सहज राजा अपने पूर्ववर्ती, प्रतिद्वंद्वी, या मातहत के प्रति ग्रंथि से मुक्त होता है. उसे किसी से अपनी चमक फीकी पड़ने का अंदेशा नहीं होता. नकली राजा हर बात से अपनी कमतरी दिखने के डर में रहता है. उसे अपना गुणवान मंत्री, मंत्री का अच्छा सचिव भी नागवार गुज़रता है. यह क्षुद्र मानसिकता नकली राजा की पहचान है कि वह सदा शंकालु रहे, बेरंग सहयोगी ढूंढे, ताकि केवल राजा का रंग दिखे!…भाजपाई अपने सभी कुकर्मों का बचाव कांग्रेस का उदाहरण देकर ही करते हैं! जो अचेत स्वीकृति है कि असली राजा कांग्रेस है. नकली, इम्पोस्टर, तो बस नकल ही कर सकता है!
एक बच्चे को अपना बताने वाली दो स्त्रियों में झगड़े की कहानी प्रसिद्ध है. दोनों बच्चे को अपना कह रही थीं. पंच ने उपाय बताया: बच्चे को काट कर आधा-आधा बांट दो. तब असली मां चीख पड़ी और कहा कि बच्चा दूसरी को ही दे दो.
यह कुछ अतिरंजना है कि सत्ता के लिए लड़ती हमारी दो मुख्य पार्टियां उन दो स्त्रियों सी हैं, लेकिन एक के व्यवहार से राजसी भाव, तो दूसरे में उस का अभाव झलकता रहा है. नकली राजत्व में भीरुता, बनावट, भगोड़ापन, कभी डींग, कभी रोना-गाना दिखता है. गद्दी पर बैठ भी इनमें गरिमा या भरोसा नहीं आता. आडंबर तमाशों से दुर्बलता ढंकने की तमाम कोशिश के बावजूद भीतर डर रहता है, जो बाहर कथनी-करनी, भाव-भंगिमा में झलकता है.
यह किसी अच्छे या बुरे राज की बात नहीं. कोई राजवंशी भी बुरा और कोई दासपुत्र भी अच्छा राज कर जाता है. बात चरित्र की है. कांग्रेसी राजसी रहे हैं. उदार, धूर्त, दरबार-पसंद, आदि गुण-अवगुण के साथ. पर उन्हें अपने पर शंका नहीं रहती. गद्दी से हटे भी उनका राजसिक भाव बना रहता है. जबकि भाजपा, खासकर आरएसएस से आए नेताओं में बनावट और दब्बूपन प्रायः दिखता है. उनके अधिकांश नेता कुर्सी-नशीनी को आदि-अंत मानते हैं! कुर्सी से हट कर ससम्मान रहना उन्हें नहीं आता. यह उन के कुर्सी-विहीन हो चुके नेताओं के हाल से भी दिखता है. उन्हें उनके अपने लोग भी नहीं पूछते! सो, हर हाल में कुर्सी पर होना चाहिए. चाहे कितना भी गिरना पड़े.
धंधा-पानी कांग्रेसी भी करते हैं, पर राजसिक भाव में बने हुए. दांव चलने में सब के सम्मान का ख्याल रखते हुए. वे कभी भीरुता, फूहड़ता, तो कभी खामख्वाह अकड़ते, दूसरों को अपमानित, बदजुबानी करते नज़र नहीं आते. अब तक के सभी सर्वोच्च कांग्रेस नेता सहज सलीकेदार रहे हैं. विरोधी, मतभेदी का सम्मान करने वाले. कभी घटिया बातें न बोलने वाले.
पर अपने संकीर्ण मानस के कारण संघ-भाजपा के लोग हर आलोचक, या भिन्नमत सहयोगी को भी बिकाऊ/लोभी ही मानते हैं. मानो भिन्न मत या आपत्ति किसी स्वतंत्र दृष्टि का परिणाम हो नहीं सकते! ऐसी समझ छोटेपन का ही संकेत है.
सो कुर्सी, चाहे सांगठन की या सार्वजनिक, को सब कुछ मान उसे पकड़े रहना इन्हें अपरिहार्य लगता है. इसके लिए आत्मसम्मान कूड़े में डाल देना भी. वे कुर्सी-विहीन को गुणहीन मानते हैं. इसलिए कुर्सी पर पहुंच खुद को गुणसागर भी समझ लेते हैं. हर किसी को उपदेशते, निर्देशते, या लांछित अपमानित करते. जिसकी अपनी शिक्षा संदिग्ध, वह भी विद्वानों से लेकर वैज्ञानिकों तक को लेक्चर देना अपना हक समझता है! जबकि खुद अपनी बातों, कामों का बचाव करने में ऐसा अक्षम कि मीडिया से सदा बच कर रहे.
ऐसा कांग्रेसियों में नहीं दिखता. वे कठिन स्थिति में भी मीडिया का सामना करते हैं. जानकारों की सलाहकार परिषद बनाकर उसे सिर पर बिठाते हैं. बल्कि ज़रूरत पड़े तो सर्वोच्च पद भी देते हैं क्योंकि उन्हें अपने राजत्व पर कभी शंका नहीं होती. शैक्षिक उच्च पद विद्वानों को देकर उन्हें खुला अधिकार देते हैं कि वे अपनी समझ से कार्य करें. उनकी पीठ पर उजड्ड पार्टी कार्यकर्ताओं को लगा कर ‘नियंत्रण’ नहीं रखते. वह कोई मूर्ख राजा ही करेगा. जिसे इतनी समझ भी नहीं कि कोई मातहत अच्छा कार्य करे, तो श्रेय राजा को मिलेगा ही. सो, बौद्धिकों, कलाकारों, आदि का मान-सम्मान, उनकी कार्य स्वतंत्रता का आदर कांग्रेसियों में सहज है. असली राजा को अपने राज्य के गुणियों से ईर्ष्या, असुरक्षा, अथवा अपने ही मातहत के प्रति कृपणता नहीं होती.
फिर, कुर्सी पर भी रुटीन समय बिताना अधिकांश संघ-भाजपाइयों की सामान्य प्रवृत्ति है. उनके पास अपना कोई विचार/योजना नहीं होती. यह ‘पावर नहीं, ऑफिस’ की चाह है. रंगे सियार का लक्षण. नकली राजा ही शक्ति-प्रयोग करने, राज्य के शत्रुओं से निपटने, कठिन निर्णय लेने, आदि से कतराता है. बस गद्दी पर जमे रहना उपलब्धि समझता है. किन्तु, चमड़ी कुर्सी बचाकर ही कुछ हो वरना न हो, यह तामसिक वृत्ति है.
सहज राजसी प्रवृत्ति से सही-गलत काम कर कांग्रेस के दो सर्वोच्च नेताओं ने अपनी बलि दी. जबकि दूसरी ओर मामूली जेल-कष्ट उठाने वाले भी नदारद रहे हैं. उनकी प्रवृत्ति पहले अपने को (‘संगठन’, ‘पार्टी’ के बहाने) आराम में रखना है. सो ऑफिस लेना-भोगना उन का मूल मंत्र रहा है. उनके अधिकांश लोग पद, भवन, फंड, देश-विदेश भ्रमण, बेकार के पर मंहगे मेले लगाने, आदि के लिए अथक काम करते हैं. पर सार्थक, कठिन सामाजिक/राजनैतिक कामों के प्रति उन की प्रवृत्ति किन्तु-परंतु करते टालने, बहाने बनाने, या दूसरों के माथे डालने की रहती है. चाहे उन्हें ऑफिस में रहते दशकों बीते, आयु-शेष हो जाए, पर कभी ऐसे कदम नहीं उठाते जो आराम में खलल डाले! जबकि खतरे उठाकर फैसला और काम ही राजसिक गुण है. जिसका हिन्दुओं में आमतौर पर, और संघ-परिवार नेताओं में खास तौर पर अभाव है.
सहज राजा अपने पूर्ववर्ती, प्रतिद्वंद्वी, या मातहत के प्रति ग्रंथि से मुक्त होता है. उसे किसी से अपनी चमक फीकी पड़ने का अंदेशा नहीं होता. नकली राजा हर बात से अपनी कमतरी दिखने के डर में रहता है. उसे अपना गुणवान मंत्री, मंत्री का अच्छा सचिव भी नागवार गुजरता है. यह क्षुद्र मानसिकता नकली राजा की पहचान है कि वह सदा शंकालु रहे, बेरंग सहयोगी ढूँढे, ताकि केवल राजा का रंग दिखे!
इसी तरह, मददगारों से नजर फेर निन्दकों को लुभाना चाहना भी हीनमति है. फिर, आदतन वही बोलना जिस से कोई बलवान नाराज़ न हो. नकली राजत्व का प्रमाण कदम-कदम पर स्वत: मिलता चलता है. खोजने की ज़रूरत नहीं पड़ती.
सो, कहानी का रूपक पूरा करते कहें कि संघ-भाजपा नेताओं ने झूठी मां की तरह अपनी कथित आइडियोलॉजी के टुकड़े कर दिए. नेहरूवादी सेक्यूलरिज्म, गांधीवाद, गरीब-अमीर वाली वामपंथी झक, लोहियाई जातिवाद और अब तो थर्ड जेंडर की जयकार भी अपना ली. डॉ. हेगडेवार और गोलवलकर की सभी मूल सीख भुला दीं. इन की पुस्तकें तक खारिज, या गायब कर दीं – ताकि विश्वासघात छिप सके! झूठी मां की तरह झूठी बातों के सहारे गद्दी लेने और फिर उसे कब्जाए रखने की लालसा.
तुलना में, कांग्रेसियों ने असली राजा की तरह अपनी टेक, अपना सेक्यूलरिज्म, और गांधी-नेहरूवाद सदा थामे रखा. नेहरू के अनेक गलत विचारों के बावजूद उनकी सभी पुस्तकें सगर्व चलाते रहे. किसी को खारिज नहीं किया.
इस के विपरीत, संघ-भाजपा नेता तीस बरस पहले सत्ता की गंध निकट मिलते ही अपनी बची-खुची टेक भी छोड़ने में लग पड़े थे. कई मूल टेक तो जनसंघ खत्म करते समय ही छोड़ दी थी. फिर तो घृणित इस्लामियों को भी चादर चढ़ाना, अपना ‘मुस्लिम मंच’ बना डालना, मस्जिदें बनवाना, प्रोफेट की जयकार, जन्मदिन मनाना, अरब शासकों के सामने गिरना-पड़ना, सफाई देना, लिपटना-चिपटना, मुस्लिम मित्र और मस्जिद-आवाजाही के दावे करना, आदि से लेकर सार्वजनिक संसाधनों में मुस्लिमों को बड़ा हिस्सा देने जैसे अनगिन काम ही नहीं किए – उस पर अपनी छाती ठोकी! अपने ही अन्य नेताओं की हिन्दू भावना को सार्वजनिक फटकारा भी. यानी वह सब किया, जिस पर डॉ. हेगडेवार और गोलवलकर पानी-पानी हो जाते!
जबकि अपने विकारग्रस्त सेक्यूलरिज्म के बावजूद कांग्रेसियों ने वैसा विचित्र इस्लाम-प्रेम कभी न दिखाया. यह उनका अपने राजसिक भाव में बने रहना था.
यह भी अर्थपूर्ण है कि भाजपाई अपने सभी कुकर्मों का बचाव कांग्रेस का उदाहरण देकर ही करते हैं! जो अचेत स्वीकृति है कि असली राजा कांग्रेस है. नकली, इम्पोस्टर, तो बस नकल ही कर सकता है!
इसीलिए, चिश्ती की मज़ार पर चादर चढ़ाने, प्रोफेट मुहम्मद के कसीदे पढ़ने, कुरान का गुणगान करने, या अरब शासकों की मिन्नत करने कोई कांग्रेसी कभी नहीं गये. वे असली राजा थे. सत्ता उन के लिए सहज और प्रयोग की चीज़ रही है. किसी अनधिकारी, इन्टरलोपर की तरह जैसे तैसे हड़पने, फिर उसे पकड़े रखने के लिए किसी हद तक गिर सकने की नहीं.
(लेखक हिंदी के स्तंभकार और राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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