शिवाजी के बारे में एक कहानी मशहूर है कि कैसे रणनीति विचारने का एक पाठ उन्हें एक बुजुर्ग महिला ने सिखाया. सैन्य-अभियानों में लगातार मिलती नाकामी के बाद जंगल में भटकते हुए शिवाजी एक बुजुर्ग महिला के दरवाजे पर रूके कि भूख मिटाने के लिए कुछ खाने को मांग लूं. बुजुर्ग महिला शिवाजी को पहचान नहीं पायी.
उसने शिवाजी को गर्म खिचड़ी की थाली परोसी और देखा कि अतिथि तो थाली के बीचो-बीच से खाने की कोशिश कर रहा है और इस चक्कर में उसकी अंगुलियां जल रही हैं. ऐसा देख उस बुजुर्ग महिला ने कहा : “ नौजवान सिपाही, तुम अपने राजा ही के जैसे हो जो शत्रु-प्रदेश के केंद्र पर हमले की कोशिश करता है और ऐसा करने के चक्कर में हर बार नाकाम होता है. तुम किनारे-किनारे से क्यों नहीं खा रहे और ऐसा करते हुए फिर बीच में आ जाओ?” शिवाजी ने खिचड़ी के साथ ऐसा ही किया और बाद के अपने सैन्य-अभियानों में भी यही तरकीब अपनायी. इसके बाद जो हुआ वह तो आप जानते ही हैं.
क्या राहुल की भारत जोड़ो न्याय यात्रा उसी सलाह पर चलने और पहले सीमांत हिस्सों को जीतने की कोशिश है? यात्रा में पहले-पहल मणिपुर में शामिल होते वक्त मुझे ऐसा ही जान पड़ा. हालांकि राजनीति के पंडितों ने पूर्वोत्तर के राज्यों से, जहां चुनावी लड़ाई के लिहाज से दांव पर बहुत कम सीटें लगी हैं, यात्रा शुरू करने के फैसले पर सवाल उठाये हैं लेकिन राहुल गांधी का जोर इसी बात पर था कि हमें यात्रा की शुरूआत पूर्वोत्तर से करनी चाहिए, वह भी मणिपुर से. यह एक जोखिम भरा फैसला था, अपनी सलामती के लिहाजी से भी और सियासी एतबार से भी.
मणिपुर लगातार उबाल पर है और ऐसे माहौल में यात्रा बड़ी आसानी से ढंके-छिपे या फिर खुले-आम घूम रहे किसी भी उग्रवादी समूह का निशाना बन सकती थी. इसके अतिरिक्त पूर्वोत्तर में एक दशक पहले तक कांग्रेस जिस दशा में थी आज की तारीख में उसकी परछाई जितनी भी नहीं है. कांग्रेस यह भरोसा नहीं पाल सकती थी कि पूर्वोत्तर में पार्टी-संगठन यात्रा के लिए लोगों की भीड़ जुटा ही देगा.
दरअसल, राहुल गांधी के लिए यह सारा कुछ, एक नैतिक और विचारधाराई मुद्दा था. आप अगर न्याय-यात्रा पर निकले हैं तो भारत के उस राज्य को भला कैसे छोड़ सकते हैं जो राजनीतिक अन्याय के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है—एक ऐसे दौर से जब भारत की राजसत्ता मूक दर्शक बनी चुपचाप एक राज्य को लगभग गृहयुद्ध की सी हालत में झुलसता देख रही है जबकि यह आग खुद उसी की सुलगायी और भड़कायी हुई है.
लोगों ने इस यात्रा के प्रति जो उत्साह दिखाया उससे जाहिर हो गया कि पूर्वोत्तर से भारत जोड़ो न्याय यात्रा शुरू करने का जोखिम उठाना सही था. नोएडा से चलने वाले तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया चैनलों को मैं आजकल संक्षेप में ‘नेशनल मीडिया’ यानी राष्ट्रीय मीडिया कहता हूं और नोएडा के इन मीडिया चैनलों ने चूंकि न्याय-यात्रा की खबरों को न दिखाने-बताने की एक तरह से सौगंध सी उठा रखी है सो आप यू-ट्यूब पर जाकर अपनी आंखों से देख सकते हैं कि आम जन किस भारी तादाद में राहुल गांधी के स्वागत को उमड़े चले आ रहे हैं.
मैं वह दृश्य तो भूल ही नहीं सकता जब यात्रा सेनापति जिले के कुकी बहुल इलाके में पहुंची. बीते कुछ माह में सबसे ज्यादा हिंसा की चपेट में आये इलाकों में एक है सेनापति जिला. इसमें कोई शक नहीं कि एक दिन पहले मैतेई इलाके में भी लोगों ने यात्रा का जबर्दस्त स्वागत किया था लेकिन सेनापति जिले में यात्रा के प्रति लोगों में जो उत्साह था वह अभूतपूर्व कहा जायेगा, जीवन में ऐसा अवसर शायद कभी-कभार ही देखने को मिलता है.
यात्रा जिस राह से होकर गुजर रही थी उसके आस-पास के तमाम गांवों के लगभग सभी जन सड़क के किनारे आ जमे थे, उनकी आंखों में उम्मीद से जगमगाते आंसू थे और ये सभी लोग भारतीय राजसत्ता से अपने नेह-नाते की गांठ बांधने को जैसे आतुर थे. महिलाएं यात्रा-बस में बैठकर आयीं और उन्होंने अपना हृदय इस यात्रा पर जैसे न्यौछावर कर दिया. बच्चे हाथ में पोस्टर लिये खड़े थे.
सामाजिक कार्यकर्ता अपने हाथ में तख्ती उठाये जता रहे थे कि हिंसा का इस इलाके पर क्या दीर्घकालिक असर हुआ है. समुदाय के नेताओं ने अपनी मांगें मुखर कीं. माहौल में दुख, कड़वाहट और गुस्से का भाव घुला हुआ था लेकिन उस माहौल में किसी दीप-शिखा की तरह उम्मीद की यह लौ भी जगमगा रही थी कि राहुल गांधी लोगों के मन पर लगे घावों को भर सकते हैं. मेरे लिए यह लम्हा राष्ट्रीय एकता का लम्हा था.
नगालैंड के अनुभव से जाहिर हो गया कि यात्रा के प्रति लोगों का उत्साह-भाव पुआल के आग जैसा नहीं जो एक बार धधककर बुझ जाये. हमलोग यात्रा के क्रम में मुख्य जत्थे से कुछ आगे चल रहे थे और इस क्रम में वोखा नाम के एक कस्बे में पहुंचे.
वहां राहुल गांधी की प्रतीक्षा कर रहे लोगों से हमने बातचीत शुरू की. चाय-दुकान वाले ने इसरार किया कि आप हमारी तरफ बनने वाली आलू-पूड़ी (भटूरे और पूड़ी का मिलवां रूप) चखकर जायें और उसने हमसे इस आलू-पूड़ी के पैसे लेने से इनकार कर दिया. महिलाएं अपने बच्चों के साथ एक घंटे से इंतजार में खड़ी थीं कि राहुल गांधी की एक झलक मिल जाये.
कस्बे का हर कोई या तो सड़क पर निकल आया या फिर अपने घर की छत पर जैसा कि देश में बाकी जगहों पर होता है. माहौल कुछ ऐसा था कि पल भर को कोई भी भूल जाये कि यह नगालैंड है जहां भारतीय राजसत्ता के विरूद्ध बगावत की पहली चिंगारी फूटी थी, एक ऐसी जगह है जहां आगन्तुकों से आज भी कोई पूछ लेता है कि ‘क्या तुम इंडिया से आये हो’ और जहां उग्रवादी समूहों की पकड़ आज भी बनी हुई है.
नगालैंड में यात्रा के प्रति लोगों में उमड़े उत्साह को देख आप शायद यह याद ही न कर पायें कि सूबे की 40 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस पार्टी का एक भी विधायक नहीं है. यह असंगति अरूणाचल प्रदेश और मेघालय में कुछ कम जान पड़ी जहां कांग्रेस पार्टी आज भी अहमियत रखती है लेकिन इन दोनों राज्यों में भी लोगों ने न्याय-यात्रा के प्रति जो उत्साह दिखाया वह इन राज्यों में कांग्रेस पार्टी के संगठन-बल और चुनाव-बल की तुलना में कहीं ज्यादा था.
मुझे याद है पिछली बार भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कन्याकुमारी में ठट्ट के ठट्ट लोग यात्रा में उमड़ आये थे और कश्मीर घाटी में हृदय को द्रवित कर देने वाले ऐसे कई दृश्य देखने को मिलने थे.
भारत जोड़ो यात्रा की शुरूआत देश के सीमान्त इलाके से ही होनी चाहिए और ऐसा इसलिए भी कि देश की परिधि के इन इलाकों में लोगों में कांग्रेस के प्रति सद्भावना कायम है, साथ ही सीमान्त के लोगों के साथ राहुल गांधी का भावनात्मक लगाव भी है.
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सीमान्त या मुख्यधारा
सीमान्त के इस रूपक ने एक अलग ही अर्थ देना शुरू किया जब हमलोग यात्रा के दौरान असम और इसके बाद उस इलाके में पहुंचे जिसे भारत के भूगोल में ‘चिकेन नेक’ कहकर इंगित किया जाता है. पहली यात्रा होने के नाते इसका जुड़ाव उन लोगों से खास था जो सामाजिक रूप से हाशिए पर हैं.
और, यहां बात सिर्फ धार्मिक अल्पसंख्यकों की नहीं हो रही. बेशक राहुल गांधी का मुस्लिम धर्मावलंबियों से सहज जुड़ाव है हालांकि वे इस समुदाय को सांकेतिक तौर पर रिझाने-बुझाने की कोई दिखावटी कोशिश नहीं करते. बीजेपी के फैलाये प्रोपगैंडा के विपरीत, यात्रा का मार्ग तैयार करते वक्त इस बात पर कोई विशेष जोर नहीं रहा कि यात्रा खास तौर पर मुस्लिम-बहुल इलाकों से होकर गुजरे.
किशनगंज और मालदा जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों से यात्रा के गुजरने की वजह ये रही कि इन जगहों से कांग्रेस के सांसद चुनकर आये हैं. यात्रा में न तो दरगाहों पर मत्था टेकने की रोजमर्रा की कोई रिवायत निभाने जैसी बात शामिल है और न ही इसमें पिछलग्गू के तौर पर दाढ़ीवाले मुल्ले-मौलवी ही शामिल हैं.
यात्रा के दौरान अपने भाषणों में राहुल गांधी शेर-ओ-शायरी का भी सहारा नहीं लेते जैसा कि आम चलन है. हां, सामान्य तौर पर नमस्ते बोलकर अपने सुनने वालों का अभिवादन जरूर करते हैं. इसके बावजूद आम मुसलमान इस बात को भांप सकता है कि राहुल गांधी समान नागरिक अधिकारों के पैरोकार हैं और आरएसएस-बीजेपी से लड़ने में परंपरागत सेकुलर नेताओं की तुलना में राहुल गांधी पर कहीं ज्यादा भरोसा किया जा सकता है.
यात्रा में मुस्लिम जन बड़ी तादाद में पहुंचते हैं, राहुल गांधी की कही हुई एक-एक बात को गौर से सुनते हैं, कहने के क्रम में जो बातें अनकहीं रह गईं उसके भी मायने निकालने की कोशिश करते हैं. उन्हें देखने से लगता है कि अगर राहुल गांधी की पार्टी का उम्मीदवार चुनावी लड़ाई में दमदार जान पड़ा तो वे निश्चित ही उसकी हिमायत करेंगे.
यह न्याय-यात्रा मुख्य रूप से उन लोगों को ध्यान में रखकर चलायी जा रही है जो सामाजिक सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर हैं, वे लोग जो सामाजिक पिरामिड के सबसे निचले तले पर रहते हैं. आदिवासियों, दलित-जन तथा मेहनत-मजदूरी के सहारे जीवन चलाने वाले लोगों के साथ राहुल गांधी का सहज जुड़ाव होना यात्रा में मददगार है.
आदिवासियों के साथ राहुल गांधी का स्वाभाविक जुड़ाव बीजेपी की तरफ से सरपरस्ती के भाव से चलायी जा रही ‘वनवासी’ केंद्रित राजनीति की काट है. भारत के सुविधा-सम्पन्न तबके की जातिगत-संरचना को लेकर राहुल गांधी जो बार-बार सवाल उठाते हैं वह भले ही आम दलित तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के आम आदमी तक अभी न पहुंचा हो लेकिन जहां तक ओबीसी, दलित अथवा आदिवासी मुद्दों पर सक्रिय कार्यकर्ताओं की बात है—उन पर राहुल गांधी का यह सवाल उठाना किसी जादुई मंत्र की तरह काम करता है.
असम में चाय-बागानों के मजदूरों तथा नाविकों के साथ, पश्चिम बंगाल में मनरेगा के मजदूरों के साथ, बिहार में किसानों और झारखंड में छोटे-मोटे कोयला-विक्रेताओं के साथ हुई राहुल गांधी की बैठक से वह अन्तर साफ जाहिर हो जाता है जो लोगों को ‘लाभार्थी’ बनाने के नीयत से होने वाली राजनीति और लोगों को गरिमा तथा अधिकार-सम्पन्न नागरिक बनाने के सोच से होने वाली राजनीति के बीच हुआ करता है.
यह कहना तो मुश्किल है कि इन सारी कोशिशों का अगले कुछ हफ्तों में कोई चुनावी फायदा होगा या नहीं लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि ये सारी कोशिशें वर्चस्व-रोधी उस राजनीति की बुनियादी ईंट हैं जिसकी देश को अभी सबसे ज्यादा जरूरत है.
हार्डकोर राजनीति-प्रेमियों को शायद ये बातें प्रभावित न करें—ऐसे राजनीति-जीवी आपसे पूछ सकते हैं कि ये सारी बातें तो ठीक हैं लेकिन मुख्यधारा की उस असल की राजनीति के बारे में क्या? क्या हाशिए के लोगों की राजनीति स्वयं भी हाशिए की राजनीति नहीं है?
इस राजनीति के सहारे बीजेपी को संसद और सड़क पर कैसे टक्कर दी जा सकेगी, बीजेपी ने धन-बल, मीडिया-बल, संगठन-बल और रणनीतिक चतुराई का अपने पक्ष में जो घातक मेल तैयार किया है, उसकी काट ऐसी राजनीति से कैसे हो सकती है?
सवाल के इस नज़रिए से देखें तो पता चलेगा कि हाशिए की राजनीति ही दरअसल भारत में मुख्यधारा की राजनीति है. अमेरिका के अश्वेत या फिर अन्य नस्लीय अल्पसंख्यकों के विपरीत भारत के आदिवासी, अन्य पिछड़ा वर्ग तथा धार्मिक अल्पसंख्यक एक साथ मिलकर बहुसंख्यक हैं.
अगड़ी जाति के हिन्दुओं की तादाद बहुत कम है. अगर यहां हम यूरोप में चलने वाली कामगार तबके की राजनीति से मेल बैठायें तो भी बात नहीं बनेगी क्योंकि आर्थिक पिरामिड के सबसे निचले तल्ले पर जीने वाले लोगों की तादाद भारत की आबादी में तीन चौथाई है.
भारत का तथाकथित मध्य-वर्ग जो दरअसल भारत के सत्ताधारी तबके का ही छद्मनाम है, अपने संख्याबल में बड़ा नहीं है बल्कि भारतीय समाज की सबसे ऊपर की एक महीन परत भर है. अगर आप भारतीय समाज को एक थाली मानें तो कहना होगा कि ज्यादातर खिचड़ी इस थाली के किनारे की ओर पसरी है. भारत में हाशिए की राजनीति ही मुख्यधारा की राजनीति है. यहां मुख्यधारा हाशिए पर होकर बहती है.
(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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