अब जबकि हम 2021 में प्रवेश कर चुके हैं भारत के रक्षा प्रतिष्ठानों को शायद यही उम्मीद होगी कि नया दशक बीते दशक की तुलना में बहुत बेहतर होगा. नए रक्षा उपकरणों की खरीद और आधुनिकीकरण के मामले में पिछला दशक सशस्त्र बलों के लिए काफी सुस्ती भरा रहा है.
पिछले दशक में रक्षा क्षेत्र में भारत की निराशा राजनीतिक नेतृत्व की कमी का नतीजा रही है.
वैसे तो, इस दौरान रक्षा मंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले छह बार बदले. लेकिन नि:संदेह किसी भी तरह से योजनाओं के मामले में रक्षा मंत्रालय, जो सुरक्षा पर कैबिनेट समिति (सीसीएस) का हिस्सा है, को गृह, वित्त और विदेश मामलों के मंत्रालयों की तुलना में कम ताकतवर और आकर्षक माना जाता रहा है.
एंटनी युग
रक्षा मंत्रालय में सबसे लंबी राजनीतिक स्थिरता यूपीए सरकार के दौरान तब आई जब ए.के. एंटनी इसका प्रभार देख रहे थे—यानी अक्टूबर 2006 से मई 2014 के बीच.
हालांकि, एंटनी की ‘मिस्टर क्लीन’ वाली छवि के बावजूद उनका लंबा कार्यकाल घोटालों, संकटों और एक तरह के ठहराव का गवाह बना. उनके नेतृत्व में निर्णय लेने की प्रक्रिया बहुत ही धीमी गति से रेंगने वाली स्थिति में पहुंच गई थी.
2014 में जब एंटनी ने यह मंत्रालय छोड़ा, तब भी सशस्त्र बल लगभग पूरी तरह 1980 के दशक या उससे पहले हासिल रक्षा प्रणालियों पर निर्भर थे. लड़ाकू हेलीकॉप्टर, नई पनडुब्बी, युद्धक विमान और हॉवित्जर आदि खरीदने की योजनाएं जैसे उनका कार्यकाल शुरू होने से पहले लंबित थीं, वैसे ही जस की तस लटकी रहीं.
चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) पद का सृजन, तीनों सशस्त्र बलों का एकीकरण और उनका एक साझा मंच बनाना उनके कार्यकाल में सिर्फ एक सपना बनकर रह गया.
एंटनी के कार्यकाल की एकमात्र सबसे बड़ी सफलता अमेरिका से परिवहन विमान सी-17 और सी-130 जे की खरीद के सौदे पर हस्ताक्षर करना रही. लेकिन युद्धक हथियारों को लेकर ठहराव की स्थिति बनी रही.
सोनिया गांधी के करीबी होने के नाते यूपीए में एंटनी का राजनीतिक कद काफी बड़ा था लेकिन उन्होंने अपने मंत्रालय में इसका इस्तेमाल आधुनिकीकरण प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में कभी नहीं किया. ‘मिस्टर क्लीन’ बने रहने की उनकी मंशा का मायने था कि कोई बड़ा फैसला ही न लिया जाए, जबकि हथियार डीलर और बिचौलियों की उनके मंत्रालय में बेरोट-टोक पहुंच बनी रही.
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जेटली से पर्रिकर और फिर जेटली तक
2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार आई तो पूरी शिद्दत से ये उम्मीद की जाने लगीं कि रक्षा आधुनिकीकरण को अपेक्षित गति मिलेगी.
अरुण जेटली ने 26 मई 2014 को रक्षा मंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की थी लेकिन उन पर एक दोहरी जिम्मेदारी थी क्योंकि उन्हें वित्त मंत्री भी बनाया गया था, और ऐसा लगा कि यही उनका प्राथमिक कार्य बन गया था.
मात्र छह महीनों में जेटली ने गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के लिए रास्ता साफ दिया और 9 नवंबर को उन्होंने रक्षा मंत्री का पदभार संभाला. आईआईटी पृष्ठभूमि और तेज दिमाग वाले पर्रिकर ने रक्षा मंत्रालय में एक नई ऊर्जा का संचार किया.
राष्ट्रीय राजधानी में रहकर इसके अनुरूप कार्यशैली न जानना पर्रिकर के लिए एक बाधा थी, लेकिन फिर वह कभी पूरी तरह दिल्ली वाले राजनेता नहीं बन पाए.
जैसा मैंने 2019 में लिखा था, पर्रिकर मंत्रालय में नौकरशाही के दखल की आलोचना करते रहते थे, और अक्सर ही कई फैसलों पर निजी तौर पर जिम्मेदारी लेकर अधिकारियों से आगे बढ़ने को कहते थे.
उनके नेतृत्व में ही सीडीएस पद के सृजन, सशस्त्र बलों के एकीकरण, तेजस लड़ाकू विमान को शामिल किए जाने और लड़ाकू हेलीकॉप्टरों के लिए करार जैसे कई प्रमुख सुधारों पर प्रक्रिया थोड़ी आगे बढ़ी.
लेकिन पर्रिकर जैसे ही यहां थोड़ा स्थिर होने लगे, मार्च 2017 में गोवा में राजनीतिक अस्थिरता के कारण उन्हें फिर से वहां का मुख्यमंत्री बनाकर भेज दिया गया.
हालांकि, पर्रिकर वैसे भी गोवा लौटना ही चाहते थे. रक्षा हलकों में हर कोई जानता था कि वापस लौटने पर उन्हें खुशी और राहत महसूस हो रही है लेकिन कहीं न कहीं निराश कर देने का अपराधबोध भी था.
उनके लिए सबसे बड़ा झटका यह था कि वह रक्षा मंत्रालय में जो कुछ सुधार लागू करना चाहते थे, उनमें असमर्थ रहे थे. भले ही सीसीएस का हिस्सा थे, लेकिन मोदी सरकार में उन्हें कभी भी राजनाथ सिंह, अरुण जेटली या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल जैसे ताकत हासिल नहीं थी.
जो मौके चूके
पर्रिकर की वापसी के बाद अरुण जेटली को एक बार फिर दोहरी जिम्मेदारी के साथ रक्षा मंत्रालय का कामकाज सौंपा गया.
3 सितंबर 2017 तक चले जेटली के कार्यकाल का मतलब ही था प्रमुख सुधारों में एक ठहराव आ जाना क्योंकि उनका पूरा ध्यान तो वित्त मंत्रालय पर केंद्रित था.
फिर सितंबर 2017 में आकर मंत्रालय को निर्मला सीतारमण के रूप में एक पूर्णकालिक प्रमुख मिला गया, जिन्हें इस पद के लिहाज से काफी कमजोर माना जा रहा था.
जैसा कि 2019 में प्रकाशित खबरें बताती हैं कि रक्षा मंत्रालय में सीतारमण का कार्यकाल आसान नहीं था क्योंकि एक तो उन्होंने वह कुर्सी संभाली थी जिस पर पर्रिकर काबिज रहे थे जिन्होंने उद्योग और सशस्त्र बलों दोनों का ही भरोसा जीता था.
वह कभी सशस्त्र बलों या उद्योग के साथ तालमेल नहीं बैठा सकती थीं और उनमें रक्षा मंत्रालय की पेचीदगियों और इसकी कार्यशैली को लेकर समझ का अभाव साफ नजर आ रहा था.
राफेल विवाद ने उनकी समझ और इस मामले में विशेषज्ञता की पूरी परीक्षा ले डाली, और उनके कार्यकाल का एक बड़ा हिस्सा विवादों की छाया में गुजरना तय कर दिया.
कुछ राहत
इसके बाद 2019 में आकर ही राजनाथ सिंह के तौर पर रक्षा मंत्रालय को एक बार फिर सुधारों को लागू करा पाने की राजनीतिक हैसियत रखने वाला एक पूर्णकालिक मंत्री मिला.
गृह मंत्री के रूप में बेहद शानदार तरीके से केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ) के आधुनिकीकरण का नेतृत्व करने वाले राजनाथ सिंह जानते हैं कि रक्षा संबंधी मामलों को बिलकुल अलग तरह से संभालना पड़ता है.
मैं ‘शानदार तरीके से’ इसलिए कहता हूं क्योंकि सीएपीएफ कर्मी सेना के एक पैदल सिपाही, जो अब भी बुनियादी बुलेट-प्रूफ जैकेट और एक इंसास राइफल पर निर्भर हैं, की तुलना में बेहतर हथियारों और गोला-बारूद से लैस होते हैं. यह आधुनिक युद्धक क्षमता के दौर में हास्यास्पद है.
उम्मीद है कि राजनाथ सिंह अगले कुछ वर्षों में तीनों सेनाओं को मजबूत करने में सक्षम होंगे, जिससे आने वाले दशक में आधुनिकीकृत और बेहतर रक्षा उपकरणों से सुसज्जित युद्धक बल के रूप में सशस्त्र सेनाओं के पुनर्गठन की नींव पड़ेगी.
बहुत सारे लंबित प्रस्ताव लंबित हैं, जिन्हें रक्षा मंत्री द्वारा समयबद्ध तरीके से पूरा किए जाने की आवश्यकता होगी.
भारत जल्द ही थिएटर कमांड शुरू करने को तैयार है, जो हमारे सशस्त्र बलों के काम करने के तरीके को एकदम बदल देगा.
अभी अरबों डॉलर की लागत वाली आधुनिकीकरण की प्रक्रिया चल रही है, और इसमें सैन्य बलों को नए लड़ाकू विमानों, पनडुब्बियों, विमान वाहकों, मिड-एयर रिफ्यूलर, टैंक, सशस्त्र यूएवी, हॉवित्जर, असॉल्ट राइफलें, हेलीकॉप्टर आदि से लैस करना शामिल है.
इसके लिए जरूरी है कि रक्षा मंत्रालय से जुड़े मामलों की कमान किसी सशक्त और समझदार व्यक्ति के हाथों में रहे. उम्मीद करते हैं कि मोदी सरकार आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचाएगी, इसे टुकड़ों-टुकड़ों में पूरा करने वाला रुख नहीं अपनाएगी.
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(व्यक्त विचार निजी हैं)
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