लोकसभा चुनाव के बाद अब अखिल भारतीय सियासी ‘अखाड़ा’ ट्रेड यूनियन स्तर पर खुल गया है. खासतौर पर रेलवे में. रेलवे में यूनियन मान्यता चुनाव भी है और निगमीकरण की प्रक्रिया से उबाल भी है. उलझन ये है कि यूनियनें रेलवे को निजी हाथों में जाने से बचाने जोर लगाएं कि अपना वजूद बचाने को. हालांकि, ये दोनों ही मामले एक दूसरे से जुड़े भी हैं.
दरअसल, सरकार के दांवपेंच में श्रमिक महासंघ फंस गए हैं. फंसने की वजह उनकी खुद की मंशा और कार्यप्रणाली भी है, जिसकी वजह से श्रमिकों का भरोसा उनसे कम हुआ है. हकीकत ये है कि श्रमिक संघों पर ताकत उतनी नहीं बची है, जितना उनके नेता बम-बम करते हैं. पिछले कई वर्षों से राजनीतिक आंदोलनों में भागीदारी शून्य करके, वे छोटी-मोटी सहूलियतों या भत्तों के लिए अपने सेक्टर के प्रशासन के आगे चिरौरी करते ही नजर आते रहे हैं.
सरकार और प्रशासन के अफसरों के साथ बैठकर ठहाके लगाकर उनका शारीरिक वजन तो बढ़ता गया, लेकिन बात का वजन घटता गया. इस वजन को मेंटेन करने या फिर बैठकों के जायके के मुरीद होकर श्रमिकों को भभकी देना भी उनकी कार्यशैली का तरीका बन चुका है. लिहाजा इन तरीकों ने आज उनको इस मोड़ पर ला खड़ा किया है कि दोनों ओर से हिकारत के सिवाय कुछ नहीं मिल रहा है.
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में श्रमिक संघों के पर कतरने के कई काम हुए. ये सब अब दूसरे कार्यकाल में लागू करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. हुआ ये, कांग्रेस की लाई नई आर्थिक नीतियों को भाजपा सरकार ने इतनी शिद्दत से लागू किया जितना कांग्रेस भी करने से हिचकती.
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सार्वजनिक उपक्रमों को निजी कंपनियों के हाथों बेचने की प्रक्रिया में यूनियनों का नेतृत्व सशक्त प्रतिरोध करने में नाकाम रहा, बल्कि इस बीच नेतृत्व अपनी नेतागिरी बचाने भर को सक्रिय रहा. एकाध बार साझे मोर्चा बनाकर दिल्ली दर्शन कर लिया. इसका असर इतना भी नहीं हुआ कि कोई श्रमिक विरोधी प्रक्रिया कुछ अरसे के लिए ठहर भी जाती.
ऐसा हुआ कैसे?
साझे प्रयास से ऐसा पहले कई बार हुआ है कि सरकार ने श्रमिक संघ प्रतिनिधियों के साथ वार्ता बुलाकर मामलों पर राय बनाई और दोनों ओर से युद्ध विराम की स्थितियां रहीं. हालांकि, सरकार दूसरे तरीकों से अपने लक्ष्य को हासिल करने में लगी रही. मोदी सरकार में ऐसा नहीं हुआ. सरकार रत्तीभर झुकी नहीं.
इसका कारण था, उसका सहयोगी श्रमिक महासंघ भारतीय मजदूर संघ. सदस्यता के मानदंड पर विश्व का सबसे बड़ा महासंघ, भले ही प्रमुख सेक्टर में उससे संबद्ध ट्रेड यूनियनें मान्यता में न रही हों. फिर भी भाजपा सरकार बनने से उसका दखल सभी जगह हो गया. श्रमिकों को दिखाने के लिए संघर्ष और प्रतिरोध का चेहरा भी बनाने की कोशिश की. अलबत्ता अंदरखाने दूसरा खेल चला.
गेम दोतरफा हुआ. एक ओर सरकार कांग्रेस या वामपंथी मिजाज के श्रमिक महासंघों को ठिकाने लगाने की प्रक्रिया शुरू कर दी, दूसरी ओर बीएमएस के माध्यम से सरकार समर्थक श्रमिक महासंघों का मोर्चा बनाने का प्रयास शुरू हो गया. दोनों की कामों के नतीजे सरकार के मनमाफिक आए. ट्रेड यूनियन संशोधन विधेयक को जनवरी महीने में उस वक्त केंद्रीय कैबिनेट में पास कराया गया, जब श्रमिक महासंघों ने इसके विरोध में हड़ताल का ऐलान कर दिया था.
ऐसे वक्त में पहले तो बीएमएस साझा मोर्चे के साथ था, लेकिन अंतिम दिनों में उसने यूटर्न ले लिया और हड़ताल के विरोध में आ गया. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और इंटक के महासचिव के बीच वार्तालाप के पत्र वायरल हुए, जिसमें हड़ताल को सरकार विरोधी साजिश के तौर प्रचारित किया गया. दूसरी ओर बीएमएस ने कुछ श्रमिक महासंघों को लेकर कन्फेडरेशन ऑफ सेंट्रल ट्रेड यूनियंस (कन्सेंट) बना लिया, जिसने हड़ताल में शामिल होने से इंकार कर दिया.
मजे की बात ये है कि इस कन्सेंट में खुद को असली इंटक और असली टीयूसीसी घोषित करने वाला धड़ा भी शामिल हो गया. इंटक और टीयूसीसी के असली नकली का हिसाब अदालत में होना है. फिलहाल सरकार ने कांग्रेस के नजदीकी धड़े को वार्ताओं में किनारे लगाना शुरू कर दिया है. पिछली सरकार में कोयला मजदूरों के मामले में कांग्रेसी धड़े वाली इंटक को इसी वजह से वार्ता में शामिल नहीं किया गया.
पिछली सरकार के ही वक्त में केंद्रीय श्रम व रोजगार राज्यमंत्री संतोष गंगवार ने संकेत दिया था कि भविष्य में तीन चार श्रमिक महासंघ रह जाएंगे. इस बात को मौजूदा हालात में समझा जाए तो यही भविष्य दिखाई भी दे रहा है. निजीकरण की मुहिम के तहत यूनियनों और फेडरेशनों का अस्तित्व तय हो जाएगा, ये सरकार और नियोक्ता की इच्छा पर ज्यादा निर्भर होगा कि किसको मान्यता दें.
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ऐसे में वे किसको तवज्जो देंगे? जाहिर है, सहयोगी श्रमिक महासंघ बीएमएस और उसके मोर्चे में शामिल होने वाले महासंघों को. मोर्चे में मौजूद संघ भी अपने वजूद को बचाने के लिए इस नीति को अपनाए हुए लगते हैं. कई बार इसी वजह से दोतरफा चाल चलते हैं. कंसेंट के साथ एक बात और अलग से दूसरी. आम हड़ताल के समय ये दिखाई भी दिया.
रेलवे में दखल का मंसूबा
करीब 14 लाख कर्मचारियों वाले रेलवे कई मायने में अहम है. बड़ा सेक्टर होने के नाते केंद्र सरकार से श्रम संघों की वार्ता में रेलवे का फेडरेशन अगुवाई करता है, इसके बाद बैंक के फेडरेशन मुखर हैं. दोनों ही सेक्टर में सरकार के सहयोगी श्रमिक महासंघ की पहुंच अच्छी नहीं है. रेलवे में एचएमएस के फेडरेशन एआईआरएफ और बैंक में एटक का दबदबा है.
ऐसे में निजीकरण के जरिए पांते बिखेरी जा रही हैं और आने वाले चुनाव में मान्यता प्राप्त होने के बावजूद एआईआरएफ का कुछ न कर पाना विरोधी पक्ष के तौर पर बीआरएमएस को फायदा पहुंचाता दिख रहा है. हालत ये है कि निजीकरण के खिलाफ बीएमएस का फेडरेशन बीआरएमएस सरकार के खिलाफ नहीं बल्कि मान्यता प्राप्त फेडरेशनों एआईआरएफ और एफआईआर के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं.
इसके अलावा इस चुनाव में भी हिंदुत्ववादी या कथित राष्ट्रवादी राजनीति का तडक़ा भरपूर लग रहा है. यूनियनों का अंदेशा अभी तक ये भी है कि हो सकता है कि रेलवे यूनियन मान्यता चुनाव ही न हो. उत्पादन इकाइयों में मजबूत आईआरईएफ और कुछ जोन में बेहतर करने के प्रयास में छोटी यूनियनें जरूर निजीकरण के खिलाफ मुहिम छेड़े हुए हैं.
(आशीष सक्सेना स्वतंत्र पत्रकार हैं. यह उनका निजी विचार है.)