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Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमतISIS मामले में पुणे के डॉक्टर की गिरफ्तारी से पता चलता है कि 'चरमपंथी हमेशा पीड़ित नहीं होते हैं'

ISIS मामले में पुणे के डॉक्टर की गिरफ्तारी से पता चलता है कि ‘चरमपंथी हमेशा पीड़ित नहीं होते हैं’

डॉ. अदनान अली सरकार वैसा जीवन जी रहे थे जिसे कई लोग 'सपने जैसा जीवन' कहते हैं. तो फिर चीजें कहां गलत हुईं?

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पुणे के जाने-माने एनेस्थेसियोलॉजिस्ट डॉ. अदनान अली सरकार को 27 जुलाई को राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने हिरासत में लिया था. सरकार के पास कथित तौर पर आईएसआईएस से संबंधित “आपत्तिजनक सामग्री” मिली थी. पुणे के मेडिकल सर्कल में एक प्रमुख चेहरे के रूप में प्रसिद्ध सरकार ने बी.जे. मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस और एमडी की डिग्री पूरी की और गोल्ड मेडलिस्ट रह चुके हैं. उनके पास एक नागरिक को मिलने वाले सभी अधिकार और अवसर थे, लेकिन फिर भी चीजें कहां गलत हुईं?

अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि कट्टरवाद ऐसे वातावरण में पनपता है जहां व्यक्ति सामाजिक बहिष्कार, आर्थिक रूप से कमजोर और राजनीतिक मुश्किलों का सामना करता है. ये सभी कारक चरमपंथी विचारधाराओं को पनपने के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करते हैं. लेकिन अदनान अली सरकार को ऐसी किसी भी परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा. वह उसे तरह से अपना जीवन यापन कर रहे थे जिसे कई लोग ‘सपने जैसा जीवन’ कहते हैं.

यह स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति के उग्रवाद की ओर बढ़ने के पीछे अन्याय एक कारण हो सकता है, लेकिन यह हमेशा सच नहीं होता है. सरकार का मामला इसका एक प्रमाण है. एक व्यक्ति सुखद जीवन का आनंद ले रहा हो और फिर भी कट्टरवाद की ओर बढ़ जाता है. यह उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है कि कई व्यक्तियों को गंभीर अन्याय और गंभीर परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन वे फिस भी ऐसे रास्ते पर नहीं जाते हैं.

अब, यह संभव है कि सरकार जैसे सफल लोग भी शिकायतें रख सकते हैं या खुद को अन्याय झेलने वाला मान सकते हैं, चाहे वह व्यक्तिगत, सामाजिक या राजनीतिक हो. लेकिन ऐसी शिकायतें ‘पीड़ित’ होने की कहानी से उपजी हैं, जो लगातार इस्लामवादी विचारधारा का पोषण करते हुए एक समुदाय को पीड़ित के रूप में चित्रित करती है. इस बात की भी संभावना है कि धार्मिक मान्यताओं में हेरफेर किया जा सकता है और गलत अर्थ निकाला जा सकता है, जिससे पढ़े-लिखे और समझदार लोगों को भी यह विश्वास हो जाता है कि चरमपंथी गतिविधियों में शामिल होना उनका धार्मिक दायित्व है.

इस्लामी शिक्षाओं की कई व्याख्याएं हो सकती हैं. सीधे तौर पर यह कहने के बजाय कि आईएसआईएस के सदस्य आस्था के सच्चे अनुयायी नहीं हैं, हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि वे इस्लाम की अपनी विशेष व्याख्या को मानते हैं. वो इस्लाम के मुख्यधारा में विश्वास नहीं रखते हैं. यह कहना गलत होगा कि इस्लामिक स्टेट का “इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है” – इस तरह का लेबलिंग आईएसआईएस द्वारा तैनात तक्फिरवाद या पूर्व-संचार की रणनीति को दिखाता है. जहां वे हर उस व्यक्ति को धर्मविरोधी घोषित कर देता है जो जो धर्म की उनकी व्याख्या को नहीं मानता है. 

दुनिया भर के अधिकांश मुसलमान आईएसआईएस की विचारधारा और कार्यों को स्वीकार नहीं करते हैं. लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो आईएसआईएस जैसे चरमपंथी समूहों के साथ जुड़कर अपने राष्ट्र के साथ विश्वासघात करते हैं, जो एक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का विरोध करता है और एक ऐसे इस्लामी राज्य का सपना देखता है जो राष्ट्रीय सीमाओं से परे हो. सऊदी अरब जैसे मुस्लिम-बहुल देश आईएसआईएस को ख्वारिज या पथभ्रष्ट समूह कहकर खारिज करते हैं. यदि सरकार के खिलाफ एनआईए के दावे सही साबित होते हैं, तो यह सुझाव देगा कि आईएसआईएस की कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा भारत में घुसपैठ करने में कामयाब रही है. यह वास्तव में एक गहन चिंतनीय विकास होगा.


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कट्टरवाद को अस्वीकार करें, ‘वतनिया’ को अपनाएं

भारत के लिए खतरा पैदा करने वाली विचारधारा से निपटने के लिए हमें एक वैचारिक लड़ाई में शामिल होने की आवश्यकता है. आतंकवाद विरोधी विशेषज्ञ और द मिल्ली क्रॉनिकल के संस्थापक ज़हाक तनवीर का कहना है कि यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि शिक्षा रातोरात नहीं आती है, यह धीरे-धीरे विकसित होता है. मूल में यह विश्वास है कि एक खलीफा के पास जादुई समाधान है, जो मुस्लिम दुनिया के सभी मुद्दों को ठीक करने की क्षमता रखता है. ऐसी विचारधारा से जुड़े व्यक्ति शासी निकायों के प्रति असंतुष्ट रहते हैं, गैर-मुस्लिम अधिकारियों की आज्ञा मानने से मना करते हैं और मुस्लिम सरकारों को अपर्याप्त रूप से इस्लामी मानते हैं.

आज, इन विचारों का विरोध करने वाले किसी भी मुस्लिम को ‘डॉलर के लिए विद्वान’ या ‘सरकार द्वारा नियुक्त मुस्लिम’ करार दिया जाता है.

इसका समाधान मुस्लिम समाज के भीतर से निकलना चाहिए. विद्वानों और उलेमाओं की जिम्मेदारी है कि वे युवाओं को वतनिया या देशभक्ति के महत्व के बारे में बताएं और शिक्षित करें. इसमें राष्ट्रवाद को अपनाना, देश के हितों को प्राथमिकता देना और मौजूदा संस्थानों को प्रतिष्ठान के साथ जोड़ना शामिल है.

मदरसा अधिकारियों और मस्जिद अधिकारियों को सक्रिय रूप से इस्लामी शिक्षाओं और विचारधारा की निगरानी करनी चाहिए और उनके लिए जवाबदेही माननी चाहिए. मुस्लिम ब्रदरहुड, अल-कायदा, हिजबुल्लाह, हमास और आईएसआईएस जैसे आतंकवादी समूहों के साथ जुड़ने के खतरों के बारे में युवा मन को जागरूक करने के लिए लगातार और उचित शैक्षिक पहल लागू की जानी चाहिए.

एक अन्य महत्वपूर्ण काम किसी विशेष समुदाय से संबंधित व्यक्तियों का सामान्यीकरण करने की प्रवृत्ति का मुकाबला करना और कट्टरपंथी वामपंथियों द्वारा जारी पीड़ित मानसिकता का मुकाबला करना है. जिस तरह मुसलमानों के बारे में व्यापक सामान्यीकरणों को खारिज करने की जरूरत है, उसी तरह कुछ कट्टरपंथियों के कार्यों के लिए हिंदुओं को व्यापक रूप से वर्गीकृत करने से भी बचना चाहिए.

सरकार की गिरफ्तारी से पता चलता है कि मुस्लिम समाज में कट्टरपंथ के मुद्दे पर ध्यान देने की जरूरत है. हालांकि एनआईए अभी तक अपने निष्कर्ष पर नहीं पहुंची है, लेकिन यह याद रखना चाहिए कि किसी भी चरमपंथी समूह में शामिल होने के कारण अलग-अलग होते हैं और अक्सर एक-दूसरे से जुड़े होते हैं. इस घटना का मुकाबला करने के लिए एक बहु-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो समावेशिता, शिक्षा और सामुदायिक जुड़ाव को बढ़ावा देते हुए मनोवैज्ञानिक, सामाजिक-राजनीतिक और वैचारिक कारकों को संबोधित करे.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वे ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक वीकली यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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