हिंदी को राष्ट्रभाषा या राष्ट्र की संपर्क भाषा के तौर पर स्थापित करने की कोशिशें नए सिरे से शुरू हो चुकी है. नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लागू होने से इस काम में तेजी आएगी, क्योंकि इसमें त्रिभाषा फॉर्मूले को जिस तरह बनाया गया है और जिस तरह से तीन में से दो भारतीय भाषा रखने की बात की गई है, उससे हिंदी का दायरा और बढ़ेगा. अभी तक गैर-हिंदी भाषी राज्य सिर्फ इंग्लिश और अपने प्रदेश की भाषा का ही इस्तेमाल शिक्षा माध्यम के तौर पर कर रहे थे. तीसरी भाषा के भारतीय होने की अनिवार्यता से हिंदी को ज्यादा जगह मिल सकती है. इस बीच केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह कह ही चुके हैं कि संपर्क भाषा के तौर पर अंग्रेजी की जगह हिंदी आए. सरकारी कामकाज में हिंदी का प्रयोग बढ़ाया जा रहा है.
इन सब सरकारी उपायों के पीछे तर्क ये है कि देश में सबसे ज्यादा लोग हिंदी बोलते-समझते हैं और इस नाते ये देश को एकजुट करने में सबसे सक्षम भाषा है. दूसरा तर्क ये है कि राष्ट्रीय एकता के लिए भारत की अपनी एक राष्ट्रभाषा तो होनी ही चाहिए. तीसरा तर्क ये है कि कब तक भारत में एक विदेशी भाषा इंग्लिश का बोलबाला रहेगा. देश अपनी जुबान में कब बोलेगा? ये तर्क आज के नहीं हैं. बल्कि संविधान सभा से लेकर आजादी के बाद गठित राजभाषा आयोग और सरकार की नीतियों में भी ये तर्क बार-बार सामने आते हैं. ये तर्क भारत सरकार की भाषा नीति का भी आधार हैं. ये नीति आजादी के बाद से भी कभी बदली नहीं है.
समस्या ये है कि ये भाषा नीति भारत की भाषा समस्या को हल करने में नाकाम साबित हुई है. भाषा समस्या से संबंधित विवादों में अब तक सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं और राज्यों और राज्यों के बीच और राज्यों तथा केंद्र के बीच कई विवाद चल रहे हैं. 1965 में तो भाषा के सवाल पर देश में बड़े पैमाने पर हिंसा हो चुकी है. कई राज्यों का बंटवारा भाषा के आधार पर हुआ है और खालिस्तान के अलगाववादी विचार की जड़ में भी भाषा विवाद ही है. अब जबकि भाषा का विवाद फिर से सिर उठा रहा है तो राजभाषा नीति संबंधी ऊपर दिए गए तर्कों की जांच कर लेनी चाहिए.
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आजादी के बाद हुई पहली यानी 1951 की जनगणना में देश के 42 प्रतिशत लोगों की भाषा हिंदी बताई गई. लेकिन ये आंकड़ा दो कारणों से बेहद भ्रामक है. इस 42 प्रतिशत में पंजाबी, उर्दू, हिंदुस्तानी सब शामिल हैं. साथ ही इसी समय ये तय हुआ कि मैथिली से लेकर वज्जिका और मगही से लेकर भोजपुरी, अवधी, ब्रज, बुंदेलखंडी, मारवाड़ी, निमाड़ी, रायपुरिया, गढ़वाली, कुमाऊंनी, हरियाणवी ये सब भाषा नहीं, हिंदी की बोलियां है. बहरहाल अगली जनगणना 1961 में हुई और जब पंजाबी और उर्दू को अलग से गिना गया तो हिंदी बोलने वालों की संख्या घटकर 30% रह गई.
1961 के 60 साल बाद यानी 2011 में जब जनगणना होती है तो हिंदी बोलने वालों की संख्या बढ़कर 43 प्रतिशत पहुंच गई. यानी पंजाबी और उर्दू को बाहर गिनने के बावजूद हिंदी का दायरा तेजी से बढ़ गया. 1951 में चार भाषाएं – तेलुगु, बंगाली, मराठी और तमिल 7% से ऊपर की कटेगरी में थी. 2011 में इनमें से बंगाली के अलावा बाकी तीनों भाषाएं 7% से कम वाली कैटेगरी में आ गईं. तमिल तो 5.7% पर सिमट गई. कन्नड़ और मलयालम बोलने वालों की संख्या भी कम रह गई. इसकी दो व्याख्याएं हो सकती हैं. एक तो ये कि हिंदी भाषी इलाकों में परिवार नियोजन अपेक्षाकृत फेल रहा और यहां आबादी बढ़ गई और उसी समय खासकर दक्षिण भारत में परिवार छोटे होते चले गए. दूसरी वजह ये हो सकती है कि इस बीच सिर्फ आबादी नहीं, अन्य कारणों से भी हिंदी भाषियों की संख्या बढ़ी.
मेरी मान्यता है कि आजादी के बाद हिंदी का विकास पूरी तरह स्वाभाविक नहीं है. हिंदी आज अगर पहले से ज्यादा लोकप्रिय नजर आ रही है, तो इसमें सरकार का पैसा और प्रयास लगा है. हिंदीभाषियों की संख्या कृत्रिम यानी आर्टिफिशियल तरीके से कैसे बढ़ी, ये समझने की कोशिश करते हैं.
दरअसल आजादी के आंदोलन के दौरान ही ये बात उभरने लगी थी कि जब भारत आजाद होगा तो हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा/राजकाज की भाषा और संपर्क भाषा बनेगी. खासकर 1919-20 में गांधी जब कांग्रेस में शीर्ष नेता के तौर पर सामने आते हैं और कांग्रेस वकीलों और जमींदारों, उद्योगपतियों की पार्टी से आम जनता की पार्टी बनने की ओर बढ़ती है, तब से ही कांग्रेस की भाषा के तौर पर हिंदी स्थापित होने लगती है. ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा क्योंकि कांग्रेस के सबसे ज्यादा नेता हिंदी भाषी इलाकों से आने वाले हिंदू थे और वे हिंदी पर बहुत ज्यादा जोर दे रहे थे. आजादी के आंदोलन में एक सांप्रदायिक अंतर्धारा भी थी, जो मुसलमान बनाम हिंदू के विस्तार यानी उर्दू बनाम हिंदी में हिंदी के साथ खड़ी थी. आजादी के बाद संविधान सभा में ये धड़ा और मजबूत हो गया क्योंकि उर्दू और बांग्लाभाषी इलाकों का बड़ा हिस्सा भारत से अलग हटकर, पाकिस्तान में जा चुका था.
संविधान सभा में कांग्रेस से आए हिंदी भाषी क्षेत्रों के नेता प्रभावशाली थे और हिंदी को संघ की राजभाषा बनाने के लिए उन्होंने काफी दबाव बनाया. मिसाल के तौर पर, सेंट्रल प्रोविंस और बेरार के सदस्य रविशंकर शुक्ला ने इस बात पर जोर दिया कि जब एक बार किसी भाषा को संघ की भाषा स्वीकार कर लिया गया है तो इसे लागू करने में देर न की जाए. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि ‘दक्षिण भारत के लोग जल्दी से हिंदी सीख लें, वरना वे पीछे रह जाएंगे.’ हिंदी भाषी क्षेत्रों के सदस्यों की ये लगभग सामूहिक भावना थी. हालांकि इस बहस में जवाहरलाल नेहरू संतुलन की बात बार-बार कह रहे थे. उनका कहना था कि किसी भाषा को थोपा नहीं जा सकता. ऐसा करने की कोशिश करने वाले गलत हैं. हिंदी को लेकर वितंडा करने वालों को उन्होंने समझाने की भी कोशिश की. उनकी कोशिश मध्य मार्ग बनाने की थी. वे मिली-जुली जनभाषा हिंदी/हिंदुस्तानी की वकालत कर रहे थे और अंग्रेजी से पूरी तरह छुट्टी पाने की सोच का भी विरोध कर रहे थे.
आखिरकार संविधान में अनुच्छेद 343 को शामिल कर लिया गया कि संघ की राजभाषा देवनागरी में लिखी गई हिंदी होगी और उसमें अंक रोमन में लिखे जाएंगे. साथ में अंग्रेजी में भी काम करने के लिए 15 साल की मोहलत दी गई. चूंकि उस समय तक हिंदी ढंग से विकसित नहीं हुई थी और न ही इसका ढंग से प्रसार हुआ था, इसलिए हिंदी को विकसित बनाने और इसे प्रसारित करने का अतिरिक्त जिम्मा भी सरकार पर डाल दिया गया. इसके लिए संविधान में अलग से धारा 351 को जोड़ा गया जो कहता है कि – ‘संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और 8वीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे.’
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जिस समय भारत आजाद हुआ था, तब तक हिंदी पूरी तरह विकसित नहीं हुई थी और न ही इसमें एकरूपता थी. जिस हिंदी को हम लोग आज स्टैंडर्ड हिंदी के रूप में जानते हैं, वह देश के छोटे हिस्से में ही बोली जाती थी. स्टैंडर्ड हिंदी का भौगोलिक विस्तार उस समय तेलुगु या बांग्ला भाषा की तुलना में कम ही था. उत्तर भारत में कई भाषाएं थीं और हैं जिनका हिंदी से स्वतंत्र अस्तिव था. उनमें से मैथिली और डोगरी को बाद में स्वतंत्र भाषा के तौर पर संविधान में जगह भी मिली. भोजपुरी भी अपना अधिकार मांग रही है. इसके अलावा अवधी, ब्रजभाषा, कुमाऊंनी, गढ़वाली, भोजपुरी, बुंदेलखंडी, मगही, मेवाड़ी, निमाड़ी, वज्जिका, हरियाणवी जैसी भाषाएं स्वतंत्र अस्तित्व रखती हैं. इन सबको मिलाकर ही कृत्रित रूप से एक विशाल भाषा हिंदी का निर्माण हुआ है. इन भाषाओं में से कई ऐसी हैं, जिनमें आपस में सहज संवाद नहीं हो सकता. मिसाल के तौर पर एक मिथिलाभाषी सहजता से कुमाऊंनी बोलने वाले व्यक्ति के साथ संवाद नहीं कर सकता.
प्रथम राजभाषा आयोग की रिपोर्ट में असहमति की राय रखते हुए राज्यसभा सदस्य और मद्रास प्रेसिडेंसी के मुख्यमंत्री रहे पी. सुब्बारायन ने हिंदी की इस कमजोरी का विस्तार से जिक्र किया. उन्होंने लिखा- ‘जो लोग पूरी तरह विकसित और एक हजार साल से ज्यादा लंबी विरासत वाली बंगाली, असमिया, ओरिया, मराठी, गुजराती, तेलुगु, तमिल, कन्नड़ औऱ पंजाबी जैसी भाषाएं बोलते हैं वे राजभाषा के बारे में लाई गई नीति को स्वीकार करने में असुविधा महसूस करते हैं, खासकर तब जबकि ये जबर्दस्ती लादी जा रही है.’
हिंदी में एकरूपता लाने के लिए सरकार की ओर से शुरुआती वर्षों में कई स्तरों पर प्रयास किए गए. एक जैसी हिंदी के टेक्स्टबुक देशभर में पढ़ाने की शुरुआत हुई. हिंदी की एकरूपता लाने में फिल्मों ने भी भूमिका निभाई. केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग और शिक्षा मंत्रालय के अधीन केंद्रीय हिंदी निदेशालय जैसी कई संस्थाएं बनीं, जिन्हें हिंदी को विकसित करने, उसमें एकरूपता लाने और उसका प्रचार-प्रसार करने का जिम्मा और बजट सौंपा गया. 1955 से केंद्र सरकार अहिंदी भाषी कर्मचारियों को हिंदी सिखाने की योजना चला रही है. 1960 के राष्ट्रपति के आदेश से केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए हिंदी जानना लगभग अनिवार्य कर दिया गया. हिंदी सीखने वाले अहिंदी भाषी कर्मचारियों को प्रोत्साहन देने के लिए नकद इनाम दिए जाने की शुरुआत हुई. केंद्र सरकार के विभाग हिंदी दिवस मनाते हैं और ये एक सरकारी आयोजन होता है. केंद्रीय कानून मंत्रालय का भी एक राजभाषा विभाग है, जिसका मुख्य काम सभी विधेयक और कानूनों का हिंदी में अनुवाद करना है. जाहिर है कि सरकार के कंधों की सवारी करते हुए हिंदी ने अपनी विकास यात्रा की है.
वहीं, हिंदी और संस्कृत के अलावा किसी भी और भारतीय भाषा के विकास और प्रचार के लिए केंद्र सरकार इस तरह के प्रयास नहीं करती.
सरकारी संचार माध्यमों ने भी हिंदी के प्रसार में भूमिका निभाई. रेडियो और दूरदर्शन दोनों पर केंद्र सरकार का नियंत्रण रहा है. शुरुआती वर्षों में प्राइवेट चैनल भी नहीं थे. ऑल इंडिया रेडियो की प्रोग्रामिंग में हिंदी को प्राथमिकता दी गई. दूरदर्शन का तो लंबे समय तक सिर्फ नेशनल चैनल ही था और पूरे देश के लोग चित्रहार, रंगोली, हम लोग, रामायण, महाभारत आदि हिंदी कार्यक्रम देखते थे. दूरदर्शन ने उस दौर में नियमित हिंदी फिल्मों का भी प्रसारण किया.
इस तरह हिंदी वहां पहुंची, जहां वह आज है. हिंदी का अखिल भारतीयता एक बनाई हुई चीज है. अब हिंदी को धर्म की राजनीति का सहारा भी मिल गया है. भाषा विवाद में हिंदी अब पहले से कहीं ज्यादा मजबूत स्थिति में है.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)