घूमती हुई विभागाध्यक्ष की कुर्सी और सभी के लिए लगभग ऑटोमेटिक प्रमोशंस के मिले-जुले असर ने भारत की यूनिवर्सिटीज़ को बहुत बुरी तरह प्रभावित किया है. इसकी शुरुआत 1970 में दिल्ली यूनिवर्सिटी से हुई. अब हाल ये है कि मेरिट को दरकिनार करते हुए, तकरीबन हर कोई प्रमोशन पा जाता है और विभागाध्यक्ष रोटेशन से नियुक्त किए जाते हैं, जिसके नतीजे में क़ाबिल या उपयुक्त हुए बिना हर कोई प्रमोशन से एचओडी बन जाता है.
बहुत समय नहीं हुआ, जब दिल्ली यूनिवर्सिटी किसी भी विश्व रैंकिंग सिस्टम में, बहुत ऊंचा स्थान हासिल कर सकती थी. 1950 और 1960 के दशक में, शैक्षिक स्थिति के मामले में, ये अपने शिखर पर पहुंच गई थी. उस ज़माने के नामों पर नज़र डालें, तो कितनी प्रतिष्ठित हस्तियां नज़र आती हैं, जैसे डीएस कोठारी और एएन मित्रा (फिजिक्स विभाग), पी माहेश्वरी और बीएम जोहरी (बॉटनी), बीआर सेशाचार और एमआरएन प्रसाद (ज़ूलॉजी), एमएन श्रीनिवास (सोशियोलॉजी), वीकेआरवी राव, केएन राज, अमर्त्य सेन, एएल नागर, एस चक्रवर्ती और जेएन भगवती (इकॉनॉमिक्स), टीआर शेषाद्री (कैमिस्ट्री), एसआर रघुनाथन (लाइब्रेरी साइंस), यूएन सिंह (मैथमेटिक्स) और नगेंद्र (हिंदी). और ये लिस्ट किसी भी तरह से मुकम्मल नहीं है.
दुर्भाग्यवश, आज जो हालात हैं उनमें दिल्ली यूनिवर्सिटी, तमाम विश्व रैंकिंग्स में कहीं नीचे की तरफ खिसकी नज़र आती है लेकिन ऐसा उत्थान और पतन सिर्फ दिल्ली यूनिवर्सिटी का नहीं है. भारत की तक़रीबन हर यूनिवर्सिटी की यही कहानी है.
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जब योग्यता सिर्फ एक शब्द नहीं थी
बहुत से कारण हैं जो दुनिया भर में आई इस गिरावट के ज़िम्मेदार हैं. इनमें से एक कारण की जड़ें एक ऐसे काम में हैं, जिसकी पहल अंजाने में दिल्ली यूनिवर्सिटी में 1970 में हुई और जिसे उस दशक में, देशभर की बाक़ी यूनिवर्सिटीज़ ने, बड़ी सहजता से बिना सोचे-समझे अपना लिया.
1970 तक, दिल्ली यूनिवर्सिटी के तमाम शैक्षणिक विभागों के अध्यक्ष, प्रतिष्ठित प्रोफेसर्स हुआ करते थे. इस बात से भी बहुत फर्क़ पड़ा कि वो काफी सालों तक इन पदों पर आसीन रहे जिसकी वजह से वो अपने विभागों को लगातार गति और निर्देशन दे पाए.
बेशक, इस व्यवस्था का एक नकारात्मक पहलू भी था. कभी-कभी विभाग की अध्यक्षता कर रहे लोगों के फैसलों और कार्यों में, पक्षपात या अहंकार का पुट आ जाता था लेकिन कुल मिलाकर उन्होंने बहुत सराहनीय तरीक़े से अपनी ज़िम्मेदारियां निभाईं. उनके प्रबंधन का सबसे महत्वपूर्ण नतीजा ये रहा कि कोई भी शैक्षिक पद हासिल करने, या किसी भी विभाग में तरक्क़ी पाने के लिए, बहुत मज़बूत क्रिडेंशियल्स की ज़रूरत होती थी, क्योंकि वास्तविक योग्यता ही सबसे प्रमुख पैमाना होती थी. देश की ज़्यादातर यूनिवर्सिटीज़ में कमोबेश यही स्थिति होती थी.
डीयू का कमजोरी लाने वाला काम
लेकिन दिल्ली यूनिवर्सिटी में गिरावट तब शुरू हुई, जब 1970 में वो अचानक ऐसे सिस्टम पर आ गई जिसमें योग्यता की परवाह किए बिना, विभागाध्यक्ष का पद लगभग पूरी फैकल्टी में रोटेट होने लगा और वो भी केवल तीन साल की अल्प अवधि के लिए. जल्द ही भारत की लगभग सभी यूनिवर्सिटीज ने भी, यही कदम उठाना शुरू कर दिया. इसका प्रभाव बहुत हानिकारक रहा क्योंकि अक्सर ऐसा होता था कि विभाग का अध्यक्ष, शैक्षणिक और प्रशासनिक दोनों रूपों में, ऊंचे पैमानों पर खरा नहीं उतरता था.
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने इस समस्या को और बढ़ा दिया, जब भारी सियासी दबाव में उसने 1982 में, फैकल्टी के प्रमोशन के लिए- मेरिट प्रमोशन की व्यवस्था– लागू कर दी, जिसका नतीजा ये हुआ कि सर्विस की अवधि के आधार पर- कम से कम आठ साल पर हर किसी का ऑटोमेटिक प्रोमोशन होने लगा.
कुछ दूसरे कारण भी हैं लेकिन हेड की घुमाने वाली कुर्सी और ऑटोमेटिक प्रमोशंस, भारत की अनेक यूनिवर्सिटीज के पतन के प्रमुख कारण हैं. ये कोई संयोग नहीं है कि भारत के यूनिवर्सिटी सिस्टम को, 1980 के दशक के बाद से बहुत नुकसान पहुंचा, जब इन दोनों उपायों का असर शुरू हुआ. इसके नतीजे में शैक्षिक योग्यता की बहुत अनदेखी हुई है. अनेक फैकल्टी मेम्बर्स जो सामान्य रूप से नीचे के पदों से रिटायर हो जाते, अब आश्वस्त हैं कि वो फुल-टाइम प्रोफेसर नियुक्त किए जाएंगे और समय आने पर विभागों के अध्यक्ष भी बनेंगे.
सामान्य रूप से, उनमें से बहुत से किसी भी पद पर नियुक्त न होते लेकिन यही वो समय होता है, जब किसी विभाग का बेअसर अध्यक्ष, अनचाहे दबाव के आगे झुक जाता है. एचओडी जानता है कि रिटायर होने के बाद उसे भुगतना पड़ सकता है. इसके नतीजे में अक्सर ऐसा भी होता है कि जो शिक्षक सुयोग्य नहीं हैं, वो भी अपने विभागों के अध्यक्ष बना दिए जाते हैं, केवल इसलिए कि अयोग्य होते हुए भी, ऑटोमेटिक प्रमोशंस पाकर वो फुल प्रोफेसर बनने में कामयब हो गए.
क्या हों उपाय
ये दलील दी जा सकती है कि कुलपति के पास शक्तियां होती हैं कि वो लगभग ऑटोमेटिक प्रमोशंस को रोक सकते हैं, लेकिन जैसा कि रिकॉर्ड्स दिखाते हैं, उनमें से बहुत कम ने कड़े मानकों को लागू करने में कोई इच्छा या प्रतिबद्धता दिखाई है. इसी प्रकार कुलपति रोटेशन के ज़रिए विभागाध्यक्ष की नियुक्ति में, दख़ल देने की हिम्मत नहीं कर सकते, भले ही इस बारे में उनके पास कुछ गुंजाइश हो, क्योंकि ये व्यवस्था गहराई तक अपनी जगह बना चुकी है. इसमें काफी हद तक कमी लाई जा सकती थी, अगर कुलपति का चयन बहुत एहतियात से किया जाता और फिर परफॉरमेंस के आधार पर उन्हें लम्बे कार्यकाल दिए जाते.
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कहने का तात्पर्य ये नहीं है कि फैकल्टी के प्रमोशंस को पूरी तरह ख़त्म ही कर दिया जाए. मंशा ये होनी चाहिए कि एंट्री लेवल की नियुक्तियों में, इन-ब्रीडिंग से बचा जाए और योग्यता को, एकमात्र पैमाना बनाया जाए. नियुक्ति प्रक्रिया के हर स्तर पर मानक तय किए जाएं और इसकी शुरुआत अच्छे और योग्य व्यक्तियों को, कुलपति नियुक्त करने से हो सकती है.
मैंने अक्सर ये तर्क दिया है कि भारत और विदेशों में, बहुत सी यूनिवर्सिटीज की तरक्की में, काफी हद तक उनके वाइस-चांसलर का हाथ था, जिन्हें न केवल पूरी आज़ादी मिली, बल्कि जो वो हासिल करना चाहते थे, उसके लिए उनके कार्यकाल भी लंबे समय के लिए बढ़ाए गए. मॉरिस ग्वायर ने 12 साल तक दिल्ली यीनिवर्सिटी में सेवाएं दीं और उनके कार्यकाल में फैकल्टी के बहुत से प्रतिष्ठित सदस्य, कम उम्र में वहां लाए गए. प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में रॉबर्ट गोहीन के विख्यात कार्यकाल में भी ऐसा ही देखने को मिला.
लेकिन ये सब उदाहरण अतीत से हैं. अब समय है कि भारतीय यूनिवर्सिटीज फिर से अपने शानदार अतीत में झांकें और बीते दिनों की कुछ परंपराओं को फिर से वापस लाएं. योग्य कुलपतियों की नियुक्ति इसकी एक शुरुआत हो सकती है.
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस-चांसलर, एक विख्यात गणितज्ञ और शिक्षाविद हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
आप के विचार से पूर्णतया सहमत हूं, सभीको प्रमोशन से पद व योग्यता दोनों की गरिमा का ह्रास हुआ है।