scorecardresearch
Tuesday, 4 November, 2025
होममत-विमतSIR को लेकर राहुल गांधी के आरोप बेबुनियाद, वोटर्स को ‘डिलीट’ करने का कोई जादुई क्लिक नहीं

SIR को लेकर राहुल गांधी के आरोप बेबुनियाद, वोटर्स को ‘डिलीट’ करने का कोई जादुई क्लिक नहीं

विपक्ष चाहे जितनी बयानबाज़ी कर ले, भारत के लोगों का भरोसा न सिर्फ सिस्टम पर है, बल्कि मतदाताओं की समझ पर भी है.

Text Size:

विपक्ष चाहे जितनी बयानबाज़ी कर ले, भारत के लोगों का भरोसा न सिर्फ सिस्टम पर है, बल्कि मतदाताओं की समझ पर भी है.बिहार चुनाव प्रचार ज़ोरों पर है और भारत में चुनावों के दौरान जो नाटक, राजनीति और ड्रामा होता है, उसमें हर हफ्ते विपक्ष को उत्साहित करने के लिए कोई न कोई नया मुद्दा मिल ही जाता है. इस बार चर्चा का केंद्र बना है SIR — यानी Special Intensive Revision of Electoral Rolls (मतदाता सूची की विशेष गहन समीक्षा), जिसका दूसरा चरण भारत निर्वाचन आयोग जल्द ही कई राज्यों में शुरू करने वाला है.

SIR के तहत अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश, पुडुचेरी, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में मतदाता सूची की जांच और संशोधन किया जाएगा. इन 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से चार में अगले साल चुनाव होने हैं और संभावना है कि इस प्रक्रिया को लेकर भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ एक भ्रामक नैरेटिव गढ़ा जाएगा.

लेकिन सवाल यह है — क्या विपक्ष के आरोपों में कोई सच्चाई है?

SIR क्या है?

भारत निर्वाचन आयोग के अनुसार, SIR का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी योग्य नागरिक मतदाता सूची से छूट न जाए और कोई भी अयोग्य व्यक्ति उसमें शामिल न हो. इसके तहत घर-घर जाकर मौजूदा मतदाता सूचियों की दोबारा जांच की जाती है और ज़रूरत पड़ने पर नई मतदाता सूची तैयार की जाती है.

प्रक्रिया का मुख्य मकसद असली योग्य मतदाताओं की पहचान करना और उन लोगों के नाम हटाना होता है जो मृत्यु, विवाह, स्थानांतरण (माइग्रेशन) या अन्य कारणों से अब सूची में नहीं होने चाहिए. इस तरह की समीक्षा आमतौर पर बड़े चुनावों से पहले या निर्वाचन क्षेत्र डिलिमेटेशन जैसे प्रशासनिक कार्यों के दौरान की जाती है.

मतदाता सूचियों की नियमित सफाई और संशोधन बहुत ज़रूरी है ताकि चुनाव प्रक्रिया में विश्वास और पारदर्शिता बनी रहे. इसे आप एक तरह का ऑडिट समझ सकते हैं — जैसे हर उद्योग में काम की गुणवत्ता और कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए नियमित ऑडिट किया जाता है, वैसे ही मतदाता सूचियों का अपडेट रहना भी उतना ही ज़रूरी है.

भारत जैसे बड़े और लगातार बदलते जनसंख्या वाले देश में, हज़ारों नाम मृत्यु, स्थानांतरण या डुप्लिकेशन के कारण भी सूचियों में बने रह जाते हैं. इससे न सिर्फ प्रतिनिधित्व में गड़बड़ी होती है, बल्कि संसाधनों का गलत इस्तेमाल और कभी-कभी धोखाधड़ी की संभावना भी बढ़ जाती है.

डुप्लिकेट नामों की समस्या आम है — बहुत से लोग बड़े शहरों में जाकर वहां वोटर कार्ड बनवा लेते हैं, लेकिन अपने गांव या मूल स्थान की मतदाता सूची में नाम नहीं कटवाते.

कई बार लोग विदेश चले जाते हैं, वहां की नागरिकता भी ले लेते हैं, लेकिन उनके नाम अब भी भारत की मतदाता सूची में दर्ज रहते हैं। मेरे अपने क्षेत्र में बूथ लेवल ऑफिसर्स (BLOs) ने देखा कि ऐसे कई लोग सालों पहले यहां से जा चुके थे, लेकिन उनके नाम अब भी सूची में थे — इससे मतदान प्रतिशत की सटीकता और संसाधनों का सही इस्तेमाल प्रभावित होता है. आखिरकार, मृत लोग तो वोट देने वापस नहीं आ सकते.

Ctrl + Alt + Del

मतदाता सूची से किसी नाम को हटाना कोई कीबोर्ड पर एक क्लिक जितना आसान काम नहीं है — यह एक लंबी और तय प्रक्रिया होती है.

सबसे पहले फील्ड ऑफिसर या बूथ लेवल ऑफिसर मतदाता सूची लेकर हर घर का दौरा करता है ताकि यह जांच सके कि व्यक्ति उस पते पर रहता है या नहीं और उसकी जानकारी सही है या नहीं. इसके बाद एक ड्राफ्ट रोल (प्रारंभिक सूची) जारी की जाती है, जिसमें लोग अपने नाम की गलतियाँ या गायब एंट्री देख सकते हैं.

अगर किसी को लगता है कि किसी नाम को हटाया जाना चाहिए (जैसे मृत्यु, स्थानांतरण या नाम की डुप्लिकेशन के कारण), तो कोई भी नागरिक फॉर्म 7 (Application for Deletion/Objection) भर सकता है. इस पर इलेक्शन रजिस्ट्रेशन ऑफिसर (ERO) संबंधित मतदाता को नोटिस भेजता है और जवाब देने का मौका देता है.

केवल जांच के बाद, अगर आपत्ति सही पाई जाती है और संतोषजनक जवाब नहीं मिलता, तब जाकर नाम हटाने का आदेश दिया जाता है. इसके बाद नई संशोधित मतदाता सूची सार्वजनिक रूप से और नेशनल वोटर्स सर्विस पोर्टल पर ऑनलाइन जारी की जाती है.

विपक्ष का यह आरोप कि बीजेपी इस प्रक्रिया का इस्तेमाल असली वोटरों को हटाने के लिए करेगी — न तो तार्किक है और न ही समझदारी भरा. असल में, यह अपने फर्जी वोट बैंक को बचाने की कोशिश और पाखंड व तुष्टिकरण राजनीति का हिस्सा है.

एक असली मतदाता के लिए यह बहुत आसान है कि वह नेशनल वोटर्स सर्विस पोर्टल पर लॉगिन करके जांच ले कि उसका नाम सूची में है या नहीं. दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत अपने वोट के अधिकार की रक्षा करना हर नागरिक की जिम्मेदारी है.

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के एक सर्वे के मुताबिक, भारत के 85.5% परिवारों के पास स्मार्टफोन की सुविधा है. यानी जिन लोगों को अपने मतदान अधिकार की चिंता है, उनके पास अपनी जानकारी जांचने का साधन भी मौजूद है. इसलिए विपक्ष का यह तर्क कि SIR का गलत इस्तेमाल हो सकता है, पूरी तरह कमजोर साबित होता है.

दूसरी ओर, लंबे समय से यह बहस चल रही है कि कांग्रेस ने बांग्लादेशी और रोहिंग्या प्रवासियों को बसाकर चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की कोशिश की है. 1990 के दशक के आखिर में मदनलाल खुराना ने भी बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे को उठाया था, जो बाद में एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन गया था.

आधार से लिंक

आधार को जब एक राष्ट्रीय पहचान पत्र के रूप में कल्पना किया गया था, तो यह एक दूरदर्शी कदम था, लेकिन वक्त के साथ यह एक पूरी तरह भरोसेमंद दस्तावेज़ नहीं रह गया और नागरिकता के प्रमाण के रूप में इसकी अहमियत भी कम हो गई. आज कई ऐसे लोग — जैसे एनआरआई और ओसीआई कार्डधारक — भी हैं जिनके पास आधार कार्ड है, जबकि वे भारत के नागरिक नहीं हैं.

इसीलिए बीजेपी का रुख साफ है — SIR से आधार को लिंक करना सिर्फ पहचान की पुष्टि के लिए स्वीकार्य है, यह न तो मतदाता पंजीकरण का शॉर्टकट है और न ही नागरिकता का सबूत.

आधार की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह फर्जी पहचान को रोकता है, क्योंकि इसमें बायोमेट्रिक डेटा (फिंगरप्रिंट और आंखों का स्कैन) जुड़ा होता है — और बायोमेट्रिक्स झूठ नहीं बोल सकते.

आधार की ताकत का एक बेहतरीन उदाहरण एक परिचित के साथ हुआ. उन्होंने दिल्ली में ड्राइविंग लाइसेंस का टेस्ट दिया लेकिन सेंसर-बेस्ड ऑटोमेटेड टेस्ट में फेल हो गईं. फिर उन्होंने सोचा कि एक महीने का इंतज़ार करने की बजाय उत्तराखंड जाकर नया लाइसेंस बनवा लें, लेकिन जब उन्होंने वहां आवेदन करने की कोशिश की, तो आधार ऑथेंटिकेशन और बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन के कारण सिस्टम ने आवेदन अस्वीकार कर दिया — क्योंकि उनकी पहचान पहले से दर्ज थी. यही है आधार की असली खूबसूरती — यह फर्जी आईडी और डुप्लिकेट पंजीकरण की परतें हटा देता है, जिससे फर्जी मतदाताओं और दोहरी वोटिंग की संभावना खत्म हो जाती है.

विपक्ष चाहे जितनी भी बयानबाज़ी कर ले, भारत के लोग इस प्रक्रिया पर भरोसा करते हैं — उन्हें न सिर्फ सिस्टम पर बल्कि मतदाताओं की समझदारी पर भी पूरा विश्वास है.

यह पूरा ऑडिट संविधान के तहत “Representation of the People Act” में अनिवार्य किया गया है. यानी यह सरकार की कानूनी जिम्मेदारी है जिसे लागू करना ज़रूरी है. फर्जी प्रचार मुहिमें चलाकर विपक्ष अपनी ही विश्वसनीयता कम करता है.

मतदाता सूचियों की जांच और सुधार लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और वैधता को और मजबूत बनाता है — “एक नागरिक, एक वोट” के सिद्धांत पर आधारित, बिना किसी धोखाधड़ी के चुनाव प्रणाली को सुनिश्चित करता है.

इसलिए कांग्रेस नेता राहुल गांधी जैसे लोगों को गैर-जिम्मेदाराना बयानबाज़ी बंद करनी चाहिए. उन्होंने हाल ही में एक एक्स पोस्ट में लिखा, “बिहार में चुनाव आयोग रंगे हाथ वोट चुराते पकड़ा गया.”

यह बयान दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में विपक्ष के नेता को शोभा नहीं देता.

(मीनाक्षी लेखी भाजपा की नेत्री, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उनका एक्स हैंडल @M_Lekhi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें:


 

share & View comments