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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतरूस को लेकर नेहरू से बहुत अलग नहीं है PM मोदी की भाषा, भारत को चुकानी पड़ेगी इसकी कीमत

रूस को लेकर नेहरू से बहुत अलग नहीं है PM मोदी की भाषा, भारत को चुकानी पड़ेगी इसकी कीमत

यह आकलन करना कठिन है कि अगर प्रतिबंधों के दूसरे चरण में पश्चिमी देश रूस के साथ सहयोग जारी रखने वाले चीन के बैंकों और निगमों पर प्रतिबंध लगाते हैं तो इसका भारत पर क्या असर पड़ेगा.

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बुडापेस्ट स्थित भारत के नए दूतावास की दीवारों-खिड़कियों पर लगा ताजा पेंट अभी पूरी तरह सूखा भी नहीं था कि यहां के युवा चार्ज डी’अफेयर मोहम्मद अताउर रहमान ने इस एक छोटे-से राष्ट्र को एक साम्राज्य के खिलाफ खड़े होते देखा. हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारियों की मौजूदगी में एक विद्वान पीटर वेरेस ने मैनिफेस्टो पढ़ा जिसमें लोकतंत्र के लिए विदेशी ताकतों से आजादी की मांग की गई थी. सोवियत तानाशाह जोसेफ स्टालिन की एक प्रतिमा को नीचे गिरा दिया गया और उसका सिर कलम कर दिया गया; राष्ट्रीय ध्वज से कम्युनिस्ट चिन्ह भी फाड़ दिया गया.

रहमान ने सोवियत संघ के टैंकों को सड़कों पर मार्च करते देखा. सड़कों पर छिड़ी जंग में हजारों लोग मारे गए, जब द्वितीय विश्व युद्ध के हीरो मार्शल जॉर्जी जुकोव के सैनिकों ने 1956 की हंगेरियन क्रांति को नाकाम कर दिया. इस क्रांति से प्रधानमंत्री बने इमरे नेगी को बाद में गोपनीय तौर पर मुकदमा चलाने के बाद फांसी दे दी गई.

जैसा 1956 में हुआ था, इस बार यूक्रेन संकट में भी नई दिल्ली ने पूरी ईमानदारी के साथ सधे हुए शब्दों का इस्तेमाल किया, जैसे ‘सभी पक्ष’, ‘सैन्य वापसी’, ‘राजनयिक उपाय’ और कदम-कदम पर कूटनीति का रास्ता अपनाने पर जोर. हमेशा से ही भारत की रणनीति यही रही है कि वह बड़ी ताकतों के टकराव के बीच में नहीं पड़ता लेकिन इस बार देश के लिए खुलकर किसी भी एक पाले में खड़ा न होना मुश्किल लग रहा है.

तटस्थ रवैया अपनाए रहना मुश्किल

अमेरिका और उसके सहयोगी देश रूस के खिलाफ जो प्रतिबंध लगा रहे हैं, वे भारत के लिए दुःस्वप्न ही हैं. अमेरिका की तरफ से भारत को रूसी सैन्य उपकरण खरीदने के खिलाफ प्रतिबंधों से छूट पर मुहर लगाना अभी बाकी है. अब ऐसा लगता तो नहीं है कि वाशिंगटन एस-400 वायु-रक्षा प्रणाली की खरीद सौदे पर हस्ताक्षर करेगा. इस पर भी कुछ स्पष्ट नहीं है कि भारत अपनी सैन्य तैयारियों के लिए महत्वपूर्ण रूसी रक्षा आयात कैसे जारी रख पाएगा.

पश्चिमी देशों की तरफ से दरकिनाए किए जाने के बाद 1950 के दशक से भारत धीरे-धीरे सैन्य उपकरणों और प्रौद्योगिकी के लिए सोवियत संघ पर निर्भर होने लगा. हालांकि, रूस से आयात में धीरे-धीरे गिरावट आई है, समीर लालवानी और अन्य विशेषज्ञों का अनुमान है कि भारत की रक्षा उपकरणों की 81 प्रतिशत जरूरत वहीं से पूरी होती है. 2010-2020 की अवधि में रूसी रक्षा निर्यात का एक तिहाई हिस्सा अकेले भारत ने खरीदा था—और इन उपकरणों के लिए स्पेयर पार्ट्स और मरम्मत की जरूरत पड़ती रहती है.

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इस मामले में तटस्थता अपनाने की भारत की दृढ़ प्रतिबद्धता अब बाधित होती नजर आ रही है. क्योंकि स्थिति इस ओर कुआं उस ओर खाई वाली है. चीन के खिलाफ बचाव के लिहाज से भारत अपने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे अहम सहयोगियों से रिश्ते नहीं तोड़ सकता है. वहीं, रूस से संबंध तोड़ने पर भी उसे कोई मामूली कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी.

प्रतिबंधों से नई दिल्ली के नाखुश होने का कारण समझना मुश्किल नहीं है—और यह केवल सैन्य निर्भरता से जुड़ा नहीं है. राबोबैंक के विश्लेषकों का शोध स्पष्ट करता है कि वास्तव में रूस पर प्रभावी प्रतिबंध कहीं न कहीं भारत को भी प्रभावित करेंगे. रूस कच्चे तेल के मामले में अमेरिका और सऊदी अरब के साथ दुनिया के तीन सबसे बड़े आपूर्तिकर्ताओं में शामिल है.

हालांकि, भारत रूस से ज्यादा क्रूड नहीं खरीदता है, लेकिन अन्य उत्पादक अगर प्रतिबंधों के कारण रूसी आपूर्ति बाधित होने के कारण वैश्विक बाजार पर पड़ने वाले असर की भरपाई न कर पाए तो कीमतें 135 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं. रूसी हमले के कुछ घंटों के अंदर ही इसकी कीमतें सात वर्षों में पहली बार 100 डॉलर के पार हो गई थीं.

इससे पहले ऐसा बड़ा संकट 2011 में सामने आया था जब लीबिया के गृहयुद्ध के कारण महीनों तक कच्चे तेल के दाम 125 डॉलर से ऊपर रहे थे. ऐसे में लगातार बढ़ती महंगाई ने अंतत: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समेत दुनियाभर की कई सरकारों को गिरा दिया था.

यद्यपि भारत और रूस के बीच व्यापार काफी कम है—2020 में कुल आयात का लगभग 1.6 प्रतिशत वहां से आया और कुल निर्यातों का लगभग 1.3 प्रतिशत वहां गया—लेकिन इसका अन्य मायनों में गहरा असर पड़ेगा. रूस अनाज, उर्वरक और धातुओं का एक महत्वपूर्ण स्रोत है.

दुनियाभर में लगभग आधे निकेल और पैलेडियम का उत्पादन यहीं होता है—जिसका उपयोग रसोई के सिंक से लेकर मोबाइल फोन तक हर चीज में होता है—इसके अलावा दुनिया में एक चौथाई एल्युमीनियम का उत्पादन भी रूस में ही होता है. दिलचस्प यह है कि पूर्व में रूसी एल्युमीनियम पर अमेरिकी प्रतिबंध तत्परता के साथ हटा दिए गए थे क्योंकि कार की लागत पर उसका प्रभाव स्पष्ट तौर नजर आने लगा था.

यह आकलन करना तो और भी कठिन है कि अगर प्रतिबंधों के दूसरे चरण में पश्चिमी देश रूस के साथ सहयोग जारी रखने वाले चीन के बैंकों और निगमों पर प्रतिबंध लगाते हैं तो इसका भारत पर क्या असर पड़ेगा.

कसौटी पर खरी नहीं उतर पाई गुटनिरपेक्षता

अन्य नेताओं की तरह प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी सोवियत आक्रमण से स्तब्ध थे. ‘हंगरी के हालात पर’ सोवियत विदेश मंत्री आंद्रेई ग्रोमीको को भारत की तरफ से सौंपे गए ज्ञापन में कहा गया था, ‘इससे उन लाखों लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं जिन्होंने यूएसएसआर से उम्मीदें लगा रखी थीं.’ श्रीलंका, म्यांमार और इंडोनेशिया के नेताओं के साथ उनकी भी मांग थी कि सोवियत सेनाओं को वापस बुलाया जाए, और हंगरी के लोगों को अपनी सरकार चुनने की अनुमति मिले.

सवाल यह है, अगर वह कम ताकतवर देशों को महाशक्तियों से होने वाले खतरे के खिलाफ खड़ा नहीं होता, तो उसके साम्राज्यवाद-विरोधी और गुट-निरपेक्षता के दावे का क्या महत्व रह जाता?

हालांकि, संयुक्त राष्ट्र में भारत ने अमेरिका-प्रायोजित उस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान से इनकार कर दिया था जिसमें सोवियत आक्रमण की निंदा और सैनिकों की वापसी का आह्वान किया गया था. नई दिल्ली ने हंगरी संकट को महासभा के पूर्ण सत्र के एजेंडे में दर्ज किए जाने पर आपत्ति भी जताई थी. बाद में चेकोस्लोवाकिया पर सोवियत आक्रमण को भारत ने चुपचाप स्वीकार कर लिया था.

नई दिल्ली में अपने आकाओं की बेचैनी को देखते हुए और व्यक्तिगत स्तर पर भी रहमान ने अर्पाद गोंक्ज—जो 1990 में हंगरी के राष्ट्रपति चुने गए—जैसे असंतुष्टों के साथ मानवीय बर्ताव किए जाने की जोरदार वकालत की. यही नहीं उन्होंने एक असंतुष्ट को बाहर निकालने के लिए अपनी कार का इस्तेमाल किया, जो दूतावास और इमरे नेगी की सरकार के बीच वियना का संपर्क सूत्र था.

हालांकि, भारत के लिए यह मुद्दा किसी सम्मान और नैतिकता से जुड़ा नहीं था. भारत को अंदेशा था कि पाकिस्तान कश्मीर मुद्दा फिर संयुक्त राष्ट्र में उठाने की योजना बना रहा है. नई दिल्ली को अच्छी तरह से पता था कि अपने खिलाफ किसी प्रस्ताव की स्थिति में वीटो के लिए उसे सोवियत संघ की जरूरत पड़ेगी क्योंकि सुरक्षा परिषद में उसके अलावा भारत का कोई अन्य मित्र नहीं था. इसके अलावा सोवियत संघ ने थोड़े समय पहले ही उसे हथियारों की आपूर्ति शुरू की थी. चीन के साथ रिश्तों में संतुलन के लिए भी उसे रूस की आवश्यकता थी.

और महाशक्तियों के दोहरे मानदंडों को लेकर निराशा भी थी, फ्रांस और यूके ने उसके पिछले साल ही मिस्र पर हमला किया था.

तब से हर नेता को ऐसे मामलों में तटस्थता अपनाना ज्यादा उपयोगी लगा है. भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर प्रधानमंत्री नेहरू की कथित तौर पर कमजोर विदेश नीति की आलोचना करते रहते हैं लेकिन, रूस पर उनकी भाषा 1956 में अपनाए गए रुख से ज्यादा अलग नजर नहीं आ रही है.

2014 में रूस की तरफ से क्रीमिया पर कब्जे के बाद प्रधानमंत्री ने कहा था कि उनकी कोशिश होगी कि विरोधी साथ बैठें और परस्पर बात करें और नियमित प्रक्रिया के तहत संकट सुलझाएं.’ और फिर, नेहरू की तरह ही मोदी के पास भी दोहरे मानदंडों को लेकर महाशक्तियों को खरी-खोटी सुनाने का मौका भी था, उन्होंने रूस की आलोचना करने वालों को याद दिलाया कि ‘वो भी दूध के धुले नहीं हैं.’

यूक्रेन संकट कई घटनाओं का नतीजा है, जिसमें उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन का दायरा पूर्व की ओर बढ़ाने का अमेरिका का खतरनाक प्रयास भी शामिल है. हालांकि, प्राचीन इतिहासकार थ्यूसीडाइड्स के शब्दों में कहें तो राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का सिद्धांत, कि ‘ताकतवर वो करते हैं जो वे करना चाहते हैं, और उनके नतीजे भुगतना कमजोरों की नियति है,’ भारत के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकता है. अपनी भलाई देखते हुए नई दिल्ली की तरफ से यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि विश्व का भविष्य महाशक्तियों के प्रभाव क्षेत्रों और ताकत के बेजा इस्तेमाल से ही तय होगा.

यह बताने का तो कोई तरीका नहीं है कि प्रतिबंधों की तलवार कितनी जोर चलेगी और कितना गहरा घाव करेगी, लेकिन भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह खुद को चोट सहने के लिए पहले से ही तैयार कर ले.

(लेखक का ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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