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Monday, 23 December, 2024
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शाहीन बाग से उभरते सवालों ने समाजवादी आंदोलन के विचार को और प्रासंगिक बना दिया है

मुस्लिम समाज के सवालों की गहराई में कहीं न कहीं मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में उचित प्रतिनिधित्व का न होना ही समझ आता है. समय रहते इस समस्या का समाधान नहीं हुआ तो यह संकट कई रूपों में सामने आएगा.

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शाहीन बाग दिल्ली, रोशन बाग इलाहाबाद ,घंटाघर लखनऊ सहित देश के कुछ अन्य स्थानों पर एनआरसी/सीएए के विरोध में महिलाएं शांतिपूर्ण और अहिंसात्मक रूप से आंदोलन कर रही हैं. इन प्रदर्शनों में अनेक प्रकार के रचनात्मक विरोध की शैली दिख रही है.

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर के साथ ही साथ स्वतंत्रता आंदोलन के नायक अशफाक उल्ला खां, मौलाना अबुल कलाम आजाद के भी चित्र राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा के साथ धरना स्थलों पर दिखाई दे रहे हैं. इतना ही नही राष्ट्रगीत/राष्ट्रगान भी लोग पूरे सम्मान के साथ गा रहे हैं.

इस आंदोलन के पक्ष और विपक्ष में सोशल मीडिया सहित संचार के सभी माध्यमों के जरिये बहस हो रही है. अनेक राजनैतिक/सामाजिक संगठन भी अपने समर्थन/विरोध में अपने तर्क-तथ्य रख रहे हैं.

हमारी पीढ़ी के सामने पहचान के सवाल को लेकर यह पहला बड़ा आंदोलन दिखाई दे रहा है. मंडल/कमंडल के दौर में जिस अस्मिताबोध की राजनीति को प्रतिनिधित्व मिलना शुरू हुआ था. वह अब अलग-अलग जातीय और धार्मिक पहचान के प्रतिनिधित्व के अधिकार की मांग के रूप में परिपक्व हो गया है.

उदारीकरण के बीते तीस वर्षों की ईमानदारी से बात करने के हमारी पीढ़ी के पास पर्याप्त तथ्य और तर्क उपलब्ध हैं. वैसे देश की आजादी के 70 वर्षो की यात्रा पर भी ईमानदारी से बात होनी चाहिए. लेकिन यह कार्य सामाजिक जीवन के अनुभव से तपे तपाये लोग ही बेहतर तरीके से कर पाएंगे.


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यह बात हमें स्वीकार करनी चाहिए कि समाज में उपेक्षित और हाशिये की जातियों में धीरे-धीरे प्रतिनिधित्व लगातार उभर रहा है. उत्तर प्रदेश के तीन दशकों के इतिहास में सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व मिला लेकिन मुस्लिम समाज इस मोर्चे पर सहयोगी भूमिका के रूप में ही दिखाई दिया. उत्तर भारत के मुस्लिम समाज में नेतृत्व का यह संकट लगातार गहराया है.

मुस्लिम समाज से जो नेतृत्वकर्ता निकले उनके सामाजिक सहमति का क्षेत्र भी विस्तार नही ले सका.

इस बीच राजेन्द्र सच्चर और रंगनाथ मिश्रा कमेटी ने भी मुस्लिम समाज के सामाजिक/आर्थिक मोर्चे पर बदहाली की पूरी रिपोर्ट पेश की. लेकिन उस पर अमल नहीं हो सका. आबादी के आधार पर भी मुख्यधारा में वाजिब हिस्सेदारी का संतोषजनक स्थान भी नही मिल पाया यह सार्वजनिक जीवन में आसानी से दिखता है. हालांकि, मुस्लिम समाज के कई महत्वपूर्ण नायक अपनी क्षमता के बलबूते अमूमन सभी शीर्ष पदों पर पहुंचे.

आज जब इस आंदोलन का स्वरूप बढ़ रहा है तो राष्ट्रीय स्तर पर एक भी नेता न तो हिन्दू और न ही मुस्लिम समाज का इस स्थिति में है जिसकी विश्वसनीयता इतनी हो कि आंदोलित महिलाओं और मुस्लिम समाज को भरोसा दिला सके कि उनकी समस्या/चुनौती के लिए हर स्तर पर लड़ाई लड़कर समाधान करवाया जा सकता है.

यही खालीपन गांधी और बाबा साहब के विचार भरते हैं. कट्टरता उस दौर में आज से भी अधिक थी. अंग्रेजी शासन के बर्बर व्यवस्था के खिलाफ जब गांधी खड़े हुए पूरे देश के लोग उन्हें जानते भी नहीं थे. क्षेत्रीयता/भाषाई विविधता/संचार माध्यमों की सीमितता सहित बड़े कद के सामाजिक/राजनैतिक व्यक्तियों के बीच अन्याय के खिलाफ सिविल नाफरमानी/सत्याग्रह के हथियार से बापू पूरी दुनिया में जाने गए. आज 150 देशों में 2 अक्टूबर का महत्व उनकी महानता को ही दर्शाता है.

इसी प्रकार जब बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने जातीय विषमता और शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन शुरू किया. उस समय सभी जाति/धर्मों के जागरूक लोगों ने उनका साथ दिया. इसीलिए जब संविधान निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई. सभी ने सर्वसम्मति से उनका नेतृत्व स्वीकारा. यह उनके व्यक्तित्व की खूबी थी कि समाज के सभी वर्गों के मन में यह भरोसा था कि बाबा साहब संविधान में सभी का ख्याल रखेंगे.

लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विकसन अवस्था के वर्तमान दौर में राजनैतिक नेताओं की सर्वसमाज में स्वीकार्यता का सिमटना यह बताता है कि प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी का सवाल समाधान की दिशा में नहीं पहुंच रहा है.

मुस्लिम समाज के सवालों की गहराई में कहीं न कहीं मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में उचित प्रतिनिधित्व का न होना ही समझ आता है. समय रहते इस समस्या का समाधान नहीं हुआ तो यह संकट कई रूपों में सामने आएगा.


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ऐसे में समाजवादी आंदोलन और उसकी वैचारिकी की प्रासंगिकता बढ़ जाती है. पांच दशक पहले जब नागरिक अधिकारों की हत्या करते हुए आपातकाल लागू किया गया था. उस समय इसके खिलाफ सबसे प्रखर विरोध करने में डॉ राममनोहर लोहिया की समाजवादी धारा के लोग ही थे. जिन्होंने लोकनायक जेपी के नेतृत्व में पूरे देश के सभी वर्गों और विचारधाराओं को जोड़ते हुए जनमत तैयार करने का कार्य किया. इसके परिणाम स्वरूप लोकबंधु राजनारायण जैसे नायक राष्ट्रीय पटल पर स्थापित हुए. जिनका संघर्ष और सरोकार का इतिहास रहा है. इन सभी लोगों ने समन्वय करते हुए तानाशाही सत्ता को उखाड़ फेकने का ऐतिहासिक और जरूरी कार्य किया. अगले दशक में मंडल/कमंडल की राजनीति में भी जब देश में बेचैनी और सामाजिक भरोसे का संकट खड़ा हुआ उस समय भी समाजवादियों ने ईमानदारी से अपनी भूमिका का निर्वहन किया.

एक पांव जेल में, एक पांव रेल में संघर्ष का दर्शन और वोट, फावड़ा व जेल जैसा समाजवादी मॉडल एक बार फिर मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य में बेहद जरूरी हो गया है. आधे-अधूरे मन से समस्याओं और चुनौतियों का निपटान नहीं हो पायेगा. प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी के सवाल का समाधान करते हुए लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए समाजवादियों का सड़क से सदन तक संघर्ष जरूरी है. यही देश और समाज में असहमति का सम्मान करते हुए जनता की सर्वोच्चता के भाव को स्थापित करेगा, जो भारत के संविधान की मूल आत्मा है.

(लेखक समाजवादी अध्ययन केन्द्र (सिद्धार्थनगर) के संस्थापक हैं. यह उनका निजी विचार है.)

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