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Monday, 4 November, 2024
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भारतीय समाज ‘पुरुष प्रधान’ है, पीएम मोदी का नेहरू सरनेम वाला बयान गलत

कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार प्रधानमंत्री मोदी का पसंदीदा विषय है. जब भी वह किसी मुश्किल में फंसे होते हैं तो नेहरू की गलतियां और गांधी परिवार के परिवारवाद का सहारा लेकर निकलने की कोशिश करते हैं.

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संसद में राहुल गांधी द्वारा गौतम अडाणी-हिंडनबर्ग मामले पर उठाए गए सवालों के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में राहुल गांधी पर पलटवार किया. देश के लोग उनसे अपेक्षा कर रहे थे कि वह अडाणी मुद्दे और सरकारी बैंकों को अडाणी की कंपनी में निवेश करने के कारण हुए नुकसान पर बोलेंगे, लेकिन इन सवालों का जवाब देने के बजाय उन्होंने पंडित नेहरू का एक नया मुद्दा खड़ा कर दिया और उसके माध्यम से गांधी परिवार पर हमला बोला.

9 फरवरी को संसद में दिए अपने लंबे-चौड़े भाषण में पीएम मोदी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू का जिक्र कर कहा, “अगर नेहरु इतने ही महान थे तो उनकी अपनी पीढ़ी का कोई व्यक्ति नेहरू सरनेम रखने से डरता क्यों है? नेहरू सरनेम रखने में उन्हें क्या शर्मिंदगी है?” भले ही प्रधानमंत्री ने अडाणी मुद्दे से देश का ध्यान भटकाने के लिए ऐसा बोला लेकिन गौर से देखने पर यह मामला भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति से जुड़ा है.

सरनेम भारतीय समाज के पितृसत्तात्मक होने का प्रतीक….

भारतीय समाज के रीति-रिवाजों के अनुसार लोग अपने पिता के सरनेम को अपने नाम के साथ लगाते हैं. यह सरनेम भारतीय समाज के पितृसत्तात्मक होने या यूं कहें कि पुरुषवादी वर्चस्व को दर्शाता है. यही कारण है कि भारत में खासकर उत्तर भारत में लोग बेटा को ही अपना असली संतान मानते हैं और बेटा ही परिवार का असली उत्तराधिकारी माना जाता है.

उत्तर भारत में एक प्रचलित कहावत है कि ‘बेटा से वंश बढ़ता है.’ अपने वंश को बढ़ाने के लिए लोग मंदिरों-मस्जिदों में बेटा या पोता होने की मन्नत मांगते हैं. बेटी के लिए मैंने किसी को मन्नत मांगते नहीं देखा. सामान्यतः बेटी होना दुख की बात नहीं होती. अगर बेटी हो गई तो कोई उसे भारी मन से तो कोई खुशी से घर की लक्ष्मी मानकर स्वीकार करता है. लेकिन अगर दो तीन बेटी के बाद फिर बेटी ही हो गई तो यह दुःख वाली बात होती है. बिहार में अगर किसी को दो या तीन बेटी के बाद बेटा होता है तो जिस बेटी के बाद बेटा हुआ है उसे लोग भाग्यशाली मानते हैं. यहां भी पुरुष प्रधानता ही है. बेटा की वजह से बेटी की इज्जत बढ़ी और प्यार मिला.


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परंपरा के अनुसार महिलाओं की कोई जाति-धर्म नहीं, पुरुष ही उसकी जातीय पहचान..

उत्तर भारत में एक और कहावत काफी प्रचलित है कि ‘बेटी पराई धन होती है.’ इसलिए जाति और धर्म ने महिलाओं को अपना ही नहीं माना है. हमने वेद-शास्त्र के कई जानकार लोगों से सुना कि ‘बेटी की कोई जाति नहीं होती.’ वह जिस जाति या धर्म के लड़के से शादी करेगी उसी जाति और धर्म की हो जाएगी. यानी जाति-धर्म भी पुरूषों के लिए ही है, महिलाओं के लिए नहीं. इसीलिए शादी के बाद महिलाओं का गोत्र भी बदल जाता है. वह अपने पति के गोत्र की मानी जाती है.

भारतीय समाज भले ही जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा के आधार पर बटा हुआ है और इस कारण आपसी संघर्ष भी निरंतर चलता रहता है, लेकिन महिलाओं के सरनेम के मामले में सब में एक समानता है. बिहार-यूपी में हिंदू धर्म में ही सैकड़ों जातियां हैं. इन जातियों के पुरुष अपने नाम के आगे सिंह, यादव, ठाकुर, झा, मिश्रा, पटेल आदि सरनेम लगाते हैं, लेकिन सभी जातियों की ज्यादातर महिलाओं का सरनेम अभी भी ‘देवी’ होता है. महिलाएं अपने नाम के साथ देवी लगाती है. आजकल कुछ महिलाएं अपने पति का सरनेम लगाती है. इसी तरह गुजरात में ज्यादातर महिलाओं का सरनेम ‘बाई’ या ‘बेन’ होता है. अन्य राज्यों में भी ऐसी समानताएं मिल जाएगी.

आजकल बॉलीवुड या सेलिब्रिटी कल्चर वाले कुछ लोग खासकर एक्ट्रेस अपने पति के सरनेम के साथ अपने पिता का सरनेम भी लगाती है. जैसे, करीना कपूर अपने पति सैफ अली खान का ‘खान’ सरनेम जोड़कर करीना कपूर खान लिखती है. ऐश्वर्या राय शादी के बाद ऐश्वर्या राय बच्चन लिखने लगी.

अगर हम यह मान भी लें कि इन अभिनेत्रियों ने जाति-धर्म के बंधनों को तोड़ने की कुछ कोशिश की है फिर भी इसका मतलब यह नहीं है कि यहां पितृसत्ता का वर्चस्व कम हो गया हो या खत्म हो गया हो क्योंकि इनके बच्चों के नाम के साथ फिर पिता का सरनेम ही जुड़ा. सैफ-करीना के बेटे का नाम तैमूर अली खान और अब्राहम अली खान है. ऐश्वर्या-अभिषेक की बेटी का नाम है आराध्या बच्चन. अभिनेत्रियों का सरनेम उनके खुद के नाम तक ही सीमित रहा.

सेलिब्रिटी लोगों ने तो इतना कर भी लिया लेकिन आम महिला नहीं कर सकती. सरनेम बदलने पर उन्हें कई बार कानूनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. आधार कार्ड, वोटर कार्ड और शैक्षणिक सर्टिफिकेट में सरनेम अलग होने पर उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ लेने में, बैंक से लोन लेने में या सरकारी नौकरी में दिक्कत होती है. कई जगह से एफिडेविट करवाना पड़ता है. सेलिब्रिटीज के लिए तो कानून तक पहुंच आसान है लेकिन गांव की आम महिलाओं के लिए कानून बहुत दूर की चीज है. आम महिला कानूनी पचड़े और कोर्ट कचहरी के चक्कर नहीं पड़ना चाहती.

भारत की जातीय-धार्मिक व्यवस्था पुरुष प्रधानता को स्वीकार करता है और पितृसत्ता को बढ़ावा देता है. पितृसत्ता का कानून स्वीकार्य सामाजिक कानून है. लोग इसका दिल से अनुसरण करते हैं इसीलिए यह हजारों सालों से मजबूती के साथ टिका हुआ है.

राजनीति में भी है पितृसत्ता का प्रभाव…..

पितृसत्ता की मजबूती सिर्फ भारतीय समाज में ही नहीं, राजनीति में भी साफ झलकती है. भारतीय संसद में लोकसभा और राज्यसभा को मिलाकर कुल 788 सदस्य हैं, इसमें महिला सांसद सिर्फ 110 है(राज्यसभा में 32 और लोकसभा में 78). मोदी मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री सहित कुल 78 मंत्री है. महिला मंत्री सिर्फ 11 है. भारत में विधानसभा वाले 29 राज्य और 2 केंद्र शासित प्रदेश है. महिला मुख्यमंत्री सिर्फ एक राज्य पश्चिम बंगाल में है. जहां ममता बनर्जी खुद ही पार्टी प्रधान है. भाजपा की ग्यारह राज्यों में और कांग्रेस की तीन राज्यों में सरकार है. एक में भी महिला मुख्यमंत्री नहीं है.

गनीमत है 1992 में हुए संविधान के 73वें और 74वें संविधान संशोधन की जिसमें ग्राम पंचायत और नगर निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीट आरक्षित करने का प्रावधान कर दिया गया. अगर कानूनी बाध्यता नहीं होती तो स्थानीय सरकार में भी महिलाओं की संख्या गिनती लायक ही होती. ये भी एक तिहाई प्रतिनिधित्व सिर्फ कहने को है. अधिकांश महिला प्रतिनिधि अपने पद संबंधी निर्णय खुद नहीं लेती. फैसले उनके पति, पिता या ससुर लेते हैं और वही सही मायने में पद का उपयोग करते हैं. हाल ही में आई ‘पंचायत’ वेब सीरीज के प्रधान जी इसका ताजा और सटीक उदाहरण है.

गांधी परिवार ने भारतीय परंपरा का ही पालन किया….

अब आते हैं पीएम मोदी के नेहरू सरनेम वाले सवाल पर. प्रधानमंत्री को यह पता होना चाहिए कि सरनेम का मामला एक तरह का सामाजिक कानून है. यह आम आदमी से लेकर प्रधानमंत्री तक सब पर समान रूप से लागू होता है, इसलिए यह नेहरू-गांधी परिवार पर भी लागू होगा. भारतीय समाज में किसी को सरनेम रखने की कोई आजादी नहीं होती और न ही किसी को सरनेम चुनने के लिए दो-चार विकल्प मिलते हैं. यह एक पीढ़ी द्वारा अगली पीढ़ी को(सामान्यतः पिता द्वारा पुत्र को) अनिवार्य रूप से हस्तांतरित होने की प्रक्रिया है.

इंदिरा और फिरोज की शादी 1942 में महात्मा गांधी ने करवाई थी और सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए उन्होंने फिरोज को अपना ‘गांधी’ सरनेम दिया था. अब महात्मा गांधी जिसे अपना सरनेम दे वह लगाए भी क्यों न! शादी के बाद फिरोज, फिरोज गांधी बन गए फलस्वरूप इंदिरा नेहरू भी ‘इंदिरा गांधी’ बन गईं क्योंकि महिला को अपने पति का सरनेम ही लगाना होता है. राजीव गांधी, संजय गांधी, राहुल गांधी और वरुण गांधी ने यही परंपरा का पालन करते हुए अपने पिता का सरनेम लगाया. नेहरू सरनेम का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता.

दरअसल, कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार प्रधानमंत्री मोदी का पसंदीदा विषय है. जब भी वह किसी मुश्किल में फंसे होते हैं तो नेहरू की गलतियां और गांधी परिवार के परिवारवाद का सहारा लेकर निकलने की कोशिश करते हैं. कई बार तो वह कांग्रेस-नेहरू से संबंधित भ्रामक तर्क पेश कर देते हैं जो बाद में गलत साबित हो जाता है.

(अमरजीत झा पंजाबी यूनिवर्सिटी में जर्नलिज्म के रिसर्च स्कॉलर है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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