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Friday, 1 November, 2024
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राहुल गांधी की टी-शर्ट और नरेंद्र मोदी के सूट में नहीं, समस्या गांधी की धोती में है

महंगे कपड़े पहनने की अगर क्षमता है, जो भारतीय नेताओं में है, तो गांधी की तरह फकीरी का नाटक करना गलत है.

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नेता क्या पहनें और क्या न पहनें? पहनने और नहीं पहनने के इस दिलचस्प खेल को देश ने पिछले दिनों लाइव देखा. सबसे पहले तो बीजेपी ने भारत जोड़ो यात्रा कर रहे राहुल गांधी की टी-शर्ट पर ट्वीट करके बताया कि राहुल गांधी किस तरह 41,000 रुपए की टी-शर्ट पहनकर यात्रा कर रहे हैं.

अगर किसी को लगा हो कि ये तो हल्का-फुल्का मजाक था, तो वह भ्रम भी जल्द ही दूर हो गया, जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक भाषण के दौरान फिर से राहुल गांधी की टी-शर्ट का मामला छेड़ दिया. जवाब में कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी के 10 लाख रुपए के सूट और 1.5 लाख रुपए के चश्मे पर बात छेड़ दी. इससे पहले तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा के लुई वितों बैग को लेकर सोशल मीडिया में खूब चर्चा हुई.

इस विवाद ने एक बार फिर साबित किया कि भारत दिखावटी मान्यताओं का देश है, जहां सादगी, फकीरी या फकीरी का नाटक पसंद किया जाता है. कोई नेता अगर अमीर है और निजी जीवन में ठाठ से जीता है, तो भी सार्वजनिक जीवन में ये उम्मीद की जाती है कि वह अपनी फकीरी ही दिखाए. ये बात आश्चर्यजनक इसलिए भी है क्योंकि भारत में राजनीति बेहद खर्चीला कारोबार है. ये जगजाहिर भी है.

विधानसभा चुनाव लड़ने का खर्च ही कई राज्यों में करोड़ों में है. लोकसभा चुनाव तो और भी ज्यादा खर्चीला है. बड़े नेताओं को कई कैंडिडेट के चुनाव का खर्च उठाना पड़ता है. इसके अलावा नेता जब अपने इलाके में किसी शादी या पारिवारिक फंक्शन में जाए तो ये उम्मीद की जाती है कि वह कुछ रुपए परिवार को देगा ही. किसी नेता के घर में जितने लोग आते हैं उनके चाय-नाश्ते का खर्च ही लाख में हो सकता है.

चुनाव क्षेत्र में कोई बीमार हुआ या किसी को बच्चे की फीस भरनी है, तो भी कई बार लोग नेता की तरफ देखते हैं. नेता जब चलता है तो वह अकेला नहीं चलता, साथ में एक हुजूम लेकर चलना पड़ता है, जो मुफ्त में नहीं होता. रैलियों में भी कई बार जनता मुफ्त में नहीं आती.

ये सब कोई छिपी हुई बात नहीं है. ये कोई राज नहीं है कि नेताओं को कहीं से तो ये पैसा लाना पड़ता है. लेकिन वही पब्लिक अपने नेताओं से ये उम्मीद भी करती है कि नेता साधारण या साधारण से भी कमतर या बदतर कपड़े पहने.


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ये दरअसल गांधीवादी राजनीति और मूल्यों की समस्या है. मोहनदास करमचंद गांधी बेहद अमीर और प्रभावशाली परिवार के थे. उनके पिता पोरबंदर के दीवान या कहें तो प्रधानमंत्री थे. पैसा खर्च करके उन्होंने विदेश में पढ़ाई की. केस लड़ने दक्षिण अफ्रीका गए. जब उन्होंने राजनीति में कदम रखा और शुरुआती कामयाबी मिली तो देश के कई उद्योगपति जैसे बिड़ला, बजाज, गोदरेज, सेकसरिया, वालचंद-हीराचंद और बाद में टाटा आदि उनसे जुड़ गए. गांधी की पूरी राजनीति के खर्च को उद्योगपति स्पांसर कर रहे थे.

दरअसल कांग्रेस उस समय ब्रिटिश उद्योग के मुकाबले भारतीय उद्योग और भारतीय माल को प्राथमिकता देने को लेकर आंदोलन चला रही थी. स्वदेशी आंदोलन बेशक आजादी के आंदोलन का हिस्सा था, पर इसके प्रमुख लाभार्थी भारतीय उद्योगपति ही थे. कांग्रेस के सालाना जलसे के साथ भारतीय उद्योगपतियों का सम्मेलन भी होता था, जिसमें उनके बनाए सामान शो-केस किए जाते थे.

1940 आते-आते उद्योगपतियों ने भांप लिया कि देश आखिरकार आजाद होगा और कांग्रेस के हाथ में ही सत्ता आएगी. इस समय तक सभी प्रमुख उद्योगपति कांग्रेस और गांधी से जुड़ चुके थे. सभी मीडिया घराने, जिन्हें उद्योगपति ही चला रहे थे, कांग्रेस और गांधी के समर्थन में खड़े थे, जिसे लेकर डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने तीखी टिप्पणी की थी कि गांधी मीडिया के जरिए हीरो बनाए जा रहे हैं.

जिस दौरान गांधी उद्योगपतियों के पैसे और समर्थन से राजनीति कर रहे थे, वे उसी समय एक फकीर का सार्वजनिक जीवन भी जी रहे थे. 1920 आते-आते उन्होंने ढंग के कपड़े पहनना छोड़ दिया और धोती लपेटकर रहने लगे. उनकी सादगी, उनकी वास्तविक हैसियत से मेल नहीं खाती थी. वे दरअसल एक किरदार निभा रहे थे, जिसने उनके व्यक्तित्व को करिश्माई बनाया. वे एक राजा के प्रधानमंत्री के पुत्र थे लेकिन जब वे धोती पहनकर चलते थे, तो लगता था कि उन्होंने कितना बड़ा त्याग किया है.

हालांकि वे ज्यादातर समय उद्योगपतियों के घरों या उनके बनाए आश्रमों में ही रहे. वे महंगी यात्राएं भी कर रहे थे और हाथ से खींच कर चलाई जाने वाली शाही बग्गियों में भी सवारी करते थे. जिस दिन उन पर एक सांप्रदायिक उन्मादी ने जानलेवा किया, उस दिन भी वे दिल्ली के बिड़ला हाउस में ही ठहरे थे और वहीं लॉन में वे जा रहे थे.


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वास्तविक जीवन की अमीरी और सार्वजनिक जीवन की सादगी या फकीरी का ये मेल भारतीय राजनीति का बेंचमार्क बन गया और आजादी के बाद भी ज्यादातर नेताओं ने इसकी नकल की. बाबा साहब आंबेडकर उन चंद नेताओं में थे, जिनके निजी जीवन और सार्वजनिक जीवन में दोहरापन नहीं था. बाद के वर्षों में रामविलास पासवान और मायावती ने भी सार्वजनिक जीवन में सादगी की नौटंकी नहीं की. हालांकि दोहरा जीवन न जीने के कारण उन्हें आलोचना का शिकार भी होना पड़ा. मायावती के बैग से लेकर उन्हें पहनाई गई नोटों की माला और उनके सैंडल तक को लेकर मीडिया ने टिप्पणियां कीं.

दरअसल सार्वजनिक जीवन में सादगी का नाटक भारतीय दर्शन की समस्या है. खासकर हिंदू मान्यताओं और परंपराओं में त्याग और अपरिग्रह को लेकर कुछ महान धारणाएं बना दी गई हैं. अच्छे आदमी की भारतीय कल्पना कई बार ‘एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण या गरीब किसान रहता था…’ से शुरू होती है. अमीरी को खलनायकत्व भी दे दिया गया है. इसकी एक वजह शायद ये भी है कि भारतीय विचार परंपरा में परलोक या अगले जन्म की कल्पना है, जिसे अच्छा बनाने के लिए इस जन्म में वर्ण धर्म के मुताबिक काम करना है. इस जन्म में उपभोग और सुख की कल्पना को पाप की तरह मान लिया गया है.

ये भी एक वजह है कि भारत में उद्यमिता और पूंजीवाद का विकास नहीं हुआ और हुआ भी तो बहुत लंगड़ाते या लड़खड़ाते हुए. पूंजीवाद यूरोप के उन देशों में विकसित हुआ, जहां कैल्विनिज्म या लूथरन जैसे प्रोटेस्टेंट विचार प्रभावी थे. जो इस दुनिया को सुंदर बनाने को महत्व दे रहे थे. जहां व्यक्ति की सत्ता चर्च जैसे धार्मिक संस्थाओं की सामूहिक सत्ता के अधीन नहीं थी. वहां धन संचय और उस धन से और धन संचय को पाप नहीं माना गया.

महंगे कपड़े पहनने की अगर क्षमता है, जो भारतीय नेताओं में है, तो गांधी की तरह फकीरी का नाटक करना गलत है. अगर राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी या महुआ मोइत्रा महंगे कपड़े और एक्सेसरीज इस्तेमाल कर रहे हैं, तो लोगों को चाहिए कि उन्हें ऐसा करने दें. उन्हें जबरन फकीरी का नाटक करने को मजबूर न करें. क्योंकि मजबूर करने पर वे नाटक करके दिखा देंगे लेकिन इससे किसी का भला नहीं होगा.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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