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Monday, 25 November, 2024
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खरीफ की अधिक खरीद की वजह सिर्फ पंजाब नहीं, तेलंगाना के आंकड़ों पर तो नजर डालिए

भारत में पैदा हुआ लगभग आधा (49.12 प्रतिशत) चावल, सरकारी एजेंसियों ने ख़रीद लिया. देश में किसी भी फसल का आधा उत्पादन सरकार द्वारा ख़रीद लिया जाना, इस बात को दर्शाता है कि मुक्त बाज़ार निष्क्रिय पड़ा हुआ है.

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2020-21 के खरीफ मार्केटिंग सीज़न ने चावल की ख़रीद के सभी पिछले रिकॉर्ड तोड़ दिए, जिसमें सरकार ने अक्टूबर 2020 और सितंबर 2021 के बीच, 600.65 लाख टन चावल की ख़रीद की. ख़रीफ का नया मार्केटिंग सीज़न (केएमएस) 1 अक्टूबर को शुरू हो गया है.

2021-22 के लिए पहले अग्रिम अनुमान के हिसाब से 2020-21 में चावल का कुल उत्पादन 1,222.7 लाख टन था. नीति आयोग के एक वर्किंग ग्रुप (2018) ने 2020-21 में, कुल घरेलू मांग का अनुमान 1,100 लाख टन लगाया था. इस वर्ष के दौरान भारत से 177 लाख टन चावल निर्यात किया गया.

भारत में पैदा हुआ लगभग आधा (49.12 प्रतिशत) चावल, सरकारी एजेंसियों ने ख़रीद लिया. देश में किसी भी फसल का आधा उत्पादन सरकार द्वारा ख़रीद लिया जाना, इस बात को दर्शाता है कि मुक्त बाज़ार निष्क्रिय पड़ा हुआ है.

अक्टूबर 2016 में, केंद्र सरकार ने राइस मिलों पर लेवी को बंद कर दिया था. उसके बाद से, सरकारी एजेंसी किसानों से धान ख़रीदती हैं, और उसे राइस मिलों को सौंप दिया जाता है, जो हर 100 किलो धान से क़रीब 67 किलो चावल निकालती हैं. इस चावल को कस्टम मिल्ड राइस (सीएमआर) कहा जाता है.


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धान के लिए न्यूनतम समर्थम मूल्य (एमएसपी) के आश्वासन की वजह से, जब सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध होती हैं, तो किसान इस फसल को बोने लगते हैं.

हालांकि, चावल रबी सीज़न में भी पैदा होता है, लेकिन इसकी मुख्य फसल खरीफ में ही होती है (मोटे तौर पर अक्टूबर से मार्च). 2020-21 में, पहले अग्रिम अनुमान के अनुसार, ख़रीफ में कुल उत्पादन 1,044.1 लाख टन था, जिसमें से 482.35 लाख टन (46.2 ) ख़रीद लिया गया. रबी (अप्रैल से सितंबर) में चावल उत्पादन 178.6 लाख टन था, जिसमें से 118.30 लाख टन (66.2 प्रतिशत) सरकारी एजेंसियों ने ख़रीद लिया. खरीफ और रबी के उत्पादन और उसके बाज़ार पहुंचने में कुछ ओवरलैप होता है, इसलिए इन आंकड़ों में सही से पता नहीं चलता कि खरीफ या रबी की फसलों से कितनी ख़रीद की गई.

चित्र 1: खरीफ मार्केटिंग के मौसम में चावल की खरीद (लाख टन)

पिछले पांच वर्षों में एक स्पष्ट रुझान नज़र आता है, कि रबी में पैदा हुए चावल की ख़रीद कहीं ज़्यादा होती है (फिगर 1). चावल की ख़रीद बढ़ाने के लिए राज्य, विकेंद्रीकृत खरीद योजना (डीसीपी) से मिले लचीलेपन का इस्तेमाल कर रहे हैं. चावल के पारंपरिक उत्पादकों (पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश) पर निर्भर रहने की बजाय, वो इस तरह ख़रीदे गए चावल का इस्तेमाल, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत वितरण के लिए करते हैं.

सिद्धांत में, ख़रीद का डीसीपी सिस्टम पारंपरिक सिस्टम की अपेक्षा सस्ता पड़ता है, जिसके अंतर्गत राज्य सरकारों द्वारा ख़रीदे गए चावल को, भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को सौंप दिया जाता था, जो इसे कमी वाले सूबों को भेजता था. नीति आयोग द्वारा डीसीपी स्कीम का मूल्यांकन, पांच साल से लंबित चल रहा है.


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ग़ैर-पारंपरिक राज्यों ने बढ़ाई चावल की ख़रीद

एक अच्छी बात ये हुई है कि बिहार में, केएमएस 2020-21 में चावल की ख़रीद, पिछले वर्ष के मुकाबले 78 प्रतिशत बढ़ गई, हालांकि इसका आधार नीचा था. तमिलनाडु ने भी अपनी ख़रीद 60 प्रतिशत बढ़ा दी, जबकि पंजाब में ये इज़ाफा 25 प्रतिशत रहा (फिगर 2).

केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए तीन कृषि क़ानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन, 25 नवंबर 2020 को दिल्ली की सीमाओं पर शुरू हुआ था, लेकिन पंजाब में ये आंदोलन जून 2020 में शुरू हो गया था, जब ये अध्यादेश जारी हुए थे. मीडिया में कई ख़बरें थीं जिनमें वरिष्ठ मंत्री, किसानों से हुई अधिक ख़रीद का श्रेय ले रहे थे. इसे ऐसे पेश किया गया कि सरकार, एमएसपी व्यवस्था को जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध है. मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया कि चावल ख़रीद में वृद्धि इसलिए भी थी कि व्यापारी उत्तर प्रदेश जैसे सटे हुए राज्यों से चावल ला रहे थे, जहां शुरुआत में ख़रीद का काम ठीक से सुव्यवस्थित नहीं था.

तेलंगाना रबी में चावल का बड़ा ख़रीदार बनकर उभरा

अगर पूरे केएमएस का हिसाब लगाया जाए, तो पिछले तीन सालों में चावल ख़रीद की असली कहानी, रबी फसल में चावल की ज़्यादा ख़रीद है, जिसमें क़रीब 70 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है- जो केएमएस 2018-19 के 69.21 लाख टन से बढ़कर, 2020-21 में 118.3 लाख टन पहुंच गई.

तेलंगाना ने रबी सीज़न में 61.8 लाख टन चावल की ख़रीद की, जो देश में सबसे अधिक थी, जिसके बाद आंध्र प्रदेश (37.17 लाख टन), तमिलनाडु (12.10 लाख टन), और ओडिशा (9.81 लाख टन) थे.

फिगर 2: प्रमुख चावल उत्पादक राज्य जिनमें ख़रीद बढ़ी है

पंजाब के बाद तेलंगाना, केंद्रीय पूल में चावल का योगदान देने वाला दूसरा सबसे बड़ा सूबा बन गया है. केएमएस 2020-21 में खरीफ और रबी दोनों में, तेलंगाना ने 94.53 लाख टन चावल की ख़रीद की.

जून 2014 में तेलंगाना एक अलग राज्य बन गया. केएमएस 2014-15 में इसने केवल 35 लाख टन के क़रीब चावल ख़रीदा था. चावल उत्पादन में वृद्धि और उसके नतीजे में ख़रीद बढ़ने का कारण, कालेश्वरम और देवादुला जैसी कई सिंचाई योजनाओं के पूरा होने को बताया जाता है. मिशन काकतिया के तहत टैंकों के फिर से चालू करने को भी एक कामयाबी माना जाता है. 2019-20 में, क़रीब 50 प्रतिशत कुल बुवाई क्षेत्र सिंचाई में था, जो 2014-15 के 39 प्रतिशत से बढ़ गया था. चावल का क्षेत्र 2014-15 के 14.2 लाख हेक्टेयर से बढ़कर, 2019-20 में 20.1 लाख हेक्टेयर हो गया. इसी अवधि में न्यूट्री-अनाज के बुवाई क्षेत्र में कमी आई है.

ज़्यादा क्षेत्र के बुवाई में आ जाने का एक कारण ये है, कि जनवरी 2018 से खेती के लिए मुफ्त बिजली देने का फैसला लिया गया. इसमें पंजाब में भूजल स्तर पर मुफ्त बिजली के विनाशकारी नतीजों के अनुभवों को बिल्कुल नकार दिया गया. तेलंगाना में मुफ्त बिजली के दीर्घकालिक असर, निकट भविष्य में सामने आ सकते हैं.

आगे का रास्ता

अगस्त 2021 के अंत तक, केंद्रीय पूल का भंडार 786.2 लाख टन था, जो पिछले वर्ष से क़रीब 86 लाख टन अधिक था. प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना के तहत (पीएमजीकेएवाई) के तहत 282.8 लाख टन खाद्यान्न के अतिरिक्त आवंटन के बावजूद, केंद्रीय पूल में बफर नियमों की अपेक्षा भारी सरप्लस बना रहेगा.

पंजाब के मामले में, प्रभावी आवाज़ें दशकों से लिखती आ रही हैं, कि किसानों को प्रोत्साहन देकर उन्हें चावल से हटाने की ज़रूरत है. वो कहते आ रहे हैं कि कृषि-जलवायु संबंधी विचारों के आधार पर, पंजाब चावल की खेती ख़ासकर आम (ग़ैर-बांसमती) क़िस्मों के लिए उपयुक्त नहीं है, तेलंगाना के बारे में विद्वानों ने अभी तक ऐसी दलीलें नहीं दी हैं. ग्राउंड वॉटर इयर बुक 2020-21 के अनुसार, तेलंगाना के 584 मंडलों में से 70 मंडलों का काफी अधिक दोहन हो चुका है, 67 मंडल नाज़ुक स्थिति में हैं, 169 मंडल अर्ध-नाज़ुक हैं, और केवल 278 मंडल सुरक्षित कैटेगरी में हैं.

निर्वाचन आयोग की ओर से उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, और पंजाब में (चुनाव फरवरी-मार्च 2022 में होने हैं) चुनावी तारीख़ों के ऐलान से पहले, किसान आंदोलन के कुछ समाधान निकलने की अपेक्षा की जा सकती है. इसमें ये भी हो सकता है कि तीनों कानूनों को, 2024 के लोकसभा चुनावों तक ठंडे बस्ते में रहने दिया जाए. लेकिन कम पानी वाले राज्यों में, चावल के अत्यधिक उत्पादन और ख़रीद की स्थिति में, निकट भविष्य में कोई बदलाव नहीं आने वाला है. जब तक चावल पैदा करने का प्रोत्साहन दूसरी फसलों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बना रहेगा, तब तक किसान चावल उगाते रहेंगे.

पंजाब के किसानों को चावल की जगह दूसरी फसल लगाने के लिए प्रोत्सहित करना होगा. उन्हें चावल से हटाने की ज़रूरत है. इसके लिए वित्तीय सहायता जरूर होगी जिसको राज्य सरकार अपने बजट से पूरा नहीं कर पायेगी. इसलिये केंद्र को आगे आकार राज्यों के साथ मिल कर एक पैकेज तय करने की जरूरत है. मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में ये एक मुश्किल काम लगता है.

(लेखक एक रिटायर्ड केंद्रीय कृषि सचिव हैं और इंडियन काउंसिल फॉर इंटरनेशनल इकनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) में विज़िटिंग सीनियर फेलो हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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