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Sunday, 22 December, 2024
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नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध भारत की आत्मा को बचाने की असली लड़ाई है

सिटिजनशिप बिल के साथ गंगा एकदम से उल्टी बह निकली है और हम धर्मनिरपेक्ष राज्य से ‘धर्म-सापेक्ष’ राज्य के मुहाने पर आ गये हैं. वे सभी जो आइडिया ऑफ इंडिया में यकीन करते हैं अब उठ खड़े हों.

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बीती रात ठीक 8:53 पर टेलीविजन के पर्दे पर मोटे-मोटे हर्फे में इबारत चमकी- ‘नागरिकता (संशोधन) बिल पास!’ विधेयक (सीएबी) चूंकि अब पारित हो गया है, सो वक्त इसकी आलोचनाओं से परे कुछ और देखने का है. विधेयक किसी आघात की तरह था और इस आघात के प्रतिकार में जो सेक्युलरी तर्ज के तर्क पेश किये गये उन पर फिर से सोचने का समय है. अभी तक लड़ाई अदालत के आंगन और विधायिका के चौपाल पर चल रही थी लेकिन अब वक्त लड़ाई को जनमत के खुले मैदान में ले जाने का है—ये वक्त सीएबी को लेकर नकार भरी प्रतिक्रियाएं जताने के मुकाम से उठकर सक्रिय प्रतिरोध के मोर्चे पर आने का है. जी हां, अब समय विधेयक के लफ्जों की महीन नुक्ताचीनी का नहीं बल्कि विधेयक की ज्यादा ठोस समझ बनाने और लोगों को उसके बारे में कायदे से समझाने का है.

इसमें तो खैर शक की कोई गुंजाइश ही नहीं कि नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 अपनी बुनियादी बनावट में ही विभेदकारी है. बात इतने तक सीमित नहीं कि इस कदम के जरिये बीजेपी असम में अपना हिन्दू वोट-बैंक बचाना चाहती है या फिर 2021 में होने जा रहे पश्चिम बंगाल के विधान सभाई चुनावों में सांप्रदायिक गोलबंदी करना चाह रही है. पीड़ित-प्रताड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों को शरण देने का अधिनियम का घोषित मकसद तो दरअसल एक छलावा भर है. इस छलावे की ओट में असली मकसद को छिपाया जा रहा है. असली मकसद है इस देश के मुसलमानों को ये जताना कि वे लोग दोयम दर्जे के नागरिक हैं. इस रूप में देखें तो फिर ये कानून (सीएबी) हमारे संविधान और आजादी के आंदोलन में संकल्प फूंकने वाली भारत विषयक अवधारणा पर एक आघात की तरह है.


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राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) को अखिल भारतीय विस्तार देने के प्रस्ताव के साथ जोड़कर देखें तो फिर नजर आयेगा कि सीएबी हमारे भारतीय गणतंत्र के चाल-चरित्र और चेहरे को हमेशा के लिए बिगाड़ देने की सलाहियत रखता है. अधिनियम में हुये संशोधन से गंगा एकदम से उल्टी बह निकली है और हम धर्मनिरपेक्ष राज्य से ‘धर्म-सापेक्ष’ राज्य के मुहाने पर आ गये हैं. ये वक्त उन सभी लोगों के लिए एकबारगी उठ खड़े होने का है जो आजादी के आंदोलन में प्राण फूंकने वाले ‘भारत’ नामक विचार पर यकीन करते हैं.

तो फिर दरअसल हमें करना क्या चाहिए? सीएबी के विरोधियों ने पांच धारदार सवाल पूछे और इन सवालों के आगे सत्ता-पक्ष का बिछाया हुआ छद्म तार-तार हो गया. पहला सवाल ये कि अगर भारत अपने पड़ोसी देशों के पीड़ित-प्रताड़ित नागरिकों को शरण देना चाहता है तो फिर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान ही को इसके लिए क्यों चुना गया है? आखिर हमारी सीमाएं म्यांमार, नेपाल और चीन से भी लगती हैं.

अगर चिन्ता पीड़ित-प्रताड़ित नागरिकों की है तो फिर धार्मिक आधार पर होने वाले उत्पीड़न ही को क्यों आधार बनाया गया है, क्षेत्रीयता (जैसे कि पाकिस्तान में बलूचिस्तान) और प्रजातिगत (जैसे नेपाल के तराई वाले इलाके में और श्रीलंका के तमिल में) आधार पर होने वाले उत्पीड़न को क्यों नहीं, आखिर भारत ऐसे उत्पीड़न के बारे में भी कहता-बोलता आया है? तीसरा सवाल है कि अगर हमने धार्मिक आधार पर होने वाले उत्पीड़न को अपनी चिन्ता का मुख्य विषय बनाया है तो फिर पाकिस्तान के अहमदिया और शिया मतावलंबियों, चीन के हाथों परेशानहाल तिब्बतियों, म्यांमार के रोहिंग्या और श्रीलंका के मुस्लिम तथा हिन्दुओं को क्यों छोड़ दिया?

चौथा सवाल ये कि अगर धर्म के आधार पर उत्पीड़न जारी है तो फिर इस बिनाह पर दिये जाने वाले फायदे को 2014 तक ही क्यों रोका जा रहा है? और पांचवां सवाल कि आखिर वो कौन-सी जरूरी जमीन है जिसके दरख्त पर चढ़कर कहा जा रहा है कि कानून (सीएबी) के अमल के मामले में देश के कुछ हिस्सों को छूट हासिल होगी? सरकार और इसके हिमायतियों के पास इन पांच सवालों के पक्के तो क्या अधकचरे जवाब भी नहीं थे.

सत्ता पक्ष ने इन सवालों के जवाब देने की जगह सफेद झूठ से काम लिया. मिसाल के लिए, सत्ता पक्ष ने इस झूठ का पसारा किया कि भारत और पाकिस्तान का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था (पाकिस्तान धर्म के आधार पर अलग हुआ था भारत नहीं). यह भ्रामक सूचना भी फैलायी गई कि भारत के सिर्फ इन तीन ही पड़ोसी देशों में किसी धर्म को राजकीय धर्म घोषित किया गया है (दरअसल श्रीलंका के संविधान में भी बौद्ध शासन की बात कही गई है). सत्ता पक्ष ने इस भ्रामक जानकारी का भी पसारा किया कि संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकार गैर-नागरिकों पर लागू नहीं होते (दरअसल मौलिक अधिकार हर व्यक्ति पर लागू होते हैं).


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सत्ता-पक्ष ने आधिकारिक तौर पर प्रपंच-कथा रची (मिसाल के लिए पीआईबी का ट्वीट) कि संशोधन में बांग्लादेशी हिन्दुओं को नागरिकता देने की बात नहीं कही गई (जबकि असम सरकार के नेता उसी दिन दावा कर चुके थे कि ऐसा किया जायेगा. सत्तापक्ष के पास संख्या बल था और वह संसद में जीत गया लेकिन तथ्यों के आधार पर होने वाली सार्वजनिक बहस में उसकी हार हुई. अबकी बार ये भी दिखा कि यों हमेशा सरकार का मुंह देखकर अपनी बात कहने वाली मुख्यधारा की मीडिया इस बार उसके झूठ के पसारे में तनिक संयम बरत रही थी.

लेकिन एक बात यह भी है कि बड़ी लड़ाइयां सिर्फ अवधारणाओं की जमीन पर लड़कर नहीं जीती जातीं. और, यही वो मोर्चा है जहां सेक्युलर-आंदोलन को सबसे कठिन चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. तमाम तथ्यों और विपक्ष के होते सत्तापक्ष संशोधनों को पारित करने की टेक पर अड़ा रहा और उसकी जिद इस यकीन पर टिकी हुई थी कि संशोधन कर लिये जाते हैं तो लोग-बाग हाथ के हाथ उसे स्वीकार कर लेंगे. भारत की आत्मा को बचाने की असली लड़ाई इसी मोर्चे पर है.

बेशक, अदालती की चौखट पर अभी फैसला होना बाकी है. संशोधनों को अदालत में चुनौती दी जायेगी सो ध्यान अब सुप्रीम कोर्ट की तरफ लगा रहेगा. और, इस बार संविधानिक कानून की कम और खुद सुप्रीम कोर्ट की परीक्षा ज्यादा होनी है. अगर कोई और वक्त होता तो फिर इस मामले में फैसले का अनुमान करना बेहद आसान था. अदालत संविधान की इबारतों का सीधा-सादा पाठ करती और इस पाठ से निकलते अर्थों के आधार पर फैसला सुना देती लेकिन हम एक विचित्र और असाधारण समय में रह रहे हैं. जिन मामलों में सत्ता पक्ष अपना मनचीता फैसला चाह रहा होता है उन मामलों में ऊंची अदालतें तक कानून का पाठ अजब तरीके से करने में लगी हैं. सो, अगर अदालत संशोधनों को नाजायज ठहराती है तो फिर ये सुखद आश्चर्य का विषय होगा. चाहे अदालत का फैसला जो भी, हम उसे राजनीतिक लड़ाई का विकल्प तो नहीं मान सकते. राजनीतिक लड़ाई जनमत को गढ़ने-बदलने और लामबंदी करने का नाम है और इसी मोर्चे पर लड़ाई का अंतिम फैसला होना है.

एक नये आंदोलन के बीज पड़ते दिखायी दे रहे हैं. नागरिकता (संशोधन) बिल के पारित होने पर देश भर में स्वत:स्फूर्त विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं. इसमें तीन अलग-अलग धाराएं मौजूद हैं. एक धारा मुस्लिम समूहों की है जो महसूस कर रहा है कि उसे नाहक ही निशाना बनाया गया और लांछित किया गया है. यह समूह एक तरफ समुदाय को लामबंद करने में जुटा है कि बिल का विरोध हो तो साथ ही उसके भीतर बिल के पारित होने के बाद चलने वाली आधिकारिक पंजीयन-प्रक्रिया के लिए भी तैयारी दिख रही है.

विरोध-प्रदर्शनों में दूसरी धारा असम तथा पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों से है. और, ये धारा उसी समय फूट पड़ी थी जब सीएबी को जनवरी में पहली बार मंजर-ए-आम पर लाया गया था. और विरोध की वही धारा इस बार और वेग से फूटी है लेकिन यहां ध्यान देने की बात है कि विरोध-प्रदर्शन की इन दो धाराओं में प्रेरणा का अन्तर है. पूर्वोत्तर के राज्यों में सीएबी का विरोध इस सोच के साथ किया जा रहा है कि अधिनियम बंगाली हिन्दुओं के समावेश का जरिया बनेगा जबकि मुस्लिम समूह अधिनियम का विरोध इस सोच से कर रहे हैं कि अधिनियम धर्म के आधार पर भेदभाव करते हुए कुछ लोगों को नागरिकता से वंचित करेगा. एक तीसरी धारा भी है और इसमें नागरिक संगठन, तमाम किस्म के जन-आंदोलनों समेत सभी धर्म तथा समुदाय के विवेकवान लोग शामिल हैं.

असली चुनौती सीएबी के विरोध में चल रही इन विभिन्न धाराओं को एक प्रवाह में लाकर एक सुसंगत और ताकतवर आंदोलन में बदलने की है—एक ऐसा आंदोलन जो अखंड नागरिकता के पक्ष में चले. मैंने अपने इस कॉलम में लगातार भारत के धर्मनिरपेक्ष जमात की सैद्धांतिक तथा जमीनी नाकामियों और कमजोरियों की तरफ आपका ध्यान खींचने की कोशिश की है और नजर आ रही नई चुनौतियो के बरक्स एक नया नजरिया अपनाने का सुझाव दिया है. अब समय ऐसी कुछ कमजोरियों को दुरुस्त करने का है. शुरुआत के तौर पर एक बात यही कि सीएबी के विरोध में चलने वाले आंदोलन को पूर्वोत्तर में अवैध आप्रवासियों को लेकर जागी चिन्ताओं को मननपूर्वक सुनना होगा.

सीएबी का विरोध कर रहे पूर्वोत्तर के प्रदर्शनकारियों की ये आशंका कि वे अवैध आप्रवासियों के कारण अपनी ही जमीन पर अल्पसंख्यक हो जायेंगे- एक जायज आशंका है, साथ ही वैसी ही जायज है वहां के आप्रवासियो की आशंकाएं. दोनों चाहते हैं कि आप्रवास और आश्रय देने के बाबत एक सिद्धांतनिष्ठ और बिना भेदभाव वाली नीति बने. मौजूदा शासन ने सियासत की जो रीति-नीति बना रखी है उसके बरक्स धर्मनिरपेक्ष भारत को बचाने के आंदोलन को ठोस कदम उठाने होंगे, आधे-अधूरे मन की पहलकदमी से काम ना चलेगा. आंदोलन को किसी क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया जताने के पीटे-पिटाये तरीके से बाहर निकलकर एक सकर्मक जमीन तलाशनी होगी.


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सबसे बड़ी बात यह कि हमें हर नई पीढ़ी के लिए धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को नये रुपाकार में पेश करना होगा और इस नये रुपाकार को अपनी भाषा-संस्कृति के जामे-मुहावरे में पेश करना होगा. यह वक्त अपने स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं को याद करने का है जो अंग्रेजी समेत यों तो कई भाषाओं में पढ़ते-समझने की सलाहियत रखते थे लेकिन लिखते हमेशा अपनी भाषा में थे. ये वक्त सिर्फ गांधी को नहीं बल्कि विवेकानंद सरीखे धर्मगुरुओं को भी याद करने का है जिन्होंने एलानिया तौर पर कहा था कि भारत भूमि ने हरेक पीड़ित-प्रताड़ित को शरण दी है. हम इस बात को एक अनुकरणीय आदर्श के रूप में पढ़ें और देखें.

खुशी की बात है कि ज्यादातर प्रदर्शनकारी 19 दिसंबर के दिन एक राष्ट्रव्यापी कार्रवाई करने की बात पर सहमत हो गये हैं. यह रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्लाह खान का शहादत दिवस है. प्रदर्शनकारियों को याद रखना होगा कि दांव पर सिर्फ चंद संशोधन, नागरिकता के सिद्धांत और सेक्युलरलिज्म ही नहीं लगे. दांव पर बहुत बड़ी चीज लगी है— यह भारत के प्राण और शरीर बचाने की लड़ाई है. भारत या तो सेक्युलर रहेगा या फिर कोई ऐसी शय ही ना बचेगी जो हम उसे भारत के रूप में पहचान सकें.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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