भारत कोरोनावायरस की महामारी के एक निर्णायक और खतरनाक दौर में पहुंच गया है. देशव्यापी लॉकडाउन में ढील दी जाने के बाद लोगों का ध्यान, मीडिया का फोकस दूसरी चीजों की तरफ मुड़ गया है और राजनीतिक नेताओं की प्राथमिकताएं बदल गई हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान के बाद यह धारणा ज़ोर पकड़ रही है कि लॉकडाउन धीरे-धीरे करके खत्म कर दिया जाएगा और ‘अनलॉक-1’ के बाद ‘अनलॉक-2’ तो होना ही है.
संक्रमण के मामले देश में लगभग हर जगह बढ़ रहे हैं और नये मामलों की संख्या फिर से 18 दिनों में दोगुनी होने लगी है. जिंदगी और जीविका की खातिर लॉकडाउन हटाना जरूरी था लेकिन इसके साथ जरूरी था कि प्रशासन का ध्यान पर्याप्त सोशल डिस्टेंसिंग, सफाई और रोगी के संपर्क में आए लोगों की पहचान पर ज्यादा केंद्रित होता.
लोगों को इस बात के लिए भी तैयार करना जरूरी है कि महामारी अगर और ज्यादा गंभीर हुई तो इलाकाबंदी और लॉकडाउन ज्यादा बढ़ाया जा सकता है. लेकिन यह सब नहीं किया गया. इसलिए, हालांकि बड़ी संख्या में लोग और व्यवसाय वाले प्रशंसनीय रूप से ज़िम्मेदारी के साथ कामकाज कर रहे हैं, मगर भीड़भाड़ वाली जगहों में और बिना मास्क के घूमने वालों में इजाफा हो रहा है. लॉकडाउन के दौरान लोगों में जो संयम देखा गया था वह तेजी से और समय से पहले ही टूट रहा है.
जब तक पूरी तरह खत्म नहीं होता, खत्म हुआ मत मानिए
महामारी को काबू में करने के लिए देशभर में स्थानीय प्रशासन ने पिछले चार महीनों में प्रशंसनीय काम किया. पूरे देश में ‘वार रूम’ बनाकर प्रशासकों और राजनीतिक नेताओं ने जिस तरह काम किया है उसे असाधारण कहा जा सकता है.
उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र और मुंबई में महामारी की गंभीर स्थिति के बावजूद बृहनमुंबई नगरपालिका ने शहर की विशाल झुग्गी बस्ती धारावी में कोरोनावायरस को फैलने से रोकने का प्रशंसनीय काम किया. बस्ती में अप्रैल में संक्रमण 12 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा था, जिसे जून में 1 प्रतिशत पर ले आया गया. यह बताता है कि भारत में प्रशासन अगर किसी काम को मिशन मान कर करे तो वह कहीं बेहतर प्रदर्शन कर सकता है.
इसीलिए हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि अगर मिशन वाली भावना खो गई और ‘चालू काम’ वाला रवैया हावी हुआ तो प्रशासन का काम वापस पुराने ढर्रे पर लौट जाएगा और रोग पर काबू करने के प्रयासों को चोट पहुंचाएगा. पिछले महीनों में जो कुछ हासिल हुआ है वह कोरोनावायरस की तेजी के कारण जल्दी ही खो जाएगा. कई शहरों, खासकर बंगलुरू ने लॉकडाउन के दौरान रोग को फैलने से तो रोक रखा था मगर अब सांस की गंभीर बीमारी (‘सारी’), इन्फ़्लुएंजा जैसी बीमारी (आइएलआइ) और ‘जांच के अंतर्गत’ मामलों की संख्या बढ़ रही है. ये सामुदायिक संक्रमण के स्पष्ट संकेत हैं.
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मीडिया तो कामयाबी की कहानियों की खोज में रहेगा ही मगर इससे बात नहीं बनेगी. पिछले कुछ सप्ताह में कई पत्रकारों ने मुझसे पूछा है कि दूसरे शहरों के मुकाबले बंगलुरू ने अच्छा काम कैसे किया. मेरा जवाब यह था कि राज्य और शहर के कर्मचारी बेशक गंभीरता से काम करते रहे हैं लेकिन अभी निश्चित रूप से तो क्या अनुमान के रूप में भी कुछ कह पाना मुश्किल है. जब तक यह खत्म नहीं हो जाता, इसे खत्म हुआ मत मानिए.
नतीजा तीन बातों— संयोग, दिशा और विकल्प पर निर्भर होगा. किस्मत भी अहमियत रखती है. पिछला इतिहास भी महत्व रखता है. यह भी अहम है कि फैसले कितनी अच्छी तरह लागू किए जाते हैं, लोगों का कितना सहयोग मिलता है. बाद में, समय पूरा होने पर ही हम यह समझ पाएंगे कि कुछ जगहों पर दूसरी जगहों के मुकाबले अच्छा काम क्यों हुआ. इस तरह के जवाब बढ़िया खबर नहीं बनते, इनमें न हीरो हैं, न विलन. मीडिया सफल ‘मॉडलों’ या ‘रणनीतियों’ की बातों से एक तस्वीर भले पेश करे, इससे यह खतरा बढ़ेगा कि लोग जीत का ऐलान करने लगेंगे और इस तरह से कामकाज करने लगेंगे मानो सब कुछ सामान्य हो गया है. समय से पहले खुशी मनाने से बाद में धोखा खाना पड़ सकता है, इससे बचना बेहद जरूरी है.
जरूरी ‘रन रेट’ क्या है
टेस्टिंग, रोगी के संपर्क में आए लोगों की पहचान और रोगी को अलग-थलग रखना- इन तीनों पर वहां ज़ोर देना जरूरी है जहां फिलहाल स्थिति बेहतर दिख रही है, जहां मामलों की संख्या बहुत ज्यादा है और जहां की स्थिति के बारे में हमें कुछ भी पता नहीं है.
नेता और प्रशासक ज्यादा मामले देखना पसंद नहीं करते और इससे भी बुरी बात यह है कि उन जगहों से तुलना तुरंत शुरू हो जाती है जहां स्थिति बेहतर है. इससे मामलों की संख्या कम दिखाने के लिए टेस्टिंग कम कर दी जाती है. इसका नतीजा यह होता है कि अचानक बड़ी महामारी सामने आ जाती है और सामुदायिक संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है.
इसका मुकाबला करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय को टेस्टिंग की दर का एक पैमाना तय करना चाहिए और यह राज्य सरकार पर छोड़ देना चाहिए कि वह कितनी टेस्टिंग करना चाहती है. फिलहाल गोवा में प्रति 10 लाख आबादी पर 33,000, जम्मू-कश्मीर में 23,000, दिल्ली में 18,700 टेस्टिंग हो रही है, जो 5,000 के राष्ट्रीय औसत से ज्यादा ही है.
केंद्र सरकार सभी राज्यों, जिलों, नगरपालिकाओं में प्रति सप्ताह प्रति 10 लाख आबादी पर 2,500 टेस्टिंग का शुरुआती पैमाना तय करे, जब तक कि उनकी पूरी आबादी के न्यूनतम 2 प्रतिशत (प्रति 10 लाख पर 20,000) की टेस्टिंग न कर ली जाए. इस पैमाने को समय-समय पर ऊंचा किया जा सकता है, जब तक कि अपेक्षित टेस्ट पॉजिटिविटी रेट हासिल न हो जाए और यह दर कायम न रहे. भारत को 1 प्रतिशत से कम की टेस्ट पॉजिटिविटी रेट हासिल करने का लक्ष्य तय करना चाहिए (फिलहाल यह 7.8 प्रतिशत है). बेशक इसमें भी ऊपर-नीचे किया जा सकता है. लक्ष्य और पैमाने तय करने से प्रशासक, मीडिया और जनता ‘जरूरी रन रेट’ का पीछा करने के लिए मानसिक तौर पर ‘मिशन मुद्रा’ में बने रहेंगे.
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लक्ष्य ऊंचा रखें
केंद्र सरकार को रोगी के संपर्क में आने वालों की पहचान के लिए भी पैमाने तय करने चाहिए और इसे हासिल करने के लिए बेहतर उपाय साझा करने चाहिए. इसके लिए कोई चलताऊ अधिसूचना नहीं जारी की जाए, जो कि स्वास्थ्य मंत्रालय के नौकरशाह तैयार किया करते हैं, बल्कि यह समस्या से निपटने में राज्यों और स्थानीय प्रशासनों के व्यावहारिक अनुभवों पर आधारित होना चाहिए.
लॉकडाउन का मकसद कोरोनावायरस के विस्तार के ऊपर चढ़ते ग्राफ को सीधा करना और इस बीच स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था के स्तर में सुधार करना था. लॉकडाउन से इसके तेज विस्तार को नियंत्रित करने में सफलता तो मिली लेकिन पिछले कुछ महीनों में स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था की क्षमता कितनी बढ़ाई गई, अस्पतालों में कितने बिस्तर और आईसीयू बढ़े, इनके आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. सरकार को इस मामले में भी पैमाने तय करने होंगे.
गीतांजलि कपूर और उनके सहयोगियों द्वारा किए गए एक ताज़ा सर्वे में अनुमान लगाया गया है कि भारत के मुख्यतः सात राज्यों के अस्पतालों में करीब 19 लाख बिस्तर उपलब्ध हैं (इनमें से 60 प्रतिशत प्राइवेट अस्पतालों में हैं), 95,000 आईसीयू बेड हैं, 48 हज़ार वेंटिलेटर हैं. बेहतर राष्ट्रीय लक्ष्य यह होगा कि इनकी संख्या दोगुनी की जाए, जिन राज्यों में कम अस्पताल हैं उन्हें ज्यादा प्रयास करने के लिए सहायता दी जाए.
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कोविड-19 के मामलों और मौतों की संख्या बताने वाले तो कई स्रोत हैं. टेस्टिंग की दर, टेस्ट पॉजिटिविटी दर, अस्पतालों में उपलब्ध बिस्तरों और आईसीयू की संख्या बताने वाले स्रोत हर राज्य और जिले में भी होने चाहिए. खतरे को कम करने का उपाय यही है.
(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं)
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