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Monday, 4 November, 2024
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नेता लोग तो नहीं, भारतीय सेना बेहतर प्रबंधन करके ‘अग्निवीरों’ को जरूर बचा सकती है

अग्निपथ योजना में अग्निवीरों के पुनर्वास का भरोसा तो नहीं है इसके बावजूद सेना के लिए यह एक चुनौती है कि वह इस योजना को सफल बनाए.

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राजनीतिक मंजूरी से लागू की जा रही ‘अग्निपथ’ योजना को शुरू में ही उल्लेखनीय मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि बदकिस्मती से इसके राजनीतिक और भावनात्मक पहलू ज्यादा मुखर हो गए हैं. सौभाग्य से, इसकी सफलता का दारोमदार सेना के कंधे पर है और सेना को अधिकारियों के दर्जे से नीचे के मानव संसाधन में सुधार के मामले में राजनीतिक दखलंदाजी से बहुत हद तक राहत हासिल है. सेना को ‘अग्निपथ’ योजना के चार चरणों (चयन, प्रारंभिक ट्रेनिंग, यूनिट में सेवा और पुनर्वास) में से तीन चरणों की जिम्मेदारी सौंपी गई है.

पुनर्वास वाले चरण की जिम्मेदारी राजनीतिक नेतृत्व के हिस्से है. अगर पुनर्वास की मांगों का संतोषजनक निपटारा नहीं किया जाता तो मानव संसाधन की गुणवत्ता कुप्रभावित होगी और इस योजना का एक बड़ा मकसद अधूरा रह जाएगा. यह मकसद है— तकनीकी हुनरमंद लोगों को सेना में लाना. लेकिन उम्मीद की किरण यह है कि सेना राजनीतिक चूकों को काफी हद तक दूर कर सकती है क्योंकि योजना के प्रारंभिक तीन चरणों की जिम्मेदारी उसके पास होगी. इसमें कोई संदेह नहीं रहना चाहिए कि इस योजना ने विभिन्न चरणों के साथ जुड़े विभिन्न स्तर के नेतृत्व के लिए बड़ी चुनौतियां पेश कर रही है.

भारी बेरोजगारी के कारण प्रत्याशियों की कोई कमी नहीं होगी. जब तक सर्वश्रेष्ठ का चयन किया जाता रहेगा, तब तक दो चरण— प्रारंभिक ट्रेनिंग और यूनिट में सेवा— ऐसे होंगे जो सेना के लिए महत्व रखेंगे.


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अग्निवीरों का प्रशिक्षण

प्रारंभिक प्रशिक्षण की एक बड़ी भूमिका यह होगी कि वह असैनिक रंगरूटों में सेना के बुनियादी मूल्यों में ढाले और उनसे सेना के जरूरी काम करवाए. व्यावहारिकता के लिहाज से, थल सेना के रेजिमेंटल सेंटरों और नौसेना तथा वायुसेना के भी ऐसे सेंटरों में शुरुआती ट्रेनिंग अग्निवीरों को सेना की यूनिटों में मौजूद कर्मियों के साथ घुलने-मिलने के लिए तैयार करेगी. इसलिए उन्हें कोई विशेष पहचान बैज आदि देने के विचार को टाल देना चाहिए.

सेना के मूल्यों को अपनाना और उसके कामों या ड्यूटी को पूरा करना मेहनत का काम हो सकता है, जो शारीरिक तथा मानसिक स्तरों पर निरंतर जारी रखने वाली प्रक्रिया हो सकती है. लेकिन इस प्रक्रिया को अनुभवी इंस्ट्रक्टरों की मदद से अच्छी तरह आगे बढ़ाया जाता है, जो नये रंगरूटों को एक सामूहिक इकाई मान कर ट्रेनिंग देते हैं.

सेवा अवधि छोटी होने से कर्मचारियों की आवक बढ़ती है और इस कारण प्रशिक्षण की व्यवस्था का विस्तार जरूरी हो जाता है, हालांकि प्रारंभिक प्रशिक्षण की अवधि केवल छह महीने रखने से थोड़ी राहत रहेगी. साथ ही, ऐसे विविध तरीके अपनाने होंगे कि प्रशिक्षण अवधि में कटौती की भरपाई हो सके. प्रारंभिक प्रशिक्षण देने के लिए जिम्मेदार सैन्य नेतृत्व का काम स्पष्ट है कि उन्हें नये उपाय अपनाने होंगे और उन्हें प्रभावी तरीके से लागू करना होगा.


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नये ‘विभाजन’ से निपटना

प्रारंभिक प्रशिक्षण पर ‘सर्विस इन यूनिट’ वाला चरण हावी होगा.

इस चरण में अग्निवीरों का योगदान उस यूनिट के सैन्य प्रभाव के लिए महत्वपूर्ण होगा जिस यूनिट को वे सेवा देंगे. तीनों सेनाओं की सैन्य यूनिटें भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं, वे अलग-अलग मकसद पूरे करती हैं और सैन्य शक्ति का आधार तैयार करती हैं. किसी यूनिट की युद्ध क्षमता इसके सैनिकों की क्षमता से तय होती है. शक्ति का मूल है साझा लक्ष्यों को हासिल करने के लिए विभिन्न स्तरों पर लक्ष्य को लेकर एकजुटता और टीम वर्क. व्यापक सामाजिक ढांचे के लिहाज से, ‘अग्निपथ’ योजना यूनिटों को मुख्यतः पहचान आधारित वर्गों में बांट सकता है— ‘अग्निवीरों’ और ‘रेगुलर सैनिकों’ में. इसलिए, सैन्य नेतृत्व की एक बड़ी चुनौती इस विभाजन को संभालने की होगी.

मौजूदा स्थितियों में, इन दोनों वर्गों के प्रेरणा स्रोत निश्चित ही भिन्न-भिन्न होंगे. अग्निवीरों के लिए मुख्य प्रेरणा स्रोत यह होगा कि कैसे वे उन 25 प्रतिशत अग्निवीरों में शामिल हो जाएं कि उनकी सेवा आगे के लिए पक्की हो जाए. ऐसा इसलिए कि यह मामला देशव्यापी बेरोजगारी की समस्या से सीधे जुड़ा है. सेवा में बने रहने की इच्छा इस बात को भी रेखांकित करती है कि एक ऐसी खुली और समतामूलक चयन व्यवस्था की कितनी सख्त जरूरत है, जो कानूनी जांच पर खरी उतरते हुए नतीजे भी दे.

आकलन की कसौटियां इससे तय होंगी कि यूनिट किस प्रकार की है और सेवा की मांगें क्या हैं. एक जवाबदेह चयन व्यवस्था बनानी पड़ेगी. यह नयी चुनौती है और मसले की वैचारिकता तय करने की जरूरत है तथा यथासंभव एक शक्तिशाली व्यवस्था बनानी पड़ेगी ताकि उसके ब्योरे अग्निवीरों को बताए जा सकें. उनके कामकाज में कुशलता लाने के लिए यह बेहद जरूरी है. छह साल के बाद, जिन लोगों को आगे विस्तार दिया जाएगा उनकी प्रेरणा का केंद्र निश्चित ही रेगुलर सैनिकों के इस केंद्र से एकाकार हो जाएगा.


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सेवा विस्तार की व्यवस्था— केंद्रीकरण बनाम विकेंद्रीकरण

सरकारी प्रेस विज्ञप्ति बताती है कि सेवा विस्तार के लिए चयन प्रक्रिया केंद्रीकृत होगी. सैनिकों वाला चरित्र और पेशेगत गुणों का मूल्यांकन करना होगा और सेवा में बनाए रखने के लिए उनके बीच योग्यता की कसौटी तय करनी पड़ेगी. सवाल यह है कि केंद्रीकृत व्यवस्था समुचित होगी या विकेंद्रीकृत. चारित्रिक गुणों के बारे में जानकारियां कमांडिंग अफसर से ली जा सकती हैं, वह भी उपयुक्त स्तर पर तय किए गए दिशानिर्देशों पर आधारित हों, हालांकि इसमें भी मानवीय चूकें हो सकती हैं.

दूसरी ओर, पेशेगत क्षमता का आकलन केंद्रीकृत ऑनलाइन टेस्ट से किया जा सकता है. लेकिन यहां समस्या यह है कि ‘कॉमन ट्रेड’ के अग्निवीर विविधतापूर्ण क्षेत्र में काम कर चुके हो सकते हैं. इसलिए, ऐसा टेस्ट लेना मुश्किल हो सकता है जिसमें मध्यमान योग्यता का पैमाना सबके लिए समान अवसर भी उपलब्ध कराए.

केंद्रीकरण बनाम विकेंद्रीकरण मसले का कोई आसान उपाय नहीं दिखता है. तीनों सेनाओं को अपने तरीके ईजाद करने पड़ेंगे. युद्ध और युद्ध में सेना की मदद करने वाले अंगों, मसलन इन्फैन्ट्री, मेकेनाइज्ड इन्फैन्ट्री, आर्मर, एअर डिफेंस आर्टिलरी और इंजीनियर्स के मामलों में सेवा विस्तार देने के फैसले में कमांडिंग अफसर बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. यह भी पक्की व्यवस्था नहीं होगी मगर केंद्रीकृत व्यवस्था से बेहतर ही सकती है.

चार साल पूरे करने वालों की चयन प्रक्रिया के केंद्रीकरण के कारण कमांडिंग अफसरों के अधिकार कम नहीं किए जाने चाहिए और सैन्य मकसदों के लिए मानव क्षमता में वृद्धि के प्रयासों को कमजोर नहीं किया जाना चाहिए. इस मामले में जो भी किया जाता है कमांडिंग अफसरों को इससे निपटने का अधिकार दिया जाना चाहिए. केंद्रीकृत व्यवस्था के मुकाबले कम दिन अफसर और उसके सहयोगी अफसर संबंधित सैनिकों के बारे में बेहतर जानकारी रख सकते हैं. कोई भी केंद्रीकृत व्यवस्था गणितीय फॉर्मूले में तब्दील जानकारियों के आधार पर ही अपना मत बनाएगी. लेकिन अगर सेवा विस्तार के तहत भरे जाने वाले खाली पदों को कमांडिंग अफसरों को सब-एलॉट कर दिया जाएगा तो मशीनों पर आधारित केंद्रीकृत व्यवस्था के फैसले कमांडिंग अफसरों के मानवीय फैसलों, चाहे वे मुकम्मल न भी हों, से बेहतर नहीं होंगे.

यूनिटों के अंदर नया विभाजन कई रूपों में सामने आ सकता है. दुर्भाग्य से, ढांचागत विभाजन स्थायी है. कमांडिंग अफसरों का काम स्पष्ट है. यह कठिन जिम्मेदारी हो सकती है लेकिन अच्छे नेतृत्व के बस के बाहर नहीं है. चुनौती इन मसलों को समय से पहले ही निपटाने की है. विस्तार देने के तरीके में केंद्रीकरण का जो रवैया जोड़ा गया है उसकी समीक्षा बहुत जरूरी है. और या तो केंद्रीकृत व्यवस्था लागू हो या विकेंद्रीकृत व्यवस्था, या फिर दोनों का मिक्सचर लागू किया जाए.


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राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका

कर्मियों की तेजी से टर्नओवर की जरूरत के साथ-साथ आधुनिकीकरण नहीं चल सकता. संगठन के हित में, जो व्यक्तिगत हितों से ऊपर होता है, राजनीतिक नेतृत्व श्रम कानूनों में संशोधन करके यह व्यवस्था कर सकता है कि अग्निवीर ग्रेच्युटी और पेंशन की सुविधाओं के बिना सात साल तक सेवा दें. सेना फैसला कर सकती है कि किस अंग में चार साल से ज्यादा सेवा देने की जरूरत है. ऐसे कदम ‘अग्निपथ’ योजना की सफलता में बड़ा योगदान दे सकते हैं.

मुझे उम्मीद नहीं है कि राजनीतिक नेतृत्व पुनर्वास के वादे को पूरा करेगा. सेना के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह पुनर्वास के आश्वासन के बगैर भी इस योजना को सफल बनाए. नये विभाजन का अनुमान अनुभव जनित कल्पनाशीलता से लगाया जा सकता है. सेना के पास उभरने वाले मसलों से निपटने के लिए काफी हद तक स्वतंत्र एजेंसी मौजूद है.

कमांडिंग अफसरों के सामने हल्के-गंभीर मसलों का अंबार लगा ही रहता है. सेना के प्रभाव को मजबूत करते हुए ‘विभाजन’ से निपटना एक और चुनौती है. अग्निपथ योजना का दायरा इतना बड़ा है कि इसकी तपन से सेना के तमाम सैनिक अछूते नहीं रह सकते. अब यही उम्मीद की जा सकती है कि इसकी सफलता राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अंततः हितकारी साबित होगी.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज के डायरेक्टर हैं; वे नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के पूर्व सैन्य सलाहकार भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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