अगर आपने प्रधानमंत्री का चुरु वाला भाषण सुना होगा, तो आपके मन में ये सवाल जरुर कौंधेगे. सभा सेवा-निवृत सैनिकों की, इलाका ऐसा कि जहां सेना में तैनात और सेना से रिटायर हो चुके सैनिकों की बहुतायत है और दिन बालाकोट पर हमले का- क्या इसे सिर्फ संयोग माना जाय ? सभा में बोलते हुये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मंशा साफ जाहिर थी- वे अगले चुनाव में बालाकोट पर हमले के मुद्दे को भुनाने में कोई भी कोर-कसर बाकी नहीं रखने वाले! यों तो उन्होंने ना बालाकोट का नाम लिया और ना ही पुलवामा का. ऐसा करने की भला जरुरत भी क्या रह गई थी. मंच की पृष्ठभूमि में 40 जवानों के फोटोग्राफ्स सुशोभित थे.
बालाकोट की खबर अभी लोगों के जेहन में ताजा थी. हाथ आये मौके को प्रधानमंत्री क्यों गंवाते भला, उन्होंने मौके का भरपूर इस्तेमाल किया- नाटकीय भाव-भंगिमा का सहारा लिया, भीड़ में जोश का जज्बा जगाने की भरपूर कोशिश की. लेकिन प्रधानमंत्री के चुरु वाले भाषण में पीएम-किसान और आयुष्मान भारत का जिक्र नहीं आया ताकि कांग्रेस सरकार को कहीं कुछ कहने का मौका ना मिल जाये. लेकिन भाषण का मुख्य स्वर बिल्कुल साफ था कि हे जनता जनार्दन ! आप राष्ट्र की सुरक्षा के मामले में मुझपर विश्वास कर सकते हैं. और, बिना किसी लिहाज की ओट लिये मोदी ने सभा में साफ कहा भी कि : राष्ट्र सुरक्षित हाथों में है.
टीवी चैनल, स्टूडियों में चलने वाली देशभक्ति की प्रतिस्पर्धा में एक-दूसरे को मात देने पर तुले हुये थे और इस होड़ में बाकि सारी बातें भुला दी गईं. अब बस यह दो दिन पहले ही की तो बात है जब ‘चरण-पखारन’ की उनकी कवायद को सफाई कर्मचारियों के आंदोलन और संगठनों ने अपनी तीखी आलोचना के निशाने पर लिया था. लेकिन बालाकोट हमले के गर्द में यह आलोचना दब गई. कुछ वक्त के लिए किसानों का सवाल भी किनारे हो गया है.
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बीजेपी बड़े चुपचाप तरीके से चुनावी आचार संहिता को धता बताने के रास्ते तलाश रही है ताकि पीएम-किसान योजना के तहत दी जाने वाली राशि की दूसरी किश्त के 2000 रुपये चुनाव के दिन के ऐन पहले किसानों के खाते में पहुंचा सके. रोजगार के मोर्चे पर बदहाली का मंजर बदस्तूर बना हुआ है लेकिन बेहयाई देखिए कि सरकार इसे भी एक किनारे सरकाने में लगी है- कहानी यह पढ़ायी जा रही है कि ईपीएफओ के नये आंकड़ों के सहारे तस्वीर बनाइए कि रोजगार किस तादाद में पैदा हुआ और इस कहानी के सहारे नौकरियों के सिलसिलेवार खत्म होते जाने के पुष्ट प्रमाणों को नकारा जा रहा है. बेरोजगारी की कथाएं भी मीडिया की सुर्खियों से बाहर हो गई हैं. और, मिराज के करतब के किस्सों के आगे रफायल की कहानी फीकी पड़ गई है.
बीते तीन महीनों से चुनाव का कथानक बीजेपी के हाथों से दूर छिटक चला था. उम्मीद बंधी थी कि लोकसभा का अगामी चुनाव जन-सामान्य के वास्तविक मुद्दों पर लड़ा जाने वाला पहला आम चुनाव होगा- इसमें किसानों के दुख-दर्द और बेरोजगारी का मुद्दा उभरेगा. लेकिन पुलवामा और बालाकोट की कहानियों से चुनाव के वास्तविक मुद्दों के पटरी से उतरने का अंदेशा पैदा हो गया है. बीजेपी के पंच ‘मकार’ में मोदी के नाम के साथ-साथ पार्टी की चुनावी मशीनरी, मुद्रा(धन)-बल, मीडिया और मंदिर शामिल हैं लेकिन बालाकोट की घटना के बाद तुरुप के इन पांच पत्तों में शामिल ‘मंदिर’ की जगह ‘मिराज’ ने ले ली है. चुनाव का कथानक एक बार फिर से बीजेपी के हाथ में आ गया है.
लेकिन चुनाव के दिन तक यही मंजर चलता रहे यह जरुरी नहीं. मैंने अपने इस कॉलम में पहले भी लिखा है कि बीजेपी के लिए यह चुनाव हिमालय की चढ़ाई करने जैसा कठिन साबित होगा. बीजेपी को दोबारा सत्ता में आने के लिए हिन्दीपट्टी में फिर से उसी तादाद में वोट हासिल करने होंगे जिस तादाद में 2014 में उसकी झोली में वोट गिरे थे- हिन्दीपट्टी में बीजेपी 2014 में वोटों मामले में अपने चरम पर पहुंच चुकी थी.
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एक बार सियासी माहौल फिर से सम पर आता है और राजनीति अपने बुनियादी मुद्दों पर लौट आती है तो बीजेपी के लिए वोटों का यही चरमोत्कर्ष नुकसान का सबब साबित होगा. चुनाव का कथानक राज्यों के अखाड़े में लौट आयेगा और ऐसा होना बीजेपी को माफिक नहीं पड़ता. राहुल गांधी के ऊपर नरेन्द्र मोदी को जो शुरुआती बढोतरी हासिल थी वो अब कम पड़ती जा रही है, मुकाबले के मैदान में अब वह निर्णायक नहीं रह गई. शासन से लोगों की ऊब भी अब साफ जाहिर हो रही है. बीजेपी ने पिछले चुनाव में 282 सीटें जीती थीं और पिछली जीत के इस आंकड़े से कम से कम 100 सीटें तो इस बार जरूर ही खिसकने जा रही हैं- 100 से ज्यादा भी खिसक सकती हैं.
हां, इधर राहुल गांधी या फिर उधर इमरान खान कुछ और ही तय कर बैठते हैं तो फिर बात अलग है!
बात इमरान खान के हाथ में है- वे चाहें तो सीमा पर कायम तनाव के माहौल को जारी रखें और इस तरह भारत में होने जा रहे आम चुनाव की थाली नरेन्द्र मोदी के हाथ में थमा दें. उन्हें खूब पता है कि जैश-ए-मोहम्मद को पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी की सरपरस्ती हासिल है.
इस अहसास के साथ या फिर यह सोचकर कि मसले पर पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मदद नहीं मिलने वाली- अगर इमरान खान बालाकोट के मुद्दे को तूल नहीं देते, दरकिनार कर चलते हैं या फिर जवाब के तौर पर कोई असैनिक रवैया अख्तियार करते हैं तो फिर मोदी के लिए मामले को मतदान के समय तक गरमाये रखना मुश्किल होगा. लेकिन इमरान खान ने बड़ी जतन से अपनी छवि एक ‘पठान’ की गढ़ी है- सो ऐसा कर पाना उनकी इस पठान छवि के माकूल नहीं पड़ता. एक अहम बात यह भी है कि पाकिस्तान सेना की पाकिस्तान के अवाम के आगे किरकिरी हुई है सो पाकिस्तान फौज के लिए बालाकोट की घटना को पचा पाना मुश्किल होगा.
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जाहिर है, पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान के सामने जवाबी कार्रवाई करने का भरपूर उकसावा मौजूद है. पाकिस्तान की तरफ से ऐसा होता है तो फिर भारत की ओर से भी पलटवार होगा और घात-प्रतिघात का सिलसिला चल निकलेगा- महाद्वीप एकदम से युद्ध के कगार पर पहुंच जायेगा. इसका मतलब होगा- हमलोग युद्ध के बनते माहौल के बीच चुनाव में भागीदारी कर रहे होंगे. या फिर, चुनाव की तारीख आगे सरका दी जायेगी. ये दोनों ही बातें मोदी के फायदे में जाती हैं.
अगर मंजर ऐसा बन पड़ता है तो फिर बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि विपक्ष मसले को लेकर क्या रुख अख्तियार करता है. विपक्ष भारी भूल के फंदे में फंसकर चुनाव को एक तरह से मोदी को उपहार में सौंप सकता है. वह हाथ पर हाथ धरे बैठा रह सकता है- यह मानकर चल सकता है कि आगे जो होना है सो तो आखिर होकर ही रहेगा. या फिर, विपक्ष मुकाबले में डटा रह सकता है- चुनावी कथानक को फिर से अपने पाले में खींचकर वापस ला सकता है.
फिलहाल, राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर विपक्षी पार्टियां सकते में नजर आ रही हैं. ऐसा नहीं है कि विपक्ष के पास अपने हक में कहने लायक कुछ नहीं बचा. आखिर कांग्रेस के शासन में रहते भारत ने 1965 और 1971 में पाकिस्तान से जंग लड़ी और जीती थी. इसके इतर बीजेपी का रिकार्ड बड़ा पोला नजर आता है. करगिल का अभियान तो खैर कामयाब रहा लेकिन यह भी याद करें कि ‘करगिल’ की नौबत आयी कैसे- दरअसल, एनडीए सरकार से सुरक्षा के मोर्चे पर हुई भारी चूक का नतीजा था करगिल-युद्ध. और, अभी की परेशानी का जो असली सबब मसूद अजहर हैं, उसे एनडीए की सरकार ही विमान-अपहरण वाले प्रकरण में कांधार तक छोड़ के आयी थी.
राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर मोदी सरकार के पास उपलब्धी के तौर पर गिनाने लायक चीजें ना के बराबर हैं. जो पहला ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ अंजाम दिया गया था, उसके क्या नतीजे रहे- यह आज दिन तक साफ नहीं हो सका है. जमीनी तौर पर होता तो यही नजर आया कि सीमा-पार से होने वाली घुसपैठ, आतंकी घटनाएं, आमजन और फौज के जवानों की मौत के वाकये उस खूब-प्रचारित सर्जिकल स्ट्राइक के बाद दोगुनी-तिगुनी तादाद में बढ़ गये.
पुलवामा की घटना को लेकर सुरक्षा के मोर्चे पर हुई चूक को लेकर गंभीर सवाल उठ खड़े हुये हैं. और, बालाकोट के हमले को लेकर भी सरकार को कड़ी मशक्कत करनी होगी- उसे साबित करना होगा कि सचमुच आतंकियों का कोई अड्डा इस हमले में ताबाह हुआ. आतंकवादियों के सफाये की बात तो खैर रहने ही दें. साफ जाहिर है कि यह सरकार इस गंभीर मसले पर राष्ट्रीय सर्व-सहमति बनाने के पक्ष में नहीं है. सरकार एकपक्षीय भूमिका निभाती दिखना चाहती है, मसले का इस्तेमाल चुनाव जीतने के लिए करना चाहती है.
लेकिन मसले पर बीजेपी की काट कर पाने के एतबार से देखें तो कांग्रेस कहीं आस-पास भी नजर नहीं आ रही. इसकी एक बड़ी वजह तो यही है कि आजादी के बाद के वक्त के अभिजन तबके ने राष्ट्रवाद की धारणा को बड़े हल्के में लिया और समाज का जो प्रगतिशील तबका था उसने राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल पर कुछ वैसी ही तटस्थता दिखायी जो किसी संत को ही शोभा देती है.
( मैंने यह तर्क इस कॉलम में पिछले हफ्ते भी दिया था. पिछले लेख पर बड़ी तीखी टिप्पणियां आयी हैं, ऐसी तीखी टिप्पणी करने वालों में मेरे वे दोस्त भी शामिल हैं जिनके प्रति मेरे मन बड़ा सम्मान का भाव है. शायद लेख में आत्म-आलोचना की जो कोशिश थी उसके लिए पुलवामा की घटना को चुनना उन्हें सही ना लगा होगा या फिर दोस्तों ने यह मान लिया कि उदारपंथी धारा की राजनीति की मेरी आलोचना एकपक्षीय है). एक वजह यह भी है जो राहुल गांधी समेत, नई पीढ़ी के नेताओं को राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे का ‘अगुआ’ नहीं माना जाता.
अगर राहुल गांधी चुनावी कथानक को अपने पाले में खींच लाना चाहते हैं तो उन्हें मोदी की मीन-मेख निकालने के लोभ का संवरण करना होगा. विपक्ष यह नहीं मानकर चल सकता कि वह अपने को लोगों के बीच बीजेपी से ज्यादा राष्ट्रवादी साबित कर पायेगा. कम से कम चुनाव की घड़ी तक ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं.
राहुल गांधी को इस मुद्दे की हवा निकालनी होगी, मुद्दे को खींचकर ‘राष्ट्रीय सर्व-सहमति’ के अखाड़े में लाना होगा- एक बार फिर से चुनावी मुकाबले के कथानक की धुरी अर्थव्यवस्था पर टिकानी होगी. ऐसा करना आसान काम नहीं क्योंकि राहुल का सामना राजनीति के धुरंधर नरेन्द्र मोदी से है. और, चुनावी कथानक को बदलने के एतबार से राहुल के पास अब वक्त भी कोई ज्यादा नहीं.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)