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Friday, 15 November, 2024
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BJP के शीर्ष नेताओं से क्यों निराश हैं PM नरेंद्र मोदी

मोदी के ऊपर देश चलाने की जिम्मेदारी है. उन्हें भाजपा के लिए वोट भी जीतने हैं. और अब उनसे उम्मीद की जा रही है कि वे आंतरिक कलह से परेशान अपने कुनबे को एकजुट भी रखें.

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ऐसा शायद ही होता है कि किसी विधानसभा का चुनाव लड़ रहे किसी निर्दलीय उम्मीदवार को देश के प्रधानमंत्री का फोन आए और वह भी कहने के लिए कि वह चुनाव से हट जाए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिमाचल प्रदेश की फतेहपुर सीट से भाजपा के बागी उम्मीदवार कृपाल परमार को फोन पर भावुक अपील की कि ‘मेरा तुम पर पूरा हक है. मैं कुछ नहीं सुनूंगा… मेरा कृपाल ऐसा नहीं हो सकता.’

भाजपा के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष परमार ने जवाब दिया कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने 15 साल तक ‘ज़लील किया’. जब परमार ने मोदी से कहा कि उनका फोन दो दिन पहले आना चाहिए था और अब तो नामांकन का पर्चा वापस लेने की तारीख निकल चुकी है, तो मोदी ने कुछ नाराजगी के साथ यह कहते हुए फोन रख दिया कि ‘अच्छा भैया, अच्छा जी’. एक सामान्य भाजपा कार्यकर्ता प्रधानमंत्री मोदी के साथ बहस कर रहा था. अगले दिन भाजपा ने परमार के साथ चार बागियों को पार्टी से निकाल दिया.

इस बातचीत के ऑडिओ-वीडियो क्लिप शनिवार को सोशल मीडिया पर वायरल हो गए. इसका खंडन न अब तक प्रधानमंत्री कार्यालय ने किया है और न भाजपा ने. विपक्षी कांग्रेस पार्टी गदगद है. भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष श्रीनिवास बीवी ने ट्वीटर पर कटाक्ष किया- ‘काश प्रधानमंत्री ने शी जिनपिंग को भी इसी हनक के साथ फोन किया होता कि वे भारतीय जमीन पर कब्जा छोड़ कर वापस चले जाएं.’ उनकी कांग्रेस पार्टी के दूसरे साथी भी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं.

पार्टी की प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने ट्वीट किया- ‘नड्डा जी तो हार गए, तो अब साहब खुद बागियों को फोन कर रहे हैं. आसन्न हार साहब की नींद खराब कर रही है.’ लेकिन विपक्षी नेताओं को ध्यान देना चाहिए कि आर्थिक स्थिति, राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति के मोर्चों पर चुनौतियों के ऊपर ध्यान देने की जगह भाजपा के बागियों को मोदी का फोन करना जनता को चिढ़ा सकता है.

लेकिन उन्हें मोदी को इस तरह जवाब देने के लिए नहीं जाना जाता है. मज़ाक उनका नहीं उड़ाया गया. भाजपा इसे भी उनके गुण के रूप में पेश करेगी— देखिए, प्रधानमंत्री पार्टी के प्रति कितने प्रतिबद्ध हैं. उनके लिए भाजपा का हित सर्वोपरि है. मोदी की यात्राएं, खासकर घरेलू यात्राएं भाजपा की खातिर कर रहे हैं जबकि कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ राहुल गांधी की छवि चमकाने के लिए है. कांग्रेस ने शरद पवार और उद्धव ठाकरे को भी इस यात्रा में शामिल होने का निमंत्रण दिया है और यह महाराष्ट्र में यात्रा को सफल बनाने के लिए एनसीपी तथा शिवसेना के कार्यकर्ताओं की मदद लेने की कोशिश ही है.

‘इंडियन एक्सप्रेस’ की खबर के मुताबिक, शनिवार को सोलन में एक रैली में मोदी ने कहा, ‘आपको किसी उम्मीदवार का नाम याद रखने की जरूरत नहीं है… मोदी आपके पास आया है… मगर आपका एक-एक वोट आशीर्वाद के रूप में सीधे मोदी के खाते में जाएगा.’ भाजपा की खातिर मोदी अपने ब्रांड को भी दांव पर लगा रहे हैं. देश के प्रधानमंत्री पर वैसे ही भारी जिम्मेदारी होती है लेकिन वे भाजपा के बागियों को फोन करने का समय भी निकाल रहे हैं, जबकि राहुल को गुजरात और हिमाचल में कांग्रेस का क्या होगा इससे बेफिक्र हैं. लेकिन हम सब जो जानते हैं उसके अनुसार मोदी अगर बागी  उम्मीदवार को फोन कर रहे हैं तो यह भाजपा के कार्यकर्ताओं को पार्टी के अधिकृत उम्मीदवारों के पीछे खड़ा कर देगा.

लेकिन ऑडिओ क्लिप एक बड़ी समस्या को रेखांकित करता है— काडर वाली पार्टी में अनुशासनहीनता और गुटबाजी बढ़ रही है और शीर्ष नेतृत्व लाचार होकर देख रहा है. नड्डा के गढ़ हिमाचल में भाजपा के बागी 68 यानी करीब एक चौथाई सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं. यह मोदी और पार्टी के मुख्य रणनीतिकार अमित शाह के लिए निश्चित ही खतरे की घंटी है.

नड्डा अपने ही राज्य में अचानक कमजोर दिखने लगे हैं क्योंकि खुद उनके जिले बिलासपुर की चार में से दो सीटों पर भाजपा के बागी चुनाव लड़ रहे हैं. भाजपा का नारा ‘नया रिवाज बनाएंगे’ (सत्ता में बने रहने का) नया अर्थ ले रहा है. अगर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के घर में ही लगी आग को बुझाने के लिए मोदी को आगे आना पड़ रहा है तो यह पार्टी के नेतृत्व के बारे में कुछ उजागर कर रहा है.


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गुटबाजी से जूझते मोदी

मोदी के लिए चिंता की वजह यह होगी कि पार्टी की यह हालत सिर्फ हिमाचल में ही सीमित नहीं है. कर्नाटक से लेकर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान तक कई राज्यों में भाजपा के अंदर भारी कलह जारी है. आलाकमान ने कर्नाटक में बी.एस. येदियुरप्पा को हटाकर बासवराज बोम्मई को गद्दी सौंपनी पड़ी. लेकिन बोम्मई नाकाम ही साबित हुए हैं क्योंकि उनकी सरकार हर दिन किसी-न-किसी विवाद में घिरती रही है और मुख्यमंत्री असहाय नज़र आते रहे हैं. यहां तक कि आलाकमान को येदियुरप्पा को भाजपा संसदीय दल में शामिल करना पड़ा.

मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के वफादारों ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया है. ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर ग्वालियर की ऊबड़खाबड़ सड़कों पर यह महसूस करने के लिए नंगे पैर चले कि दूसरों को ‘कैसा दर्द होता होगा’. पंचायती राज व ग्रामीण विकास मंत्री महेंद्र सिंह सिसोदिया ने राज्य प्रशासन को ‘निरंकुश’ घोषित कर दिया और इसके लिए चौहान के करीबी मुख्य सचिव इकबाल सिंह बैंस को जिम्मेदार बताया. भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलास विजयवर्गीय और सिंधिया के बीच बढ़ती नज़दीकियों ने पार्टी के हलकों में उत्सुकता जगा दी है. विजयवर्गीय ने शनिवार को चौहान पर कटाक्ष किया. 2018 में अगर चौहान ने चुनाव के बाद ‘हड़बड़ी में’ इस्तीफा न दिया होता तो उस समय भाजपा की सरकार बनती.

उत्तर प्रदेश में उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक, जो अमित शाह के करीबी माने जाते हैं, अतिरिक्त मुख्य सचिव अमित मोहन प्रसाद पर निशाना साधते रहे हैं. प्रसाद को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का करीबी माना जाता है. कई और मंत्री भी प्रदेश के वरिष्ठ अफसरों के खिलाफ बोलते-लिखते रहे हैं और इसे ताकतवर मुख्यमंत्री के विरोध के रूप में देखा जाता है.

हरियाणा में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और गृह मंत्री अनिल विज के बीच लंबे समय से जारी तनातनी तो अब कोई नयी खबर नहीं बनती. इसी तरह राजस्थान में भाजपा के अंदर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को गद्दी के कई दावेदारों से मिल रही चुनौतियों के कारण घनघोर कलह मची है जबकि राज्य में चुनाव एक साल के अंदर ही होने वाले हैं.

अंदरूनी झगड़े कोई नये नहीं हैं. आज आश्चर्य की बात यह है कि भाजपा आलाकमान इन्हें रोक पाने में विफल दिख रहा है. वास्तव में, ये झगड़े तो दिन-ब-दिन गंभीर होते जा रहे हैं. एक लोकप्रिय प्रधानमंत्री और एक कुशलतम रणनीतिकार के नेतृत्व वाली पार्टी की यह विफलता आश्चर्यजनक है. इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि आलाकमान (प्रधानमंत्री को छोड़) निष्पक्ष पंच की जगह पक्षपाती बन गया है. कहा जाता है कि इन सभी राज्यों में पार्टी के अंदर एक-न-एक गुट ऐसा है जिसे आलाकमान की शह हासिल है और दूसरा गुट ऐसा है जिसे किनारे धकेल दिया गया है और वह अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है. दूसरे तरह के गुटों को मोदी से उम्मीदें हैं लेकिन प्रधानमंत्री संगठन के रोज़मर्रा के मामलों में उलझ नहीं सकते.

लेकिन ऐसे भी मौके आते हैं जब मोदी को मजबूरन दखल देना पड़ता है, जैसे वे हिमाचल में दे रहे हैं या कर्नाटक के मामले में उन्होंने येदियुरप्पा को संसदीय बोर्ड में शामिल करके दिया था. इससे पहले महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार को गिराने की पूरी जद्दोजहद करने वाले देवेंद्र फडनवीस को तब बड़ा झटका लगा था जब पार्टी आलाकमान ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया था. फडनवीस ने सरकार में शामिल होने से मना कर दिया था और अमित शाह तथा नड्डा के फोन आने के बाद भी नहीं माने थे. फडनवीस ने बाद में बताया कि प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद ही वे उपमुख्यमंत्री बनने को तैयार हुए.

72 साल के प्रधानमंत्री मोदी से इतनी ज्यादा उम्मीद करना ज्यादती ही होगी. उनके ऊपर देश चलाने की जिम्मेदारी है. उन्हें भाजपा के लिए वोट भी जीतने हैं. और अब उनसे उम्मीद की जा रही है कि वे पंच की भूमिका निभाएं और अपने कुनबे को एकजुट भी रखें. भाजपा की खातिर वे सारा बोझ भी उठा रहे हैं लेकिन पार्टी के वरिष्ठ साथियों से अगर वे निराश हों तो आश्चर्य नहीं.

(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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