मोदी-शाह-भाजपा कुनबे को बाकी कोई भी बेशक बुरा लगता हो, वह वफादार कतई बुरा नहीं लगता जो उनके तौर-तरीके को ‘गुजरात मॉडल’ का नाम देता है. लेकिन उनके आलोचक तो इस जुमले को 2002 के बाद ध्रुवीकरण की उनकी राजनीति का ट्रेडमार्क ही मानते हैं. वैसे, ‘गुजरात मॉडल’ का एक कम विवादास्पद रूप भी है, जिसे केंद्रीकृत शासन के तौर पर पहचाना जाता है. अब जरा गौर कीजिए कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में क्या ताज़ा परिवर्तन किए गए. उनके तीन प्रमुख सहायकों को कैबिनेट मंत्री का दर्जा देकर एक नई मिसाल कायम की गई है.
मोदी ने गुजरात में जिस तरह राजपाट चलाया था, यह उससे आगे का स्वाभाविक विकास है. लेकिन सबकी राहत के लिए हम इसे शासन का मोदी मॉडल नाम दे सकते हैं. इसकी शुरुआत 2001-02 में गुजरात में की गई थी, जो 2002-12 के बीच उनके दो पूर्ण कार्यकालों और दो आंशिक (2001-02, 2012-14) कार्यकालों में विकसित हुआ और जो उनके साथ दिल्ली भी पहुंच गया. पीएम के तौर पर उनका दूसरा कार्यकाल इसका और भी मजबूत संस्करण प्रस्तुत कर रहा है.
अगर आप जोखिम से बचने वाले व्यक्ति हैं तो आप म्यूचुअल फंडों के साथ जुड़ी इस वैधानिक चेतावनी को अपनाना चाहेंगे कि ‘पिछला परिणाम भविष्य के परिणाम की गारंटी नहीं है’. लेकिन हम जैसे राजनीतिक टीकाकारों को इस तरह की छूट नहीं मिलती क्योंकि हमारे छपे हुए शब्द सबकी जांच की जद में होते हैं. वैसे, मोदी की मामले में अब तक तो उनके पिछले कदम को उनके अगले कदमों का सुरक्षित संकेत माना जाता रहा है. बहुत कुछ बदल सकता है मगर बदलाव केवल ब्योरों में होगा, बुनियादी तत्व तो जस के तस बने रहेंगे.
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मोदी मॉडल के पांच अहम स्तम्भ ये हैं—
1. ‘सुप्रीमो’ यानी चीफ अपने भरोसेमंद सहायकों की मदद से पार्टी पर पूर्ण नियंत्रण रखेंगे.
2. शासन चुनिंदा अधिकारियों के जरिए होगा, उनकी सेवानिवृत्ति कोई रोड़ा नहीं बनेगी.
3. शासन मिशन केन्द्रित होगा और चंद विचारों पर आधारित होगा, जिनके परिणाम एक कार्यकाल में हासिल करने के लिए उन्हें चंद चुने हुए लोग लागू करेंगे.
4. जो बड़ा वैचारिक परिप्रेक्ष्य है उसे कभी ओझल नहीं होने दिया जाएगा.
5. भीतर और बाहर से होने वाले सभी तरह के विरोध को साम-दाम-दंड-भेद के जरिए निष्प्रभावी किया जाएगा.
यह गुजरात जैसे मंझोले और अपेक्षाकृत कम विविध राज्यों में तो कारगर रहा. पूरे भारत में यह कारगर हो सकेगा कि नहीं इसमें संदेह था. यह संदेह नोटबंदी, विदेश नीति के मामले में खासकर पड़ोसी देशों को लेकर पहले तो जोश और फिर कुछ झटकों के रूप में, या आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट, बेरोजगारी में वृद्धि और 2017 में गुजरात चुनाव में कांटे की टक्कर के रूप में उजागर भी हुआ. लेकिन असली चीज़ है अंतिम नतीजा. 303 के आंकड़े ने फैसला कर दिया है. सभी राजधानियों की तरह दिल्ली का भी मूल स्वभाव नौकरशाही वाला है.
मोदी के लिए अपने तीन सहायकों को प्रोन्नति देने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था. जब उन्होंने पूर्व आइएफएस अधिकारी एस. जयशंकर को विदेश मंत्री बना दिया तो रैंक को लेकर अटपटी स्थिति से बचने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एवं पूर्व आइपीएस अधिकारी अजित डोभाल का दर्जा बढ़ाना उनकी मजबूरी बन गई. इसके बाद आइएएस नृपेन्द्र मिश्र और पी.के. मिश्र को भी बराबर का दर्जा देना जरूरी हो गया.
प्रोटोकॉल संबंधी इन मजबूरियों में बहुत कुछ पढ़ने की जरूरत नहीं है. पहले भी मंत्री न रहे लोगों को कैबिनेट मंत्री पद का दर्जा दिया जा चुका है. मसलन योजना आयोग अथवा नीति आयोग के अध्यक्षों को, या यूपीए-2 में ‘आधार’ संगठन के प्रमुख नन्दन निलेकणी को.
यह विश्लेषण तीन कारणों से बेमानी लगता है. एक स्पष्ट कारण तो यह है कि मोदी के साम्राज्य में इस तरह की बातें बेतुकी हैं. दूसरा कारण यह है कि इसमें यह मान कर चला जा रहा है कि मोदी को ये बदलाव मजबूरी में करने पड़े. अब तक तो ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने मजबूरी में कोई काम किया हो, नौकरशाही वाले प्रोटोकॉल की मजबूरी में तो नहीं ही. चुनाव में इतना जोरदार बहुमत पाने के बाद भला वे ऐसा क्यों करेंगे? और तीसरा कारण यह है कि उन्हें किसी मजबूरी में जयशंकर को नहीं चुनना पड़ा है. उनको उन्होंने एक बड़ी योजना के तहत चुना और इसके बाद जो बदलाव किए वे सब उसके आगे के जरूरी कदम भर थे.
अब जो पीएमओ बना है वह अमेरिकी राष्ट्रपति के एक्सक्यूटिव ऑफिस जैसा है, जिसमें प्रमुख मंत्रियों के अधिकारों का प्रयोग यहां से किया जाता है. मोदी के पहले कार्यकाल में पीएमओ ने इसी तरह की मजबूती हासिल की और विदेश मामलों से लेकर स्वच्छता तक जो भी मोदी की प्राथमिकता में था उनका नियंत्रण यहीं से होता था. अब, इन मंत्रालयों के कर्ताधर्ता कद में बड़े बना दिए गए हैं, वे कैबिनेट मंत्री के ओहदे के साथ अपने बॉस के तहत जिम्मेदारियां संभालेंगे. इस तरह, ब्रिटिश शैली की मंत्रिमंडलीय व्यवस्था का, जिसमें प्रधानमंत्री को सभी समान मंत्रियों के बीच पहला माना जाता है, मुलम्मा भी उतार दिया गया है.
अब खास तौर से उस सक्रिय अमेरिकी राष्ट्रपति के बारे में सोचिए, जो अपने विश्वस्त एनएसए (राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार) के जरिए गृह और रक्षा विभागों को संभाल रहा हो, और वह एनएसए भी व्हाइट हाउस के उतने ही ताकतवर चीफ ऑफ स्टाफ को भी संभाल रहा हो. मोदी का मामला अलग है क्योंकि उनके चीफ ऑफ स्टाफ दो हैं.
इंदिरा गांधी ने प्रिंसिपल सेक्रेटरी का नया पद 1971 में बनाया था और इस पर पी.एन. हक्सर को नियुक्त किया था. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो हक्सर की जगह वी. शंकर को इस पद पर नियुक्त किया गया. इसके बाद कुछ समय के लिए इस पद को समाप्त कर दिया गया क्योंकि चरण सिंह की जनता सरकार को केन्द्रीकरण पसंद नहीं था. 1980 में इंदिरा की वापसी के साथ यह पद फिर बहाल किया गया और पी.सी. अलेक्ज़ेंडर को इस पर नियुक्त किया गया. इस बार एक और परिवर्तन हुआ. 1977 से पहले, इंदिरा के मंत्रिमंडल में जगजीवन राम सरीखे कुछ ताकतवर मंत्री मौजूद थे. अब, उनके मंत्रिमंडल में ऐसा कोई नहीं था. थोड़े-बहुत ताकतवर अगर कोई थे तो ये तब के युवा मंत्री प्रणब मुखर्जी थे.
मोदी के दूसरे कार्यकाल को इस स्थिति के बराबर माना जा सकता है, बेशक थोड़े फर्क के साथ. पहला फर्क यह है कि मोदी खुद सीधे पार्टी की कमान नहीं संभाल रहे हैं बल्कि अमित शाह के जरिए यह काम कर रहे हैं. दूसरे, इंदिरा गांधी के विपरीत मोदी का वैचारिक लक्ष्य निरंतरता बनाए रखना नहीं बल्कि बदलाव है, खासकर भारतीय धर्मनिरपेक्षता को गांधी परिवार के दृष्टिकोण से अलग तरह से परिभाषित करने के मामले में. चुनाव नतीजे वाले दिन अपनी पार्टी को संबोधन में मोदी ने इसे स्पष्ट कर दिया. और तीसरी बात यह है कि उनका न तो कोई परिवार है और न कोई वंश परंपरा.
इस मामले में भी उनकी तुलना अमेरिकी राष्ट्रपति से की जा सकती है. उन्हें न तो असीमित कार्यकाल हासिल है, न अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह यह दो कार्यकाल तक सीमित है. उनके बाद पार्टी का नेता कोई और बनेगा. वो कोई दूसरा मोदी नहीं होगा.
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल की एक जायज आलोचना यह थी कि उसमें प्रतिभाओं का अकाल था. मैं भी इससे क्षुब्ध था और इसे स्वतंत्र भारत की सबसे प्रतिभाविहीन सरकार कहा करता था. मोदी के करीबी लोग तब यह कहा करते थे कि क्या हुआ जो हमारे पास प्रतिभा और अनुभव की कमी है, हम सीखेंगे. लेकिन हम सत्ता हासिल करके इसे किसी और को भेंट में नहीं सौंप देंगे.
यह एक तरह से टीम बनाने की वाजपेयी शैली का परित्याग है. वाजपेयी ने हर तरफ से प्रतिभाओं को इकट्ठा किया था. जसवंत सिंह आरएसएस के नहीं थे, यशवंत सिन्हा और रंगराजन कुमारमंगलम भाजपा में नए-नए आए थे. जॉर्ज फर्नांडीस भाजपा या कांग्रेस के नेतृत्व वाले किसी गठबंधन सरकार की सुरक्षा संबंधी कैबिनेट कमिटी के पहले और आखिरी गैर-भाजपाई, गैर-कांग्रेसी सदस्य थे. अरुण शौरी परिवर्तन के सशक्त माध्यम थे जिन्होंने बाहर से अपनी बौद्धिकता और ईमानदारी की ताकत जोड़ी थी.
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मोदी और शाह ने अपने पहले कार्यकाल में इसका ठीक उलटा किया. वे बाहर वालों को कोई राजनीतिक जगह देने को तैयार नहीं थे. प्रोफेशनलों, विशेषज्ञों, टेक्नोक्रेट्स के प्रति उनके अंदर भारी अविश्वास था. जबरदस्त एकेडमिक प्रतिष्ठा वाले दो आरबीआइ गवर्नरों का जो हश्र हुआ वह इसका प्रमाण है.
हम जैसे आलोचकों को यह कहकर खारिज कर दिया जाता था कि हमारा सोच पुरातनपंथी है, हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि सरकार अंग्रेजी ढर्रे वाले दिल्ली के इलीटों के बिना भी चलाई जा सकती है. चौथा साल आते-आते जब अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी और कुछ राज्यों समेत उपचुनावों में झटके लगे तब जाकर बदलाव के लक्षण उभरने लगे. बाद के मंत्रिमण्डलीय फेरबदल में पूर्व आइएएस आर.के. सिंह और आइएफएस हरदीप पुरी सरीखे सेवानिवृत्त अफसरशाहों को शामिल किया गया. इन दोनों ने अपना कद ऊंचा किया है.
अब एक ऊंचे ओहदे पर जयशंकर की नियुक्ति इस दिशा में तार्किक प्रगति की मिसाल है. यही बात पीएमओ की त्रिमूर्ति की प्रोन्नति में भी नज़र आती है. मोदी की राजनीति व उनके दिल के सबसे करीब माने गए दो कार्यक्रम— स्वच्छता एवं जल आपूर्ति और आयुष्मान भारत— शक्तिशाली पूर्व अफसरशाहों, क्रमशः परमेश्वरन अय्यर और इन्दु भूषण के हाथ में है. इन दोनों को विश्व बैंक/एडीबी से लाकर तैनात किया गया है.
अब हम जो मोदी मॉडल देख रहे हैं वह पुराना गुजरात मॉडल ही है. लेकिन यह स्वीकृति भी दिखती है कि भारत पर शासन करना गुजरात पर शासन करने से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है. इसके लिए जैसी प्रतिभाएं चाहिए वे भाजपा में उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए वे बाहर भी हाथ बढ़ाएंगे. लेकिन हाथ उन्हीं की ओर बढ़ाया जाएगा जिन्हें वे जानते हैं और जिनके सेवा केरियर को देखकर उनमें भरोसा जागता हो. सो, सुपर-ब्यूरोक्रेटों के अपने ‘कैबिनेट’ के जरिए राजकाज चला रहे राष्ट्रपति प्रणाली वाले प्रधानमंत्री मोदी पर गहरी नज़र बनाए रखिए.
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Reservation will never help in uplifting needful but is hampering our quality. Reservation shall be on basis of need not caste, creed or color.
आरक्षण अब धीरे धीरे बंद होना ही चाहिए। आरक्षण देश की आज़ादी के ८० साल बाद भी अगर चल रहा है तो इसका औचित्य क्या रहा। क्या २-३ पीढ़ियों के बाद भी सुधार नहीं आया? सब नागरिकों को बराबर का अधिकार होना चाहिए।
Shabdo k jal me fasa kr sadiyon se shoshan kiya hai seedhe saadhe logon ka phle janam k aadhar par neech kh kt tiraskar kiya jata tha ab aarakshan ko lekar tane diye jate hai . Heen aur tuchh kaha jata hai . Ye samaj kabhi apne adhikaron k liye nhi lad saka . Ab kya ladega . Ek aur ambrdkar ki aawashyakta hai . Jo inhe neend se jaga sake