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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतकाश अखिलेश समझ पाते पब्लिक उन्हें 'साइकल' पर संघर्ष करते देखना चाहती है लग्जरी गाड़ी में नहीं

काश अखिलेश समझ पाते पब्लिक उन्हें ‘साइकल’ पर संघर्ष करते देखना चाहती है लग्जरी गाड़ी में नहीं

अखिलेश को शायद इसका अंदाजा भी नहीं होगा कि सर्वणों में उनकी लोकप्रियता कितनी है. मेरे मुताबिक वह मोदी के बाद यूपी में दूसरे सबसे पाॅपुलर नेता हैं. लेकिन 2019 चुनाव का उनका पूरा पाॅलिटकल कैंपेन 'एंटी सर्वण' दिखा.

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पिछले पांच साल से अखिलेश यादव को करीब से कवर किया है. उनसे कभी लंबी बातचीत तो नहीं हुई. लेकिन एक पत्रकार के तौर पर आब्जर्व काफी किया है. शायद ही इस बीच कोई प्रेस काॅन्फ्रेंस या रैली छूटी हो. लगभग सभी में उनको देख समझा है. लोग पूछते हैं कि मुख्यमंत्री अखिलेश और विपक्ष वाले अखिलेश दोनों में क्या फर्क है ? फर्क होना चाहिए भी या नहीं ? ये सवाल जब जहन में आता है तो जवाब निकलता है. हां फर्क होना चाहिए. क्योंकि सत्ता और विपक्ष की स्थितियों में बेहद फर्क होता है. लेकिन अखिलेश ये अभी तक नहीं समझ पाए हैं.

अखिलेश भले ही 2017 चुनाव बुरी तरह हार गए हों. लेकिन मैं उनके शासनकाल को फ्लाॅप नहीं मान सकता. खासतौर से युवाओं और महिलाओं में आज भी उनके दौर के किए गए काम की सराहना होती है. ये तबका वोट भले ही बीजेपी को करता हो. लेकिन अखिलेश यादव से किसी को बैर नहीं. अब बात करते हैं दूसरी तस्वीर की…यानि विपक्ष वाले अखिलेश…इस तस्वीर में मुझे अखिलेश राहुल गांधी से ज्यादा फ्लाॅप नजर आते हैं. कांग्रेस का तो यूपी में संगठन नहीं. लेकिन सपा के पास यूपी में कांग्रेस, बसपा, आरएलडी से बड़ा संगठन था. चाचा शिवपाल ने थोड़ा डैमेज जरूर किया, लेकिन इसके बावजूद बीजेपी के बाद सबसे बड़ा संगठन सपा का ही है.


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अखिलेश पिछले 2.5 साल में इसकी ताकत ही नहीं समझ पाए. वो उस ‘जवानी कुर्बान’ गैंग से घिर गए हैं. जिसकी टोपी तो समाजवादी है लेकिन समाजवाद से उसका कोई नाता नहीं. उसने ‘नेताजी’ वाली सपा को माॅडर्न लुक देने में पूरी पार्टी का शेप ही बिगाड़ दिया…लेकिन अखिलेश को सत्ता में रहते ही सपा का ये माॅडर्न लुक भा गया. उन्होंने विपक्ष में आने पर भी इसी माॅडर्न लुक के सहारे राजनीति शुरू कर दी. पैदल की जगह लग्जरी गाड़ियों ने ले ली. यहां तक की ‘साइकल’ भी दूर होती गई. गली नुक्कड़ पर संवाद के बजाए कार्यालय बुलाकर एसी हाॅल में मीटिंग, फोन के बजाए ट्वीट. पुराने कार्यकर्ताओं के बजाए नए चटुकार…आदि-आदि…ये नई सपा की पहचान बन गई. दो साल से अधिक समय से विपक्ष में रहने के बावजूद एक भी आंदोलन सड़क पर अखिलेश ने लीड नहीं किया.

प्रेस काॅन्फ्रेंस के बीच में नेताओं का ‘अखिलेश भैया जिंदाबाद ‘ के नारे हों या ‘ये जवानी कुर्बान अखिलेश भैया तेरे नाम’ का स्लोगन अखिलेश इनसे मंत्रमुग्ध होने लगे. उन्होंने खुशी-खुशी समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे ‘समाजवादियों’ की जगह इस स्लोगन गैंग को दे दी. इसके बाद सपा की राजनीति कुछ-कुछ चुनिंदा विश्वविद्यालय, कुछ सोशल मीडिया प्लेटफार्म व पार्टी कार्यालय तक ही सीमित रह गई. वहीं दूसरी ओर बीजेपी घर-घर तक पहुंच गई.

अखिलेश को शायद इसका अंदाजा भी नहीं होगा कि सर्वणों में उनकी लोकप्रियता कितनी है. मेरे मुताबिक वह मोदी के बाद यूपी में दूसरे सबसे पाॅपुलर नेता हैं लेकिन 2019 चुनाव का उनका पूरा पाॅलिटकल कैंपेन ‘एंटी सर्वण’ दिखा. ये सलाह उनको किस सलाहकार ने दी ये मुझे भी नहीं पता. जिस पिछड़ा वर्ग को वह अपना वोट बैंक मानकर चल रहे थे वो तो 2014, 2017 में ही उनका साथ छोड़ चुका था. उसे मोदी अपने नेता लगते हैं, मुलायम भी लगते थे. लेकिन अखिलेश नहीं. दलितों में बहन जी के बाद अपनी योजनाओं के प्रचार प्रसार के जरिए मोदी ने पैठ बन ली. मुस्लिमों में अखिलेश अभी भी नेता हैं. लेकिन यहां बसपा व कांग्रेस के प्रति भी लगाव है. कुछ मुस्लिम महिलाएं मोदी का नाम लेती भी दिख जाती हैं. अखिलेश जो हर वर्ग के चहेते हो सकते थे. वो विपक्ष में आते ही सबसे दूर हो गए.


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कैंपेनिंग के दौरान योगी के डुप्लिकेट को घुमाना, पूड़ी खाने जैसे ट्वीट पाॅलिटिकल इम्मैच्योरिटी से ज्यादा कुछ नहीं था. अखिलेश को करीब से जानने वाले कहते हैं कि विपक्ष में होने के बावजूद वह ‘सीएम ज़ोन’ से बाहर ही निकल पाए हैं. उनके आस-पास वाले उन्हें इससे निकलने भी नहीं देते और जब तक वह खुद को इस ज़ोन और इल्यूज़न से निकालेंगे नहीं तब तक नतीजे ऐसे ही आएंगे. क्योंकि पार्टी कार्यालय में रहकर विपक्ष की राजनीति नहीं की जा सकती. अगर विपक्ष की राजनीति अभी भी नहीं कर पाए तो 2022 में भी सत्ता का सपना भी चकना चूर हो जाएगा. अखिलेश अभी तक नहीं समझ पाए हैं कि पब्लिक उन्हें ‘साइकल’ पर और सड़क पर सरकार से जूझते हुए देखना चाहती है न कि किसी लग्जरी गाड़ी या एयर कंडिशन्ड कार्यालय में.

(लेखक दिप्रिंट के उत्तर प्रदेश संवाददाता हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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