प्रतिशोध के डर से रूसी शाही सेना को एकजुट रखने वाला लोहा अचानक से पिघलना शुरू हो गया था. सितंबर 1918 में जारी एक खुफिया रिपोर्ट में कहा गया, “अधिकारियों का जीवन असंभव हो गया है. 470वीं रेजिमेंट में रेजिमेंटल सैनिकों की कमेटी ने प्रत्येक अधिकारी से उसकी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं पर पूछताछ करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया. 731 सैनिकों की एक भारी भीड़ जमा हो गई और एक सैनिक ने घोषणा की कि सभी कमांडर प्रति-क्रांतिकारी थे. दूसरे प्सकोव ड्रैगून्स ने अपने सभी अधिकारियों को नजरबंद कर दिया.”
इतिहासकार ऑरलैंडो फिग्स ने कहा था कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन खुद को शाही राजाओं के उत्तराधिकारी के रूप में देखते हैं. वह उनकी भव्यता, उनकी शक्ति और उनकी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं वाला व्यवहार आज भी इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने खुद को एक मौन रहने वाले व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है, लेकिन खुद को इतिहास का एक कमज़ोर छात्र दिखाया है.
सप्ताह के अंत में में सरदार येवगेनी प्रिगोझिन का विद्रोह छोटा साबित हुआ. लेकिन इसने उन भ्रमों को पूरी तरह से तोड़ दिया है जिन पर पुतिन का अधिकार बना हुआ है. चाहे आगे कुछ भी हो, यह स्पष्ट है कि पुतिन ने जिन शवों की बलि दी थी, वे रूसी गौरव की नींव नहीं थे.
यह अहसास – पीठ में छुरा घोंपने जैसा नहीं है, जैसा कि पुतिन ने दावा किया है. ज़ार निकोलस द्वितीय को, जो रूसी ऑर्थोडॉक्स चर्च में सेंट निकोलस द पैशन-बियरर के नाम से जाना जाता है, येकातेरिनबर्ग के बाहर व्यापारी इपटिव के मामूली घर में उनके पूरे परिवार के साथ फांसी की सजा दी गई थी.
मेमनों का बदला
1914 की गर्मियों से 1918 के अंत तक, शाही रूस ने 1,400,000 की अपनी स्थायी सेना में लगभग 5,100,000 लोगों को संगठित किया. अगली गर्मियों में, अन्य 2,300,000 लोगों का ड्राफ्ट और तैयार किया गया. समसामयिक कहावत के अनुसार इसमे से अधिकतर सैनिक किसान या सामान्य व्यक्ति थे जो राजा के आदेश के बाद उनके कहे अनुसार काम करते थे या फिर उनके पीछे पीछे चलते थे. टाइम्स ऑफ लंदन के पत्रकार स्टैनली वॉशबर्न ने 1915 में कहा था, “रूसी सैनिक सबसे अच्छे स्वभाव वाले थे बिल्कुल बच्चों की तरह. वह काफी चंचल थे.”
हालांकि, नरसंहार न तो चंचल था और न ही अच्छे स्वभाव का. 1917 तक, 587,357 सैनिक सीधे तौर पर मारे गए थे, या फिर घायल होकर धीरे धीरे बीमारियों से मर गए थे. जबकि, 2,720,000 अन्य लोगों को बंदी बना लिया गया या गायब कर दिया गया था.
यूरोप भर के कई सैन्य कमांडरों और पुतिन के अपने जनरलों की तरह रूसी जनरल स्टाफ का मानना था कि युद्ध छोटा होगा. 1914-1915 में परिवहन से लेकर गोला-बारूद और कपड़ों तक हर चीज़ की आपूर्ति कम थी. हालांकि 1916 से युद्ध सामग्री के उत्पादन में सुधार हुआ, लेकिन इसे सामने लाने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे में सुधार नहीं हुआ.
सभी आधुनिक युद्धों की तरह, प्रथम विश्व युद्ध को लेकर भी एक विशेष योजना की जरूरत थी. माइक हेस कहते हैं, “रूस के पास ऑस्ट्रिया-हंगरी के खिलाफ आंशिक लामबंदी की कोई योजना नहीं थी. भले ही शाही रूस के पास जासूसों का एक बड़ा नेटवर्क था, जो ऑस्ट्रियाई खुफिया सेवा के प्रमुख को ब्लैकमेल करने में सफल रहा था. हालांकि रूस के पास कोई केंद्रीकृत खुफिया नेटवर्क नहीं था, जो दुश्मन की योजनाओं का आकलन करने में सक्षम हो और क्षेत्रीय विवाद के बढ़ने पर प्रतिक्रिया देने के लिए कोई योजना नहीं थी.”
मई 1917 में युद्ध मंत्री अलेक्जेंडर क्रेंस्की ने मोर्चे के दौरे पर निकल कर सैनिकों को यह समझाने का प्रयास किया कि जर्मनी के खिलाफ बड़े पैमाने पर दबाव की जरूरत है, जिसकी उसके सहयोगी मांग कर रहे थे. सुधारवादी नेता को मेमनों से सौम्य व्यवहार नहीं मिला. निकोलस वर्थ कहते हैं, “आप हमें बताएं कि हमें जर्मनों से लड़ना चाहिए ताकि किसानों को ज़मीन मिल सके. लेकिन अगर मैं मारा जाऊं और ज़मीन न मिले तो हम किसानों को ज़मीन मिलने का क्या फ़ायदा?”
रूस के कमांडर-इन-चीफ जनरल एलेक्सी ब्रुसिलोव ने आगे की पंक्ति के सैनिकों को बताया कि जर्मनी ने फ्रांस के कुछ बेहतरीन शराब उत्पादक अंगूर के बागों को नष्ट कर दिया है. सैनिक गुस्सा हो गए, “आप हमारा खून बहाना चाहते हैं ताकि आप शैंपेन पी सकें!”
1917 में रूस के अंतिम अभियान से पहले बड़े पैमाने पर पलायन हुआ था. यह गोला-बारूद की कमी और सेना की इच्छा ने होने के कारण केवल चार सप्ताह में रुक गया था. इसके बाद जर्मनों ने जवाबी हमला किया, जिसमें 200,000 रूसी सैनिक मारे गए.
जैसा कि पुतिन को एहसास हुआ, यूक्रेन में रूस की विफलता का कारण भी लगभग यही है. युद्ध सामग्री की कमी, कमजोर नेतृत्व और युद्ध लड़ने के लिए अनिच्छुक सैनिक.
यह भी पढ़ें: मणिपुर में सरकारों ने दशकों से शांति का नहींं, अशांति का निर्माण किया है, लेकिन यह अब दिख रहा है
संवाद के रूप में विद्रोह
सैनिकों द्वारा विद्रोह केवल लैटिन अमेरिकी या अफ़्रीकी देशों की विशेषता नहीं है. ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद बिहार में कार्यरत सिख रेजिमेंट के सैनिकों ने अपने कमांडिंग ऑफिसर ब्रिगेडियर आरएस बराड़ की हत्या कर दी थी और अमृतसर की ओर जाने की कोशिश की थी. बंगाली सैनिक पाकिस्तानी सेना के खिलाफ विद्रोह में शामिल हो गए थे. संयुक्त राज्य अमेरिका के नौसैनिक वाहक मिडवे में वियतनाम युद्ध का विरोध करने वाले कर्मियों द्वारा तोड़फोड़ की गई थी, और नस्लीय संघर्ष के कारण इसकी दूसरी जहाजों कान्स्टलेशन और किटी हॉक को नुकसान हुआ था.
पश्चिमी और मध्य अफ्रीका में विद्रोहों के एक मजिस्ट्रियल अध्ययन में, मैगी ड्वायर ने देखा कि तख्तापलट राजनीतिक संचार के साधन के रूप में कार्य करता है, जो बड़ी सामाजिक शिकायतों का संकेत देता है. तख्तापलट तब होता है जब आवाज देने के लिए कोई राजनीतिक साधन मौजूद नहीं होते हैं. जातीय आधार पर मणिपुर पुलिस का पतन, या 2016 में जातीय हिंसा के दौरान हरियाणा पुलिस का विघटन, इस पैटर्न पर खरा उतरता है.
विद्वान जैकलिन जॉनसन का मानना है कि आधुनिक विद्रोहों के गहन अध्ययन में, सबसे तीव्र विद्रोह सत्तावादी प्रणालियों में होने की संभावना है जो खुद को तख्तापलट करने के लिए प्रेरित हैं.
सीखने की इच्छुक सरकारें अक्सर महसूस करती हैं कि कम दमन बेहतर परिणाम प्रदान करता है. 1987 में सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी के अध्ययन में कहा गया था कि भारत अब सेना के बजाय सावधानीपूर्वक खुफिया जानकारी और पुलिसिंग का उपयोग करके खालिस्तान आतंकवाद का मुकाबला करने की कोशिश करेगा. सरकार ने ठीक यही रणनीति अपनाई जिसके कारण 1993 तक अंततः सफलता मिली.
बेंटले गिल्बर्ट और पॉल बर्नार्ड लिखते हैं, फ्रांसीसी सैनिकों ने 1917 में अपने रूसी समकक्षों की तरह ही विद्रोह किया था, लेकिन देश की अधिक खुली राजनीतिक व्यवस्था इस झटके को आसानी से रोकने में सफल रही.
एलेक्स मार्शल के अनुसार, कम से कम 1915 से, रूसी सैन्य सेंसर ने अधिकारियों के लिए अपने किसान सैनिकों की भावनाओं का दस्तावेजीकरण किया था. हालांकि, कुछ सैनिकों को पता नहीं था कि साम्यवाद क्या है, वे सामंतवाद से मुक्त भूमि पर अपने घर वापस जाना चाहते थे. लेकिन शाही रूसी व्यवस्था सच बोलने वाले सैन्य ख़ुफ़िया अधिकारियों की बात सुनने को तैयार नहीं थी.
पर्दा गिर जाता है
जर्मन जवाबी हमले के बाद, केरेन्स्की ने कट्टरपंथी जनरल लावर कोर्निलोव को कमांडर-इन-चीफ नियुक्त किया, यह उम्मीद करते हुए कि कठोर उपायों से पेत्रोग्राद में भड़के कम्युनिस्ट विद्रोह को ख़त्म कर दिया जाएगा. अग्रिम मोर्चों पर मौत की सज़ा बहाल कर दी गई, सैनिकों को बैठकें आयोजित करने से प्रतिबंधित कर दिया गया और भगोड़ों को गिरफ्तार करने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाया गया. अंततः, सितंबर में जनरल कोर्निलोव ने तख्तापलट करने की मांग की. उनका प्रयास विफल रहा. सैनिकों की भीड़ ने सैकड़ों अधिकारियों को मार डाला.
मार्च 1917 में एक युवा अधिकारी ने अपने लोगों के साथ अपने संबंधों का वर्णन करते हुए अपने माता-पिता को लिखा, “हमारे और उनके बीच एक अभेद्य खाई है. कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे व्यक्तिगत अधिकारियों के साथ कितने अच्छे व्यवहार करते हैं, उनकी नज़र में, हम सभी बैरिन [लॉर्ड] हैं.”
अंततः, शाही रूस को अपना युद्ध समाप्त करने के लिए मजबूर होना पड़ा. निर्णय बहुत देर से लिया गया. बोल्शेविक अराजकता से उभरे. हालांकि, उन्हें सोवियत संघ बनाने के लिए एक दशक तक संघर्ष करना पड़ा. और ज़ार तथा उनके परिवार का भाग्य तय हो गया था.
व्लादिमीर पुतिन जिस स्क्रिप्ट पर काम कर रहे हैं उसका अंत भी इसी तरह होने की संभावना बढ़ती जा रही है.
(लेखक दिप्रिंट के राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ें: मुंबई हमले का रचयिता साजिद मीर की दुनिया, जिसे चीन ने संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों से बचाया