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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतराहुल ने अपनी ड्रीम टीम में युवा नेताओं की जगह अनुभवी चेहरों को दी तरजीह

राहुल ने अपनी ड्रीम टीम में युवा नेताओं की जगह अनुभवी चेहरों को दी तरजीह

राहुल गांधी ने चुनाव मेंं जीत दिलाने वाले और संभावनाओं से भरे युवा कांग्रेसी नेताओं को पार्टी में किनारे लगा दिया.

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आज से 33 साल पहले जून 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी यहां से सात समंदर पार अमेरिकी संसद में कहते हैं, ‘भारत एक पुराना राष्ट्र, लेकिन एक नया देश है. और हर जगह के युवाओं की तरह हम भी बेचैन हैं . मैं भी बेचैन हूं और मेरे भी कुछ सपने हैं’. उनके इस बात पर पूरा देश उनके लिए तालियां बजाता है.

अब आते हैं दिसंबर 2018 में. राजीव के बेटे और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी एक बार फिर से युवा राष्ट्र के सपनों के बारे में बात कर रहे हैं. लेकिन उनकी पुरानी पार्टी में अपने युवा साथियों के लिए उनके पास अलग संदेश है. वह संदेश है, ‘संयम और समय दो ताकतवर योद्धा हैं. ‘आज जब कमलनाथ मध्य प्रदेश के और अशोक गहलोत राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले रहे थे, तब दर्शक दीर्घा में वहां ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट भी थे. दो युवा नेता जिनके पास भी कुछ सपने थे. सिंधिया ने कमलनाथ का डिप्टी बनने का राहुल का ऑफर ठुकरा दिया जबकि सचिन पायलट ने बहुत मान-मनौव्वल के बाद यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया.


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पार्टी के संकटमोचकों द्वारा युवा नेताओं को यह प्रतिष्ठित पद नहीं दिए जाने के बहुत सारे स्पष्टीकरण दिए जाएंगे, लेकिन यह नाकाफी है. उदाहरण के तौर पर, यह कहना कि, चुंकि गहलोत एक संगठनात्मक व्यक्ति है इसलिए आगामी लोकसभा चुनाव को मद्देनज़र रखते हुए राजस्थान में उनकी मौजूदगी बहुत ज़रूरी है, तो यह सच्चाई से कोसों दूर है. वास्तव में उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री अपने पिछले दोनों कार्यकालों में संगठन को निष्क्रिय कर दिया था.

विपक्षी पार्टियों में खींचतान की कवायद उस षडयंत्र को लेकर चल रही है कि कमलनाथ और गहलोत के दावों ने आलाकमान को एक बहाना दे दिया. राहुल गांधी अपने समकालीनों को मुख्यमंत्री पद के लिए पदोन्नत नहीं कर सकते थे जब उनके राजनीतिक विरोधी गांधी के सरकार चलाने की अनुभवहीनता पर सवाल उठा रहे हैं.

जो भी हो, हालिया घटनाओं से राहुल गांधी द्वारा संगठन को जड़ से मजबूत करने की उम्मीदों को झटका ज़रूर लग सकता है. ऐसा इसलिए क्योंकि जिसने भी काम करके दिखाया या जिस किसी में संभावनाएं नज़र आ रही है, उन लोगों को किनारे कर दिया जा रहा हैं. अगर देखा जाए तो सचिन पायलट ने पांच साल राजस्थान में पार्टी को पुनर्जीवित करने में लगाए जबकि गहलोत केवल समय काट रहे थे और पूरा ध्यान पर्दे के पीछे की राजनीति करने में लगे थे.

सिंधिया को 2013 विधानसभा चुनाव के कुछ हफ्ते पहले ही चुनाव प्रचार कमेटी का कार्यभार सौंपा गया था. वह इतने कम समय में कोई जादू की छड़ी नहीं चला सकते थे. हालांकि, उन्होंने राज्यभर का भ्रमण करते हुए शिवराज सिंह चौहान सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. 2018 में एक बार फिर से सिंधिया को चुनाव प्रचार कमेटी का प्रमुख बनाया गया, लेकिन फिर से वह खाली हाथ रह गए. राहुल गांधी ने पांच साल पहले पूर्व यूथ कांग्रेस प्रमुख अशोक तंवर को हरियाणा कांग्रेस अध्यक्ष बनाया था. उनके नेतृत्व में पार्टी का संगठनात्मक ढांचा राज्य में ठंडा पड़ गया. वह तो पूर्व मुख्यमंत्री भुपिंदर सिंह हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र ने पिछले चार सालों से आंदोलनों और किसान रैलियों के सहारे पार्टी का झंडा ऊंचा किये रखा. गांधी ने उनको अबतक नहीं पहचाना है. आज तीन बार के रोहतक से सांसद दीपेंद्र एक भ्रमित नेता होंगे. जैसे-जैसे हरियाणा में उनका कद एक युवा नेता के तौर पर बढ़ता जा रहा है वह राहुल गांधी की राजनीति स्टाइल से दूर होते जा रहे हैं.


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पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे और पूर्व सांसद संदीप दीक्षित भी उतने ही भ्रमित होंगे. जिस समय उनकी मां शीला दीक्षित राष्ट्रीय राजनीति में अपने शबाब पर थी, उस समय वह राहुल गांधी के साथ मिलकर काम कर रहें थे. लंबे समय से पार्टी में कोई रोल नहीं मिलने के बाद, संदीप सामाजिक कार्य करने के लिए मध्य प्रदेश शिफ्ट हो गए, वह भी तब, जब उनके मां के पुराने आलोचक अजय माकन ही राहुल गांधी के दिशानिर्देश पर चलते हुए दिल्ली में पार्टी का पूरा कार्यभार संभाल रहे थे.
उत्तर प्रदेश में राजब्बर ने बतौर प्रदेश अध्यक्ष खराब प्रदर्शन किया था लेकिन गांधी की पसंद होने की वजह से वह बच गए. ऐसे में उत्तर प्रदेश से कांग्रेस दिग्गज जितेंद्र प्रसाद के बेटे और पूर्व केंद्रीय मंत्री जतीन प्रसाद अभी तक नहीं समझ पा रहे होंगे कि वह गांधी की नई विचारों वाली पार्टी में कहां जगह बना पाएंगे.

क्या राहुल गांधी अचानक से राजनीतिक विरासत संभाले युवा नेताओं से अलग हो गए हैं या फिर और कोई सुविधाजनक बात है? इसे आप बीजेपी के संदर्भ में समझ सकते हैं जो कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे स्वघोषित ‘कामदारों’ द्वारा चल रही है. उन्हें वंशवाद राजनीति का घोर विरोधी माना जाता है. इसलिए हिमाचल प्रदेश से तीन बार के सांसद अनुराग ठाकुर जैसे एक युवा और मुखर नेता अपने आप को हाशिए पर पाते हैं. 2011 में तत्कालीन भारतीय जनता युवा मोर्चा (भाजयुमो) के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर श्रीनगर में अपने विवादित तिरंगा मार्च के कारण हफ्तों तक सुर्खियों में बने रहें थे. बहुत से लोगों को लगा था कि अब वह आरएसएस और मोदी-शाह जोड़ी के खास बन जाएंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. और ऐसा उनके बीसीसीआई में हुई खटपट और उनको पिछले साल सुप्रीम कोर्ट द्वारा अध्यक्ष पद से हटाने के कारण नहीं हुआ था.

दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की बेटी और सांसद पूनम महाजन ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले आने से एक हफ्ते पहले ही भाजयुमो में उनकी जगह ले ली थी. हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर अब दिल्ली में चल रही नई गतिविधियों के बीच उतनी मौजूदगी नहीं दर्ज करा पा रहे हैं. इनके अलावा पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बेटे और तीन बार के भाजपा सांसद दुष्यंत सिंह लंबे समय से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं. उसी तरह भाजपा की केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के बेटे और भाजपा के एक बार के महासचिव वरुण गांधी वर्तमान समय में पार्टी से किनारे कर दिए गए हैं.

अब अपने मुख्य सवाल पर आते हैं कि सिंधिया और पायलट की वंशवाद की राजनीति कांग्रेस के ढांचे में बैठ क्यों नहीं पा रही है. हुडडा, दीक्षित और प्रसाद के जैसे अगर आप राहुल गांधी को देखें तो आपको इसका जवाब मिल जाएगा. क्या आप उन्हें एक अभाग्यशाली राजनीतिज्ञ की तरह देखते हैं जिसने अपनी निजी ज़िदगी को देश की भलाई के लिए दांव पर लगाया है? या आप उन्हें नेहरू-गांधी परिवार की तरह देखते हैं जो इस बात में विश्वास रखते हैं कि किसी भी नेता की लोकप्रियता उसके दरवाज़े से शुरू और खत्म होती है?

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