दक्षिणी दिल्ली की नगरपालिका (SDMC) ने इस बार ठान ली है कि नगरवासियों को नवरात्रों में मांसाहारी भोजन न नसीब हो. इसे सुनिश्चित करने के लिए फैसला लिया गया है कि 2 अप्रैल से 11 अप्रैल तक नगरपालिका की सभी मीट की दुकानें बंद रखी जाएंगी.
ताज्जुब इस बात का है कि यह मीट बैन देश की राजधानी में हुआ है जहां भिन्न भिन्न प्रांतों और संस्कृतियों के लोग रहते हैं और बसते हैं.
मीट बैन के इस फैसले पर तर्क यह दिया जा रहा है कि शहर के 99 प्रतिशत लोग नवरात्रों में न मांस मछली खाते हैं न ही शराब ही पीते हैं. अपने घर में भी मैंने ऐसा कई बार देखा है. मैं खुद भी चैत्र नवरात्रों के दौरान (पहला और आखिरी) व्रत रखता हूं पर इसके लिए मुझे सरकार से दिशा निर्देश नहीं लेने पड़ते, खुद की श्रद्धा से करता रहा हूं. लेकिन जो लोग व्रत नहीं रखते, सरकारें उनके खान-पान पर प्रतिबन्ध कैसे लगा सकती हैं?
इत्तेफ़ाक़ से इस बार नवरात्रों के साथ-साथ मुसलमानों का पवित्र त्यौहार – रमज़ान भी मनाया जा रहा है जिसमें पूरे दिन पानी तक नहीं पीना होता है.
अब SDMC के अंदर ओखला और उसके आस-पास सटे मुस्लिम बहुल इलाके भी आते हैं. जो लोग हिन्दू भी नहीं, नवरात्रे भी नहीं मनाते उनको ज़बरन शाकाहारी बनाने से क्या मकसद हासिल हो रहा है?
मेरा मानना यह है कि इस फैसले का श्रद्धा से ज़्यादा लेना देना नहीं है बल्कि एक त्योहार के नाम पर जबरदस्ती अपनी इच्छाएं थोपना है.
अगर आप अपनी श्रद्धा से व्रत रख रहे हैं, तो आप खुद ही मांस की दुकान पर नहीं जाएंगे, दारू के ठेके पर नहीं जाएंगे या कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे आपका व्रत भंग हो. जब आप खुद से ही प्रतिबन्ध लगा देंगे अपने ऊपर तो ऐसे में दुकान बंद करने का औचित्य समझ से परे हो जाता है.
खाने की आदतों के बारे में डेटा क्या कहता है?
अब हमारे माननीय कमिश्नर साहब ने मीडिया से कहा है कि नगर के 99 प्रतिशत लोग इन दिनों में ‘लहसुन प्याज़ तक भी नहीं खाते हैं.’ अगर ऐसा है तो इन दुकानदारों की तो आमदनी वैसे ही बंद हो जाएगी. फिर आपको शटर बंद कराने की क्या ज़रूरत? अब ये 99 का आंकड़ा कहां से आया यह तो हमको मालूम नहीं, लेकिन इस सन्दर्भ में मैं कुछ आंकड़े आपके समक्ष रखना चाहूंगा.
हाल ही में CSDS लोकनीति ने एक जर्मन थिंक टैंक के साथ युवाओं पर सर्वे किया था जिसमें यह पाया गया था कि मुस्लिमों की तुलना में सिखों और हिन्दुओं में व्रत इतने बड़े स्केल पर नहीं रखे जाते जितने . सर्वे में पता चला की 63 प्रतिशत सिख और 19 प्रतिशत हिन्दू युवा कभी व्रत ही नहीं रखते चाहे कोई त्यौहार ही क्यों न हो. और तो और सिर्फ 32 प्रतिशत हिन्दू युवाओं ने कहा था कि वो सिर्फ त्यौहारों के दौरान ही व्रत रखते हैं.
दूसरा, दिल्ली में मांस खाने की आदतें इस तरह के प्रतिबंधों की गुंजाइश नहीं देती हैं. हाल ही में रिलीज़ हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे – 5 के मुताबिक दिल्ली की 3 प्रतिशत आबादी रोज़ मांस-मछली खाती है. रोज़. और लगभग 10 से 15 प्रतिशत लोग रोज़ अंडे भी खाते हैं. तो ये 99 प्रतिशत लोग कहां हैं जो अंडा तो दूर लहसुन प्याज भी नहीं खाते.
लोगों के खाने पीने के मामले में सरकारें दखल न हीं दें तो बेहतर है.
पहले गोहत्या पर प्रतिबंध वाला कानून था, लेकिन अब आग की लपटें अन्य मांसाहारी उत्पादों की ओर बढ़ रही हैं. यह प्रोटीन की कमी वाले देश के लिए घंटी बजनी चाहिए, जहां आधे बच्चे एनीमिया और कुपोषण से पीड़ित हैं वास्तव में, आपको इतनी दूर देखने की भी आवश्यकता नहीं है तब जब आईएमआरबी के 2017 के एक शोध में कहा गया है कि दिल्ली की करीब 60 फीसदी आबादी प्रोटीन की कमी से पीड़ित है.
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दिल्ली का खराब चित्रण
और देश की प्रगति के लिए भी ऐसे कदम उचित नहीं हैं. एक तरफ हम चाहते हैं क़ी देश में कारोबार फ़ूले-फले, मीट भी ऑनलाइन बाइक जैसे लीशियस वगैरह पे बिका करता है और दूसरी तरफ हम अपने ही व्यापारियों को डरा धमका रहे हैं की दुकानें एक दम से बंद करो नहीं तो कार्रवायी की जाएगी.
सोशल मीडिया पर इस फैसले के समर्थकों की दलीलें यह हैं कि सऊदी अरब और अन्य इस्लामिक देशों में रमज़ान पर खाने पीने की दुकानें बंद की जा सकती हैं तो भारत में नवरात्रों के दौरान ऐसा क्यों नहीं हो सकता. ऐसे लोगों से मेरा सवाल है – हमको उनके नक्शे कदम पर चलना ज़रूरी है क्या? हम क्यों भारत को एक कट्टर देश बनाने की कोशिश कर रहे हैं?
मैं इन दिनों में खुद तो मीट नहीं खाता लेकिन उसी दौरान मैं यह हरगिज़ नहीं चाहता कि मेरी श्रद्धा के नाम पर किसी भी व्यक्ति को निराशा का सामना करना पड़े. इस तरीके से तो आप किसी भी त्यौहार, धर्म या संस्कृति को मान-सम्मान नहीं दिला पाएंगे, घृणा ज़रूर बढ़ा देंगे. दिल्ली के पड़ोसी ग़ाज़ियाबाद की मेयर ने एक दिन में ही मीट बैन के फैसले को वापिस ले लिया था, उम्मीद है कि दिल्ली में भी यह फैसला वापिस ले लिया जाएगा.
यहां व्यक्त विचार निजी है
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