाम कुछ कहो, बताओ? कि तुम जाति हो कौन?”
कर्ण की योग्यता को जाति में समेटने का कुचक्र सदन में उस दिन भी दिखाई पड़ा.
कहा जा रहा है कि राहुल भी तो अधिकारियों की जाति ही पूछ रहे थे! जाति के सवाल कई तरह से उठाए जा सकते हैं. मनुस्मृति भी जाति के सवालों पर अपने विचार रखती है और भारत का संविधान भी यह काम करता है. एक का लक्ष्य है जाति के प्रोटोकॉल को बनाए रखना और दूसरे का लक्ष्य है जाति के कारण होने वाले उत्पीड़नों से मुक्ति के प्रयास करना! ये दोनों ढंग एक तराजू पर नहीं तौले जा सकते.
राहुल गांधी चाहते हैं कि जाति-आधारित सामाजिक समूहों के प्रतिनिधित्व को आबादी में उनके प्रतिशत के हिसाब से हासिल करने का प्रयास किया जाए और अनुराग ठाकुर चाहते हैं कि जाति के नाम पर लज्जित करने की अपसंस्कृति को बनाए रखा जाए. अनुराग ठाकुर जन्म-आधारित पहचान को सामने रखकर सम्मानित और अपमानित किए जाने की पुरानी अपसंस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं. ब्राह्मण को सम्मान-योग्य और शूद्र को अपमान-योग्य मानने की अपसंस्कृति को भला अब कौन ठीक मानेगा.
यह कुतर्क कितना लचर है कि जाति-जनगणना की मांग उठाने वाले को पहले अपनी जाति की घोषणा करनी होगी. इतिहास गवाह है कि शोषित पीड़ित वंचित वर्गों के मुक्ति संग्राम में ऐसे बहुत लोग आए जिनका जन्म तो कुलीन परिवार में हुआ था, लेकिन उन्होंने अपनी कुलीनता का त्याग और अपने ख़ानदान से विद्रोह किया और शोषितों के मुक्ति संघर्ष में शामिल हुए.
बुद्ध भी राज परिवार में पैदा हुए थे. महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता कुलीन परिवार में जन्मे थे, लेकिन ज़रूरत पड़ने पर अपनी सुख सुविधाओं को लात मारकर स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े और संविधान में लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की स्थापना की. संविधान सभा के बहुत से सदस्य सवर्ण जातियों के पुरुष थे, लेकिन उन्होंने आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के लिए न्यायपूर्ण संविधान के निर्माण में डॉक्टर आंबेडकर को सहयोग और समर्थन दिया. इस तर्क से तो स्त्री के प्रश्न को केवल स्त्री उठाए, दलित के प्रश्न को केवल दलित! फिर तो दुनिया के तमाम मुक्ति-संग्राम दुर्व्याख्या के शिकार हो जाएंगे!
इस बीच प्रताप भानु मेहता का एक लेख पढ़ने को मिला जिसमें वे कहते हैं कि बजट बनाने में विभिन्न वर्गों से आए हुए अधिकारियों की मांग उठाने से सामाजिक न्याय की मुहिम कमज़ोर पड़ जाएगी. सामाजिक न्याय के सवालों को टालने की बौद्धिक कुशलता के अलावा यह कुछ नहीं है. लोकतंत्र की प्रक्रिया में जाति के सवालों की कठोरता से बचते रहने से भेदभाव खत्म नहीं होगा! हमें याद रखना चाहिए कि मंडल राजनीति की तीखी टकराहट ने भारतीय राजनीति को आज इस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि प्रत्येक पार्टी पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व को ध्यान में रख रही है. कमोबेश पिछड़ी जातियों के निर्वाचित सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है. यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि अगर, मंडल राजनीति न आई होती तो आज पिछड़ों का मौजूदा प्रतिनिधित्व इस संख्या तक नहीं पहुंचने पाता!
जिस-जिस दरवाजे को खटखटाया जाएगा वहां बदलाव की संभावना बनेगी, भले ही उसकी प्रक्रिया अप्रिय लगे. मंडल राजनीति की अप्रियता किसी से छिपी हुई नहीं है. बौद्धिक समाज ने प्रायः उस प्रक्रिया की आलोचना की, उसे स्तरहीन और सतही बताया. मगर यह सच है कि मंडल राजनीति के पहले और उसके बाद ऐसी कोई राजनीति खड़ी नहीं की जा सकी जो पिछड़ों को राजनीतिक मजबूती प्रदान करती हो. धर्म आधारित राजनीति करने और हिंदुत्व की बात करने वाली भाजपा को भी सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति के तहत पिछड़ों को अपनी ओर खींचना पड़ा. ऐसा किए बिना भाजपा आगे नहीं बढ़ सकती थी. मेहता जैसे कुलीनतंत्र के पक्षधर बुद्धिजीवी इस फर्क को समझ पाने में विफल हैं कि जहां एक ओर भाजपा मंडल को कमंडल में बदलने के लिए पूरा ज़ोर लगा रही है, वहीं दूसरी ओर राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी मण्डल को उसकी मूल दिशा सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन की ओर ले जाने की पूरी कोशिश कर रही है.
जाति के सवालों को ज़रूरी मानते हुए भी बजट के संदर्भ में इन्हें उठाए जाने को प्रताप भानु मेहता बौद्धिक दरिद्रता से जोड़ते हैं. वे मानते हैं कि इस रणनीति में ईमानदारी की कमी है. इसलिए राहुल गांधी के महत्त्व को स्वीकार करते हुए भी उनके जाति केंद्रित विचारों और उपायों की इस लेख में निंदा की है. याद किया जाना चाहिए कि भारत के बौद्धिक वर्ग ने दलितों-पिछड़ों के आरक्षण पर कभी भी अपनी स्पष्ट सहमति नहीं दी है और EWS के आरक्षण का कभी विरोध नहीं किया है. मेहता की दुविधा के मर्म को समझना मुश्किल नहीं है.
राहुल के विज़न में कोई धुंधलका कभी नहीं रहा है, लेकिन इधर उन्होंने सामाजिक न्याय के मुद्दे पर जो आक्रामक तेवर अपनाया है उससे वंचित तबके में उनके प्रति अभूतपूर्व आकर्षण पैदा हुआ है. भाजपा इस आकर्षण को किसी न किसी बहाने खत्म करना चाहती है. परंतु राहुल गांधी की भाषा और बात एकदम स्पष्ट है. उन्हें पता है कि जाति-आधारित सामाजिक परिवर्तन की पक्की राह राजनीति के भीतर से ही खुल पाएगी. यह एक कठोर राजनीति होगी, इसे बार-बार विवादों में फंसाया जाएगा, लेकिन अंत में यह सुफल देगा. वे जान चुके हैं कि अमृत के तमाम स्रोतों को दुर्बलों के लिए सुगम बनाना होगा. इन स्रोतों का एक अमृतकलश बज़ट है. सदन में बड़ी संख्या में बैठने के बावजूद बजट का कलश अभी दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों से कोसों दूर है. इसी तरह न जाने कितने स्रोत और मोर्चे ऐसे हैं जहां तक इन वर्गों की पहुंच अभी तक नहीं बन पाई है.
प्रताप भानु मेहता को लगता है कि जाति जनगणना और जातियों के समुचित प्रतिनिधित्व से जातिवादी स्तरहीनता बढ़ेगी! आदमी को सिर्फ़ जाति के आधार पर तौला जाएगा. लोकतंत्र के आगे बढ़ने का सुमार्ग तभी खुलेगा जब दुर्बल जातियां अधिकार-संपन्न होंगी. अधिकार-संपन्न होने पर ही दुर्बल जातियां सुविधा संपन्न हो पाएंगी. राहुल गांधी दुर्बल जातियों को अधिकार-संपन्न बनाने की गारंटी की तरफ बढ़ रहे हैं.
(लेखक कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं. उनका एक्स हैंडल @chandanjnu है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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