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Saturday, 21 December, 2024
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लड़ाई को कश्मीरियों की ओर तो आपके लोग ही मोड़ रहे हैं मोदी जी!

पिछले पांच सालों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही रहा है कि जब भी उन्होंने देश को कोई उदात्त संदेश देने की कोशिश की, उसकी सबसे ज्यादा अनसुनी उनके भक्तों, मंत्रियों और भारतीय जनता पार्टी की सरकारों ने ही की.

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आसन्न लोकसभा चुनाव में क्षति की आशंका के चलते हो या स्थिति के हाथ से निकल जाने से पहले उस पर काबू पाने के बढ़ते जा रहे दबाव के, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुलवामा में सीआरपीएफ जवानों के काफिले पर भीषण आत्मघाती आतंकी हमले के बाद देश के कई हिस्सों में कश्मीरियों पर हमलों के खिलाफ मुंह खोलने में उतना वक्त नहीं लिया, जितना ‘गोरक्षकों’ के उत्पातों के खिलाफ चुप्पी तोड़ने में लिया था.

राजस्थान के टोंक में एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने न सिर्फ कश्मीरियों पर हमलों की स्पष्ट निन्दा की बल्कि यह भी कहा कि हमको जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई जीतनी है तो अनिवार्य रूप से समझना होगा कि वह कश्मीर के लिए है, कश्मीरियों के खिलाफ नहीं. उन्होंने खुद को उन तकलीफों से भी जोड़ा, जो कश्मीरियों को उठानी पड़ रही हैं और इस बात पर जोर दिया कि सीमापार के आतंकवाद की सबसे ज्यादा कीमत कश्मीरियों को ही चुकानी पड़ी है. इसलिए सारे देश को वैसे ही उनके साथ खड़ा रहना चाहिए, जैसे अमरनाथ यात्रियों पर हमले के वक्त घायलों को खून देने के लिए अनेक कश्मीरी कतार लगाकर खड़े हो गये थे.

चिकनी-चुपड़ी कहें या या भली-भली, इन बातों से प्रधानमंत्री ने जो ‘संदेश’ देना चाहा है, उसका इस कारण भी अतिरिक्त महत्व है कि देश की राजनीति में वे जिस जमात का प्रतिनिधित्व करते हैं, खास तरह के दुरंगेपन के कारण उस पर बार-बार आरोप लगते रहे हैं कि उसके निकट जिस तरह जम्मू-कश्मीर ‘भारत का अभिन्न अंग’ है, उस तरह कश्मीर के लोग नहीं. इस जमात का अब तक का इतिहास गवाह है कि उसने कभी इन आरोपों को गलत सिद्ध करने की एक भी गम्भीर कोशिश नहीं की. उलटे कश्मीरियों को लेकर धीरे-धीरे विकसित की जाती रही परायेपन की भावना को पिछले पांच सालों के नरेन्द्र मोदी राज में उसने खासी बड़ी कर डाला है. इसी का कुफल है कि पुलवामा कांड की प्रतिक्रियास्वरूप कश्मीर के बाहर कश्मीरियों को इस तरह निशाना बनाया जाने लगा, जैसे सारे फसाद की जड़ वही हों और उन्हें संदेह का लाभ भी नहीं दिया जा सकता हो, तो इस जमात से ठीक से प्रतिक्रिया व्यक्त करते भी नहीं बना.

कश्मीरियों के इन हमलावरों ने यह तक समझना गवारा नहीं किया कि इससे जो साम्प्रदायिक उद्वेलन अथवा विभाजन पैदा होंगे, वे अंततः उस पाकिस्तान के निहित स्वार्थों लिए ही मुफीद होंगे, जिसे सबक सिखाने का अपना मंसूबा प्रदर्शित करने का वे कोई मौका चूकते नहीं हैं. बहुत संभव है कि वे प्रधानमंत्री की इस ‘विवशता’ में भी अपनी सफलता ही देख रहे हों कि उनकी कारस्तानियों का घटाटोप अंततः इतना गहरा हो गया कि प्रधानमंत्री को ऐसा ‘संदेश’ देना पड़ा, जिसकी अन्यथा कोई आवश्यकता नहीं थी। इन हमलावरों को छोड़ देश और दुनिया में किसे नहीं मालूम कि जम्मू कश्मीर में हमारा संघर्ष किसके खिलाफ और किसके लिए है?


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ऐसे में अकारण नहीं कि एक ओर जहां प्रधानमंत्री के ‘संदेश’ का ऐसा असर हुआ है कि नेशनल कांफ्रेंस के नेता व जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने (जो महज एक दिन पहले कश्मीरियों को सताये जाने को लेकर मोदी सरकार की चुप्पी पर सवाल खड़े कर रहे थे) बिना एक पल गंवाये अपनी पार्टी लाइन पार कर उन्हें धन्यवाद दिया और कहा कि उन्होंने उनके दिल की बात कह दी है. दूसरी ओर कई लोग याद दिला रहे हैं कि कश्मीरियों पर हमले देश के जिस भी अंचल में हुए हों, हमलावरों ने अपनी मोदी भक्त या हिन्दुत्व के अलमबरदार की पहचान को ही आगे किया है. याद दिलाने के बाद वे अपने इस सवाल के तुरत-फुरत जवाब की मांग भी कर रहे हैं कि क्या इस तथ्य की रौशनी में प्रधानमंत्री को अपना उक्त ‘संदेश’ इन भक्तों को इंगित करके नहीं देना चाहिए था? आखिरकार तो वे ही उनका नाम बदनाम करने पर तुले हुए हैं और कतई यह स्थिति नहीं है कि सारा देश कश्मीरियों पर पिल पड़ा हो.

प्रसंगवश, पिछले पांच सालों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही रहा है कि जब भी उन्होंने देश को कोई उदात्त संदेश देने की कोशिश की, उसकी सबसे ज्यादा अनसुनी उनके भक्तों, मंत्रियों और भारतीय जनता पार्टी की सरकारों ने ही की. याद कीजिए, गोरक्षकों के उत्पात सारी हदें पारकर समस्या बनने लगे तो एक दिन अचानक प्रधानमंत्री ने खुल्लमखुल्ला खरी-खोटी सुनाते हुए उनके बड़े हिस्से को नकली बता डाला. इतना ही नहीं, उन्हें बाज आने को, और साथ ही, राज्य सरकारों को उनकी आपराधिक कार्रवाइयों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने को कहा. लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ. न गोरक्षक बाज आये और न भाजपाई राज्य सरकारों ने उनके प्रति सख्ती गवारा की. उलटे वे उनका कवच बनी रहीं.

इससे निरंकुश हुए गोरक्षकों ने पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में पुलिस के एक दरोगा की हत्या कर डाली तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रधानमंत्री के कहे को चिढ़ाते हुए पुलिस को दरोगा की हत्या से पहले गाय की हत्या की जांच करने का आदेश दे दिया. हद तो खैर तभी हो गई थी, जब बिहार से आने वाले एक केन्द्रीय मंत्री ने वहां के रामगढ़ में हुई बहुचर्चित माॅबलिंचिग में एक न्यायालय द्वारा दंडित गोरक्षकों का बाकायदा सम्मान कर डाला.


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यहां यह भी याद किया जा सकता है कि अपने गृहराज्य गुजरात में गोरक्षकों द्वारा दलितों पर निर्मम हमलों को लेकर अपनी संवेदनशीलता प्रदर्शित करने के लिए प्रधानमंत्री ने आठ अगस्त, 2016 को यह तक कह दिया था कि ‘गोली मारनी है तो मुझे मार दें, दलितों को न मारें’ लेकिन न गुजरात में उसका असर दिखा और न उसके बाहर.

कोई पूछे कि ऐसा क्यों है, तो अपनी जमात में सर्वशक्तिमान बताये जाने वाले प्रधानमंत्री (जिनकी यत्नपूर्वक ऐसी छवि रची जाती रही है कि उनके मंत्री और सांसद भी उनके मुंह लगने की हिम्मत नहीं कर पाते) उनकी ऐसी हालत निस्संदेह चकित करती है कि उनके भक्त व समर्थक भी उनके निर्देशों को खुल्लमखुल्ला मुंह चिढ़ाने से न डरें) एक कहावत का सहारा लें तो सवाल यों भी बनता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रधानमंत्री के खाने के दांत और हैं, दिखाने के और? कहीं भक्तों और समर्थकों के साथ उनकी मिलीभगत तो नहीं है और उन्हें ‘समझा’ तो नहीं दिया गया है कि सारी नसीहतों और निर्देशों पर अमल की आवश्यकता नहीं है? या कि जिन पर अमल की आवश्यकता होगी, उन्हें अलग से इंगित कर दिया जायेगा?

ऐसा है तो क्या लड़ाई कश्मीरियों से न होने के उनके ‘संदेश’ से कोई सार्थक उम्मीद की जा सकती है? जब तक कश्मीरियों पर हमला करने वाले उनके भक्त व समर्थक उनके संदेश पर अमल करते नहीं नजर आते, इसका जवाब हां में कैसे दिया जा सकता है? खासकर जब प्रधानमंत्री ने अपना इस सम्बन्धी संदेश देश को इस तरह सुनाया है, जैसे वह सारा का सारा गुनहगार हो. बेहतर होता कि वे इसे हमलावरों को इंगित करके देते और सुुनिश्चित करते कि वे उसका वैसा हश्र न कर सकें, जैसा गोरक्षकों व राज्य सरकारों ने उनकी नसीहत का किया था.

ऐसा न करना यकीनन, उनकी कमजोर इच्छाशक्ति का ही पता देता है. अगर इसका अर्थ यह है कि वे ‘अपनों’ को इंगित कर उनकी नाराजगी का जोखिम उठाने के बजाय ‘चोर’ और ‘साहु’ दोनों को खुश रखकर 2019 के लोकसभा चुनाव में भी 2014 जैसा चमत्कार करना चाहते हैं {जिसके तहत उन्होंने भाजपा के कटटरतावादियों के कंधे सहलाते रहकर विकास के आकांक्षियों को भी अपने पाले में खींच लिया था, तो उन्हें दो चीजें याद रखनी चाहिए: पहली यह कि चमत्कार रोज-रोज नहीं हुआ करते यानी काठ की हांड़ी बार-बार नहीं चढ़ती और दूसरी यह कि एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय.

(कृष्ण प्रताप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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