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Sunday, 3 November, 2024
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अर्थव्यवस्था से जुड़े सवाल बाद में, बड़ी बात ये है कि कांग्रेस ने इतनी सारी आजादियों के वादे किए हैं

कांग्रेस के कई वादे शायद पूरे नहीं किये जा सकते. अगर एक राष्ट्रीय दल व्यक्तिगत स्वाधीनता का खुल कर पक्ष ले रहा है तो इसका खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए.

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पिछले सप्ताह जारी हुए कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र को लेकर मुख्यतः दो बातें कही जा सकती हैं. पहली यह कि इसमें सरकारी खर्च को कई तरह से बढ़ाने का वादा किया गया है. स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में दोगुना वृद्धि कर उसे जीडीपी के 3 प्रतिशत के बराबर किया जाएगा; शिक्षा पर खर्च में दोगुना वृद्धि करके उसे जीडीपी के 6 प्रतिशत के बराबर किया जाएगा; तकसीम के कार्यक्रम न्यूनतम आय योजना (न्याय) पर खर्च को इसके दूसरे वर्ष तक बढ़ाकर जीडीपी के करीब 2 प्रतिशत के बराबर किया जाएगा; और प्रतिरक्षा के बजट में भी जीडीपी के अनुपात के हिसाब से वृद्धि की जाएगी.

देखा जाए तो सरकारी खर्च में कुल मिलाकर जीडीपी के 5 से 7 प्रतिशत तक के बराबर की वृद्धि की जाएगी. लेकिन 55 पेज के घोषणापत्र के 52 खंडों में कहीं भी यह नहीं बताया गया है कि इन तमाम खर्चों के लिए संसाधन कहां से आएगा, सिवाय ‘न्याय’ वाले खंड में दर्ज़ इस चलताऊ बयान के कि इसके लिए आमदनी बढ़ाने और खर्च में कटौती करने के उपाय किए जाएंगे.


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जो अतिरिक्त वादे किए जा रहे हैं उन्हें इस वास्तविकता से परखा जाना चाहिए कि केंद्र तथा राज्य सरकारों का कुल कर-राजस्व जीडीपी का केवल 17 प्रतिशत है, और जीडीपी में आम सरकारी घाटा पहले से ही 6 फीसदी से ज़्यादा है. इस बीच, चार लाख खाली पड़े सरकारी पदों पर नियुक्तियां की जाएंगी और पंचायतों तथा शहरी निकायों में 10 लाख लोग नियुक्त किए जाएंगे, जो लोगों की मदद करेंगे, ताकि वे सरकारी लाभों के लिए दावे कर सकें. इन सभी लोगों को भुगतान किए जाएंगे. ऐसे में एक ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इन तमाम वादों पर सावधानी से भरोसा किया जाए, भले ही राहुल गांधी यह कहते फिर रहे हों कि वे अपना कोई भी वादा कभी नहीं तोड़ते.

घोषणापत्र का दूसरा प्रमुख पहलू एकदम अलग किस्म के मसलों से जुड़ा है, और यह व्यक्तिगत स्वाधीनताओं से संबन्धित है. देशद्रोह से संबन्धित कानून और बिना सुनवाई के हिरासत में लेने का अधिकार देने वाले क़ानूनों के मामलों में कांग्रेस ने जो रुख अपनाया है उसकी उदारता से प्रशंसा की जानी चाहिए. इनमें से कुछ कानून तो आज़ादी से पहले के दौर के हैं और कुछ तो उपनिवेशवादी शासकों द्वारा थोपे गए क़ानूनों से भी बुरे हैं. पार्टी ने मानहानि को भी अपराध के दायरे से बाहर करने का वादा किया है (जैसा कि अधिकतर लोकतांत्रिक देशों में लागू है), सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून की भी समीक्षा करने का वादा किया गया है.

इसी तरह पार्टी ने हिरासत में यातना देने के खिलाफ कानून बनाने और पुलिस को किसी स्वतंत्र संस्था के प्रति जवाबदेह बनाने, जमानत को अपवाद से हटाकर सामान्य प्रक्रिया बनाने, चुनिन्दा विचाराधीन कैदियों को उन पर लगाए गए आरोपों तथा जेल में बिताई गई उनकी अवधि के आधार पर रिहा करने के वादे भी किए हैं. घोषणापत्र में कहा गया है कि आईपीसी की कई धाराओं, मसलन देशद्रोह से संबन्धित धारा, का दुरुपयोग किया गया है; सवाल यह है कि क्या यह दुरुपयोग अपरिहार्य है?

संदेह तो यह भी है कि क्या इन वादों को आसानी से लागू किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, अदालतें तो सरकार से उन विचाराधीन कैदियों को रिहा करने के लिए कहती ही रही हैं जिन्होंने अपने ऊपर लगाए गए आरोप के लिए दी जाने वाली अधिकतम कैद की आधी अवधि काट ली है. लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई. जो भी हो, एक राष्ट्रीय दल अगर व्यक्तिगत स्वाधीनता का इस तरह खुल कर पक्ष ले रहा है तो इसका खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए, जब कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर इन स्वाधीनताओं में कटौती की जा रही है, जब कि सवाल पूछना भी राष्ट्रद्रोह माना जा रहा है, और जब कि खुद काग्रेस ही अतीत में प्रेस की आज़ादी समेत इन सभी स्वाधीनताओं में कटौती करने की दोषी रही है.


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यह जायज़ सवाल भी उठेगा कि क्या इस तरह के गहरे बदलाव इतनी कम अवधि में कर पाना संभव होगा? ‘थर्ड डिग्री’ की यातना पुलिस की पूछताछ का प्राथमिक तरीका जैसा है. अगर नए कानून के तहत यह बंद हो जाएगा और पुलिस को उस तरह जवाबदेह बनाया जाएगा जिस तरह आज नहीं बनाया जाता, तब व्यवस्था को पुलिस बल में मौलिक बदलाव करना होगा और उसके प्रशिक्षण में निवेश करना होगा.

सवाल है कि यह कितनी जल्दी हो पाएगा? इसी तरह, यह सवाल भी उठेगा कि जब देश के किसी हिस्से में सशस्त्र बगावत की स्थिति पैदा होगी तब राज्यतंत्र को कुछ विशेष अधिकारों की जरूरत पड़ेगी या नहीं? सवाल यह है कि इस तरह की स्थिति से निबटने के लिए प्रभावी सुरक्षा की व्यवस्था करते हुए क्या उपाय किए जा सकते हैं? बहरहाल, ये सारे सवाल भविष्य के लिए हैं. फिलहाल तो इतना काफी है कि एक बड़ी राजनीतिक पार्टी ने संवैधानिक स्वाधीनताओं और अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त मानवाधिकारों के पक्ष में आवाज़ उठाई है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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