समाजवादी पार्टी उत्तरप्रदेश में अपने पिछले पांच साल के कार्यकाल में और उसके बाद भी ओबीसी तबकों के मुद्दों की अनदेखी करती आई है. सपा को लगता है कि ओबीसी तो हर हाल में उसके साथ आएंगे ही, इसलिए वह सारा जोर बाकी समुदायों खासकर सवर्णों को लुभाने में लगाती है. हालांकि 2014 के लोकसभा चुनावों में और फिर 2017 के उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में ऐसा हुआ नहीं. न ओबीसी पूरी तरह उसके साथ आए और न ही सवर्णों का वोट उसे मिला. भारी चुनावी असफलता साबित करती है कि ओबीसी तबका 2014 और 2017 में समाजवादी पार्टी से विमुख हुआ है. लेकिन लगता नहीं है कि सपा ने इससे कोई सबक सीखा है.
गठबंधन की गफलत में समाजवादी पार्टी
2017 के बाद ऐसा लगा था कि मजबूरी में ही सही, समाजवादी पार्टी और इसके नेता अखिलेश यादव ओबीसी की तरफ ध्यान देंगे और ओबीसी की तमाम जातियों को जोड़ने की खास कोशिश करेंगे, लेकिन सपा और बसपा के गठबंधन की संभावनाएं बनने के बाद से उनकी सोच फिर वहीं रुक गई लगती है.
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समाजवादी पार्टी ने मान लिया है कि अब बसपा से गठबंधन के बाद अब उसे अन्य किसी समीकरण पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है. इससे ओबीसी निराश है, जिसे उम्मीद थी कि अखिलेश यादव अब ओबीसी नेता बनने की तरफ बढ़ेंगे.
समाजवादी पार्टी इस बात को समझ ही नहीं रही है कि ओबीसी समुदाय के छिटकने जाने का खतरा उसके सामने खड़ा है. खासकर कुर्मी, लोधी, कुशवाहा जैसी बड़ी आबादी वाली ओबीसी जातियां और कुम्हार, तेली, बढ़ई, चौरसिया जैसी कम संख्या वाली ओबीसी जातियां तो अपने कथित प्रगतिशील बौद्धिक नेतृत्व के प्रयासों के बावजूद भी भाजपा की तरफ ही बढ़ती जा रही हैं.
ओबीसी के सुलगते मुद्दों पर मौन
ले-देकर एक यादव जाति ही सपा के खेमे में बचती है. लेकिन सवर्ण आरक्षण पर पार्टी के नेतृत्व की चुप्पी अब यादवों को भी मायूस कर रही है. यूनिवर्सिटी में नौकरियों से संबंधित 13 पॉइंट रोस्टर के मसले पर सपा बस रस्म अदायगी करती नजर आ रही है. समाजवादी पार्टी में मोटे तौर पर एकमात्र धर्मेंद्र यादव ही ऐसे नेता हैं जो पार्टी को ओबीसी की तरफ ले जाने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनकी अपनी सीमाएं हैं, आम ओबीसी की अपेक्षा अखिलेश यादव से ही रहती है कि वे कोई बड़ा जमीनी आंदोलन छेड़ें.
अखिलेश यादव के सामने तेजस्वी यादव की भी मिसाल है जो तमाम कठिनाइयां झेलते हुए भी ओबीसी मुद्दों पर मुखर होते हैं और लगातार मुखर रहते हैं. इसका आरजेडी को लाभ भी मिला है. आरजेडी अपने सबसे बुरे समय में भी आज बिहार विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी है.
समाजवादी पार्टी बसपा से गठबंधन के बाद इतनी आश्वस्त है कि वह भाजपा पर कोई तीखे हमले करने से बच रही है. जिन मुद्दों पर कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगातार घेर रही है, उन पर भी अखिलेश यादव महज औपचारिकता पूरी करते दिखते हैं. जाहिर है, कि उग्र भाजपा विरोध की उम्मीद करने वाले ओबीसी समुदाय को समाजवादी पार्टी से निराशा हो रही है.
ओबीसी सलाहकारों से बढ़ती दूरी
ओबीसी समुदाय से समाजवादी पार्टी के नेतृत्व की बढ़ती दूरी का एक कारण उनके निजी सलाहकारों और करीबी नेताओं में ओबीसी नेताओं और बुद्धिजीवियों के लिए जगह बहुत कम है. जो ओबीसी अखिलेश यादव के करीबी हैं भी, वो भी अपने नेता के रुझान को समझकर, कोई क्रांतिकारी या समझदारी वाला सुझाव देने से बचते हैं.
समाजवादी पार्टी यह समझने में भी अब तक नाकाम रही है कि जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने धीरे-धीरे कथित सोशल इंजीनियरिंग चलाकर, ओबीसी के बड़े तबके को अपनी तरफ मोड़ा है, और उसे भ्रमित कर ये समझाने में सफलता हासिल की है कि हर तरह के ओबीसी आंदोलन या आरक्षण का लाभ केवल एक-दो जातियां ही ले रही हैं, वैसा ही कुछ कांग्रेस करने जा रही है.
ओबीसी को लुभाने की कांग्रेसी कवायद से बेख़बर
कांग्रेस धीरे-धीरे ही सही, पर इस नतीजे पर पहुंच रही है कि उत्तर भारत में उसे ओबीसी कार्ड खेलना पड़ सकता है. कांग्रेस तो खासतौर पर उत्तरप्रदेश में बेहद असर डाल सकने वाला कदम उठाते हुए, ओबीसी के आरक्षण को आबादी के अनुपात में यानी 52 प्रतिशत कराने के वादे को भी अपने घोषणा पत्र में शामिल करने पर गंभीरता से विचार कर रही है.
इस मामले में कांग्रेस अब काफी चतुराई दिखा रही है. पहले राहुल गांधी ने अपने को बार-बार ब्राह्मण बताकर, मंदिर-मंदिर जाकर और जनेऊ दिखाकर ब्राह्मणों और सवर्णों को आश्वस्त करने में काफी हद तक सफलता पाई, और अब वे ओबीसी को लुभाने के लिए ऐसा क्रांतिकारी कदम उठाने पर विचार कर रहे हैं जो ओबीसी राजनीति की दिशा ही बदल सकता है.
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मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का विरोध करने वाली कांग्रेस ने अपने शासन में कई राज्यों में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण तक देना जरूरी नहीं समझा, लेकिन अब बदले दौर में वह अगर ओबीसी आरक्षण को 52 प्रतिशत करने का वादा करती है, तो उसके पिछले कई पाप धुल सकते हैं. इस सबका सबसे ज्यादा असर समाजवादी पार्टी की राजनीति पर ही पड़ेगा.
वास्तव में कांग्रेस उत्तरप्रदेश में बड़ा कारनामा कर भी सकती थी, बशर्ते उसके पास कार्यकर्ताओं का एकदम टोटा न पड़ गया होता. यही कारण है कि उसने संगठनात्मक कमी के नुकसान से बचते हुए, भीड़ जुटाने के लिए प्रियंका की राजनीति में सक्रिय करने का ऐलान किया है ताकि ओबीसी आरक्षण बढ़ाने के वादे से ओबीसी समुदाय की संभावित प्रसन्नता को सीधे वोटों में तब्दील किया जा सके.
ओबीसी विरोध का पुराना इतिहास
समाजवादी पार्टी को अखिलेश यादव की यह सोच बहुत भारी पड़ सकती है कि अपने कथित निर्माण कार्यों का गुणगान करके वे सवर्ण मतदाताओं के वोट पा सकते हैं. यही कारण है कि सिद्धार्थ यूनिवर्सिटी में ओबीसी को कोई भी आरक्षण न मिलने पर वे मुख्यमंत्री रहते हुए भी चुप रहे. त्रिस्तरीय आरक्षण पर वे बिलकुल सवर्णवादी पार्टी की तरह पेश आए और प्रमोशन में आरक्षण का बिल उनके ही सांसद ने सदन में फाड़ देने का कारनामा कर दिखाया.
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देखा जाए, तो अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के ओबीसी विरोध के कामों की फेहरिस्त काफी लंबी हो चुकी है, लेकिन खुद ओबीसी होने के फायदा उन्हें इतना मिलता रहा है कि अब भी समाजवादी पार्टी को ओबीसी समर्थक पार्टी माना जाता है. देखने की बात यह है कि इस सोच और इसमें निहित फायदा समाजवादी पार्टी को कब तक मिलता रह सकता है.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं.)