कोरोनोवायरस महामारी ने जब भारत समेत पूरे विश्व में जीवन बाधित कर रखा है, दुनिया में कोविड-19 के बाद की व्यवस्था के बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगा. वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर मची उथल-पुथल के बीच छोटे-बड़े सभी देश नई दिशा में बढ़ने के लिए संघर्षरत हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने घरेलू परिस्थितियों को अब तक बिना किसी बड़ी बाधा और आलोचनाओं के संभाला है. कुछ विधानसभा चुनावों को छोड़ दें तो आने वाले समय में जल्दी कोई बड़ा चुनाव भी नहीं होना है, ऐसे में सरकार के पास विदेश नीति पर रीसेट बटन दबाने पर विचार करने का पर्याप्त समय है. महामारी विदेश नीति के मोर्चे पर अभूतपूर्व चुनौती पेश कर रही है. चीन के साथ सीमा पर गतिरोध और आगामी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के अलावा राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल का हमारे नीति निर्माण पर दूरगामी असर होगा. भारतीय अर्थव्यवस्था का ग्राफ लगातार नीचे गिरने के मद्देनजर कूटनीतिक संबंधों का अगला दौर क्षेत्रीय और वैश्विक दोनों स्तरों पर व्यापार सौदों और संस्थानों के इर्द-गिर्द ही केंद्रित होगा.
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विदेश नीति के उद्देश्यों को हासिल करने के नए तरीके
ऐसे में भारत इन नई वैश्विक चुनौतियों से लड़ने के लिए क्या कर सकता है? विदेश मंत्रालय की स्थापित और जांची-परखी मानक संचालन प्रक्रियाओं का पालन करने के अलावा नीति निर्माताओं के लिए विदेश नीति के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए विदेशी शक्तियों, नेताओं, पार्टियों और संस्थानों के साथ सहयोग बढ़ाने के लिए ‘एकदम पारंपरिक से इतर’ कुछ तरीके अपनाना फायदेमंद हो सकता है. भू-राजनीतिक परिवर्तनों के कारण उपजे मुद्दों से निपटने के दौरान हमारे राष्ट्रीय हित, घरेलू शांति और प्रगति को सुरक्षित रखना एक ऐसी परीक्षा है जिसका भारतीय प्रतिष्ठान ने अतीत में कई बार सामना किया है.
विकासशील देशों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है कि वे क्षेत्र में पड़ोसी देशों के मामले में गैर-पेशेवर राजनयिकों पर भरोसा करें. इसका एक कारण पेशेवर राजनयिकों की कमी और संस्थागत तंत्र का अभाव है. भारत और राष्ट्रमंडल के कई देशों ने घरेलू स्तर के साथ-साथ विदेशी मामलों में प्रशासन का ‘मजबूत ढांचा’ स्थापित किया है. फिर भी ऐसे उदाहरण हैं जब नेपाल, श्रीलंका जैसे देशों और यहां तक कि कुछ कैरिबियन देशों ने दुनिया की प्रमुख राजधानियों और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में अपने प्रतिनिधित्व के लिए शिक्षाविदों, लोकप्रिय राजनेताओं और प्रतिष्ठित हस्तियों पर भरोसा जताया है.
11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने कड़ी जवाबी कार्रवाई की और नतीजा अफगानिस्तान में तालिबान सरकार की बर्खास्तगी के तौर पर सामने आया. लगभग 20 वर्षों तक निरंतर चली सैन्य कार्रवाई के बाद तालिबान शांति वार्ता में एक शीर्ष पक्ष बन चुका है और एक तरह से उसने अपनी साख फिर बना ली है. इस तरह स्थिति को एकदम उलटकर रख देना उपयुक्त समय पर उपयुक्त कदम उठाने में ‘तालिबान के मित्रों’ के प्रभावी उपयोग के बिना संभव नहीं था. कोई यह तर्क नहीं देता कि तालिबान ने अपने मूल स्वभाव में कोई बदलाव किया है. अब भी, यह काबुल में निर्वाचित सरकार के साथ सत्ता साझा न करने पर अडिग है. इस्लामी कट्टरता पर इसके रुख में कोई नरमी नहीं आई है. फिर भी, हमारे लिए दिलचस्प बात यह है कि कैसे तालिबान जैसे संगठन भी कुछ अलग हटकर सोचने के बलबूते अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है.
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इंडिया इंक की क्षमता को स्वीकारें
प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी विदेश नीति की शुरुआत नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी के साथ की थी. क्षेत्रीय देशों के नेताओं का भरोसा हासिल करने की दिशा में यह विदेश नीति का एक अहम कदम है. इस संपर्क के परिणामस्वरूप उन देशों के साथ हमारे व्यापार संबंधों में सुधार होना चाहिए था, जो कि दूर होने के बावजूद बीजिंग की अहम परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के माध्यम से चीन के करीब थे. वह भारत का निजी क्षेत्र ही था जिसने निर्यात के जरिये बिजनेस और ट्रेड के मामले में सरकार के अधीन आने वाले लाइन ऑफ क्रेडिट प्रोजेक्ट्स से ज्यादा लाभ, मात्रा और मूल्य दोनों के लिहाज से, कमाया. फिर भी बीआरआई की तुलना में क्षेत्र में नई दिल्ली की आर्थिक पकड़ बहुत कम है.
हमारे दूतावासों को इंडिया इंक के साथ देश के राजदूतों की तरह बर्ताव करना सीखना होगा और उनकी राहें और सटीक तरह से आसान बनानी होंगी. हालांकि, हमारे दूतावासों के स्तर पर कामकाज के पैटर्न में यह बदलाव तभी संभव होगा जब साउथ ब्लॉक के साथ पूरा तालमेल हो.
बड़ी संख्या में शिक्षाविदों, रिसर्च स्कॉलर और थिंक टैंक के रूप में हमारे पास एक और टैलेंट पूल है जो दुनियाभर की लगभग हर घटना पर नजर रखते हैं. यद्यपि राष्ट्रीय स्तर पर मुश्किल से आधा दर्जन थिंक टैंक ही हैं, तमाम छोटे संगठन आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं जिसका असर उनके कामकाज पर पड़ता है. जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी पहुंच और वैश्विक मामलों में दखल बढ़ा है तो उसके अनुपात में थिंक टैंक और रिसर्च स्कॉलर की संख्या में भी वृद्धि होनी चाहिए जो प्रशासनिक नेटवर्क को इनपुट मुहैया कराए.
जब निर्णय लेने का अधिकार और उन पर अमल की जिम्मेदारी पूरी तरह से सरकार और सुचालित भारतीय विदेश सेवा तंत्र पर है, इन्फॉरमेशन इनपुट चैनलों को बढ़ाना होगा. उदाहरण के तौर पर भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद जैसे मौजूदा स्वायत्त संस्थान पूरी तरह सरकार द्वारा वित्त पोषित होने के बावजूद वैश्विक अवसरों और उन्हें हमारे रणनीतिक लाभ में इस्तेमाल करने के बीच अंतर को पाटने में ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे हैं.
ऐसे में तत्काल ऐसी नीतियां बनाने की जरूरत है जिससे नए साझीदारों को शामिल करने और भारतीय कूटनीति में उनके ज्ञान और प्रभाव का सर्वोत्तम इस्तेमाल करने का उपयुक्त तंत्र विकसित हो सके.
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(लेखक ‘ऑर्गनाइजर’ के पूर्व संपादक है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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