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Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतराहुल गाँधी की केवल महिला पत्रकारों से मुलाकात, समानता की लड़ाई को बुरी तरह से पछाड़ देती है

राहुल गाँधी की केवल महिला पत्रकारों से मुलाकात, समानता की लड़ाई को बुरी तरह से पछाड़ देती है

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एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर जिसने अपने करियर के शुरुआती साल खुद को एक महिला पत्रकार की जगह एक पत्रकार साबित करने की लड़ाई लड़ी है, मेरा मानना है कि पुराना समय वापस आ गया है। और यह कोई अच्छी बात नहीं

इंडियन वीमेंज़ प्रेस कोर्प्स, जोकि एक सम्मानित संस्था है और एक ऐसे पेशे में अलगाव को बढ़ावा दे रही है जहां इसकी कोई जगह नहीं, वह स्वयं एक बड़े संघर्ष के बीच घिर चुकी है। आखिर क्यों? इसका कारण कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ हुई उनकी एक बेहद गुप्त बातचीत को बताया जा रहा है जिसमें 50, या अन्य खबरों का भरोसा करें तो 100 महिला पत्रकारों ने भाग लिया। यह बातचीत इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित की गई थी।

कांग्रेस को तो गोपनीयता पसंद है ही, आश्चर्य की बात यह है कि महिला पत्रकारों को भी यह भा रही है।

विवाद इस बात को लेकर उठ रहा है कि आखिर किसे बुलाया गया और किसे नहीं? और इस चयनात्मक बातचीत के आयोजन में किसने मदद की? क्या यह आइडब्लूपीसी की मदद से हुआ? अगर हां तो यह आयोजन आइडब्लूपीसी के कार्यालय में क्यों नहीं हुआ और कुछ चुनिंदा लोगों को ही क्यों बुलाया गया? आखिर इस सूची का निर्माण किस हिसाब से हुआ?

या फिर इसके लिए कांग्रेस ज़िम्मेदार है? मेरी महिला सहकर्मियों के लिए यह मान लेना ज़्यादा आसान होगा पर कांग्रेस भी इसका श्रेय लेने को तैयार नहीं है। और तो और कुछ महानुभावों ने तो यह भी कहा कि यह आयोजन कांग्रेस का न होकर आइडब्लूपीसी का था। लेकिन संस्था की अध्यक्ष एवं कुछ अन्य पदाधिकारियों ने इसमें भाग नहीं लिया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि इसे आइडब्लूपीसी का आयोजन कैसे माना जा सकता है जब स्वयं आइडब्लूपीसी वहां उपस्थित नहीं थी? और भी कई सवाल उठते हैं।

लेकिन मानना होगा कि गोपनीयता का स्तर अद्भुत था। कहीं चूं तक की आवाज़ नहीं आयी थी वो तो कुछ महिला पत्रकारों को इस आयोजन का पता लगा जिसके बाद उन्होंने आइडब्लूपीसी को आड़े हाथों तो लिया ही, साथ ही वे आईआईसी भी जा पहुंचीं। मुझे आमंत्रित नहीं किया गया था अतः मैं कह नहीं सकती कि मामला क्या था। लेकिन यह भी सच है कि अलगाव का यह कांग्रेसी तरीका, चाहे वह “मुस्लिम बुद्धिजीवी” हों या “महिला पत्रकार”, हमेशा ही मेरी समझ से बाहर रहा है।

कांग्रेस बीट के पत्रकार गुस्से से आग बबूला हो रहे हैं और आखिर हों भी न क्यों, क्योंकि राहुल गांधी से बातचीत का यह मौका उन्हें नहीं दिया गया। क्यों? सीधी जवाब- उनमें से अधिकांश पुरुष पत्रकार हैं अतः वे न्यूनतम अर्हता नहीं रखते।

मैंने अपने कैरियर के शुरुआती दिन एक पत्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाने की लड़ाई लड़ी, न कि एक महिला पत्रकार होने की। ऐसे में लगता है कि फिरसे वही समय लौट आया है। और यह किसी के लिए अच्छा नहीं है। हमने उन संपादकों से लड़ाईयां मोल ली हैं जिन्होंने हमें एक कोने में धकेलकर केवल “महिलाओं” से संबंधित आयोजनों को कवर करने को कहा था। हमने कहा कि हमारे काम करने के घंटे पुरुषों के जैसे ही होंगे और हम भी वही असाइनमेंट करेंगे जो पुरुष करते हैं, चाहे कोई छोटा झगड़ा हो या बड़ी मारकाट। आखिर हम पत्रकार थीं, महिला पत्रकार नहीं। यह लड़ाई मुश्किल और कभी कभी तो बिल्कुल असंभव जान पड़ती थी पर हमने अपना रास्ता बनाया और एक ऐसा माहौल भी जहां हमारे काम की इज़्ज़त हो। हमें बराबरी चाहिए थी, चाहे अच्छी हो या बुरी।

मुझे याद है जब इंडियन एक्सप्रेस की डेस्क पर कुछ नए लोगों की भर्ती की जा रही थी। उनके काम पर आने के कुछ ही देर बाद हमारे संपादक बड़ी ही हैरान-परेशान हालत में रिपार्टरों वाले अनुभाग में पहुंचे। आखिर क्या करूँ मैं? एक महिला कहती है कि वह अख़बार के छापे जाने तक (सुबह के 2 बजे) नहीं जाग सकती। दूसरी अंधेरा होने के बाद सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल नहीं कर सकती। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि उन सब को नौकरी छोड़ने को कहा गया। इस कदम का हम सबने समर्थन किया क्योंकि हमने यह सुनिश्चित किया था कि हमारा काम इन सीमाओं की वजह से प्रभावित न हो।

इसी वजह से आइडब्लूपीसी के गठन के कई सालों बाद तक भी मैंने इसकी सदस्यता नहीं ली। (मैंने सदस्यता एक कमज़ोरी के क्षण में ली क्योंकि आइडब्लूपीसी की अधिकतर सदस्यायें या तो मेरी सहकर्मी थीं या मित्र और वे मेरा मज़ाक उड़ाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देतीं।)। हमें एक अलग संगठन की ज़रूरत क्यों है? क्या इसलिए कि प्रेस क्लब ऑफ इंडिया बस एक मिलने जुलने की जगह मात्र है? पर क्या हम चुनाव लड़कर उस जगह को बेहतर नहीं बना सकते? हमें लिंगभेद पर आधारित एक नया संगठन क्यों चाहिए अगर हम सब पत्रकार हैं? हम सारे सहकर्मी थे जो समान साहस, ईमानदारी एवं करुणा के साथ एक ही स्टोरी कवर कर रहे थे। आखिर हम स्वयं को किस बिना पर महिला पत्रकार के रूप में अलग किये जाने को सही ठहरा सकते हैं ?

जब गौरी लंकेश की हत्या होती है तो सारे पत्रकारों को साथ आना होगा। निश्चित ही उनकी हत्या महिलाओं का विषय नहीं है। जब शुजात बुखारी की हत्या होती है तब वह केवल पुरुष पत्रकारों का मामला नहीं होता।आखिर महिला पत्रकारों को विशिष्टता एवं अलगाव की क्या आवश्यकता है जब यह पत्रकारिता की आत्मा के खिलाफ जाता है?

आज सवेरे मैंने जया भादुड़ी को यह सवाल पूछते सुना कि आखिर सदन के पुरुष सदस्य महिलाओं पर हो रहे इन वीभत्स अत्याचारों के खिलाफ कुछ क्यों नहीं बोलते? क्या बलात्कार केवल महिलाओं का विषय है? हम पत्रकारों से उम्मीद रखते हैं कि वे “महिलाओं से संबंधित विषयों” पर समान कौशल के साथ रिपोर्टिंग करें, चाहे वे महिला हों या पुरुष। मैं नहीं मान सकती कि “महिलाएं अधिक संवेदनशील होती हैं”। क्योंकि अगर सच में ऐसा है तो पुरुषों को एक नया पेशा ढूंढ लेना चाहिए। और मैं बताती चलूं कि इस पेशे में बिताए अपने समय के दौरान मैंने अपने पुरुष और महिला सहकर्मियों, दोनों को ही इन मामलों में अच्छी रिपोर्टिंग करते देखा है।

और अगर इस दलील को इसकी तार्किक परिणति पर ले जाएं तो पुरुष हमेशा महिलाओं से बेहतर राजनैतिक संवाददाता बनेंगे क्योंकि उनकी पहुंच बेहतर है। या फिर केवल पुरुष ही लड़ाई झगड़ों पर रिपोर्टिंग कर पाएंगे। बकवास!

यह अलगाव दरअसल उन राजनैतिक दलों के लिए फायदेमंद है जो पहले से ही संकटों से घिरे इस पेशे में और फूट पैदा करना चाहते हैं। राहुल गांधी का महिला पत्रकारों से मिलना आकर्षक भले ही हो सकता है लेकिन एक समय था जब अलगाव पैदा करने की इन कोशिशों का विरोध स्वयं पत्रकार ही करते। यह दुखद है कि हम जानते समझते हुए ऐसा होने दे रहे हैं और एक बड़े समूह का हिस्सा बनने की बजाय एक विशिष्ट क्लब बनने की राह पर अग्रसर हैं।( शायद एक संभ्रांतवादी संस्था भी क्योंकि प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का दृष्टिकोण हमेशा से समानतावादी रहा है।)

यह लेख मूल रूप से द सिटिज़न में छपा था।

Read in English: By meeting only women journalists, Rahul turned clock back on equality & not in a good way

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