24 मई 2022 को, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने टोक्यो में क्रिटिकल और इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज़ पर द्विपक्षीय पहल (iCET) की शुरुआत की. इस पहल का “नेतृत्व दोनों देशों की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषदें कर रही हैं,” और इसका मुख्य उद्देश्य “क्रिटिकल और इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज़ में साझेदारी का विस्तार करना है.” भारत और अमेरिका के बीच विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहयोग हरित क्रांति के समय से चला आ रहा है. तब से, सरकारी नेतृत्व वाली कई पहलों ने परियोजनाओं के लिए ज्वाइंट फंड की व्यवस्था की है, एक्सपोर्ट कंट्रोल में ढील देने के लिए संवाद के मंच तैयार किए हैं, और दूसरी रचनात्मक पहलों के बीच क्लीन एनर्जी पर फोकस के लिए मंच और परियोजनाएं बनाई हैं.
फिर भी, iCET को अब तक जो बात किसी अन्य पहल से अलग करती है, वह है कि भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (NSCS) और अमेरिका में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (NSC) संयुक्त रूप से इसका नेतृत्व करते हैं.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान, क्वांटम कम्प्यूटिंग और सेमीकंडक्टर्स तक, NSCS और NSC को “दोनों देशों की सरकारों, शिक्षा क्षेत्रों और उद्योगों के बीच गहरे संबंध बनाने” का काम सौंपा गया है. जैसा कि दोनों देशों में सरकार और उद्योग जगत में लंबे समय से काम कर रहे लोग बताते हैं कि NSCS और NSC के पास उन सभी ज़रूरी चीज़ों के समूह के बीच तालमेल बैठाने की काबिलियत है, जो फोकस्ड, नतीजे देने वाला और कार्यान्वित करने की सोच वाला है.
रुद्र चौधरी
रुद्र चौधरी कार्नेगी इंडिया के डायरेक्टर हैं.
इन प्रशासनिक निकायों के पास दोनों देशों में मंत्रालयों के बीच ज़्यादा साफ़ ढंग से नीतियों का समन्वय करने, संभावनाएं तलाशने, मुश्किल बिंदुओं को स्पष्ट रूप से रेखांकित रखने के लिए एक समग्र बातचीत का नेतृत्व करने का हर अवसर है, बजाय इसके कि किसी एक मंत्रालय, विभाग, या सरकारी एजेंसी के ढांचे के माध्यम से संभावना तलाशी जाए. संक्षेप में, iCET एक चतुर, चुस्त, और दूरदर्शी पहल है. एक हद तक, इसमें लालफीताशाही को खत्म करने, नौकरशाही की लंबी सुरंग से बचने, और भारत और अमेरिका दोनों देशों के भीतर और साथ ही दोनों देशों के बीच आपस में साझा करने वाली क्रिटिकल टेक्नोलॉजी इकोसिस्टम के विकास को आगे बढ़ाने की काबिलियत है. iCET का एक एजेंडा तय करने के लिए सहयोग के संभावित क्षेत्रों की लंबी लिस्ट में कड़े फैसले लेने होंगे.
इसे हासिल करने के लिए, कार्नेगी इंडिया के टेक्नोलॉजी एंड सोसाइटी प्रोग्राम के क्रिटिकल टेक्नोलॉजीज़ के चार विशिष्ट क्षेत्रों में कुछ सुझाव हैं: विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहयोग का एक मज़बूत इकोसिस्टम बनाना, क्वांटम कम्प्यूटिंग में सहभागिता, नागरिक अंतरिक्ष क्षेत्र में सहयोग, और सेमीकंडक्टर सप्लाई चेन के विशिष्ट पहलुओं पर सहयोग के लिए एक ढांचा तैयार करना. मई 2022 में iCET की घोषणा के बाद से टीम ने दोनों देशों की सरकारों, उद्योगों, और शिक्षा क्षेत्र के हितधारकों के साथ कई महीने बातचीत की है.
यह संग्रह इस पर शुरुआती राय देता है कि iCET के ढांचे के भीतर किन बातों पर विचार किया जा सकता है. हर खंड में, लेखकों ने कुछ खास सिफारिशें की हैं, जिन्हें अगले 6 महीनों में, अगले साल या उसके बाद हासिल किया जा सकता है. उन्होंने अत्याधुनिक तरीकों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता को संतुलित किया है जिनमें असहमति के दीर्घकालिक और पारंपरिक क्षेत्रों से ध्यान हटाए बिना सहयोग को तेज़ी से लेकिन मज़बूती के साथ आगे बढ़ाया जा सकता है, जैसे कि एक्सपोर्ट कंट्रोल की व्यवस्था पर तुरंत फोकस करने की ज़रूरत है जो “संबंधों को घनिष्ठ बनाने” के लिए ज़रूरी है.
अहम बात यह है कि इसका उद्देश्य दोनों देशों में सरकार, शिक्षा क्षेत्र, और उद्योग के बीच संवाद के लिए एक स्वतंत्र और शोध-आधारित पुल बनाना है, जिससे सभी पक्षों को इमर्जिंग और क्रिटिकल टेक्नोलॉजीज़ में सहयोग के गहरे और स्थायी संबंधों से सबसे ज़्यादा फायदा होगा.
भारत-अमेरिका के विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहयोग को ICET के माध्यम से बढ़ावा देना
प्रियदर्शिनी डी.
प्रियदर्शिनी डी. कार्नेगी इंडिया के टेक्नोलॉजी एंड सोसाइटी प्रोग्राम की एसोसिएट फेलो हैं.
भारत-अमेरिका के बीच विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहयोग का लंबा इतिहास रहा है. 1960 में भारत में हरित क्रांति की शुरुआत करने में अमेरिकी फंड, परोपकारी संस्थाओं, और वैज्ञानिकों सभी ने अहम भूमिका निभाई. आगे के दशकों में, विशेष रूप से पिछले दो दशकों में, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में द्विपक्षीय सहयोग अच्छा-खासा बढ़ा है. दोनों देशों ने 2000 में संयुक्त रूप से इंडो-यूएस साइंस एंड टेक्नोलॉजी फोरम (IUSSTF) की स्थापना की. IUSSTF ज्वॉइंट वर्कशॉप, छात्रों और फैकल्टी के आदान-प्रदान, वर्चुअल रिसर्च सेंटर, और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर कार्यक्रम के माध्यम से वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास को बढ़ावा देता है. यह यूएस-इंडिया साइंस एंड टेक्नोलॉजी एनडाओमेंट फंड (USISTEF) को भी चलाता है, जो 2009 में बना और जिसका सालाना बजट 30 लाख डॉलर का है. यह संयुक्त रूप से विकसित इनोवेटिव टेक्नोलॉजीज़ के व्यवसायीकरण को बढ़ावा देने के लिए तैयार किया गया है. दोनों देशों ने क्लीन एनर्जी तकनीक के अनुसंधान और व्यवसायीकरण को आगे बढ़ाने के लिए उसी साल पार्टनरशिप टू एडवांस क्लीन एनर्जी (PACE) की शुरुआत भी की.
बाकी उदाहरणों में 2002 में स्थापित भारत-अमेरिका उच्च प्रौद्योगिकी सहयोग समूह शामिल है. एक हद तक, इस समूह ने भारत में दोहरे इस्तेमाल वाली वस्तुओं समेत, उच्च प्रौद्योगिकी के एक्सपोर्ट को आसान बना दिया है. 2005 में तय हुई संयुक्त समिति बैठकों की एक द्विवार्षिक प्रक्रिया दोनों देशों में वर्तमान और भविष्य की विज्ञान और प्रौद्योगिकी पहलों पर वैज्ञानिक एजेंसियों को रणनीतिक मार्गदर्शन देती है. भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों में आई गिरावट के बाद, 2005 का भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौता शायद सबसे महत्वपूर्ण है. हाल ही में हुई IUSSTF की अमेरिका-भारत आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पहल एआई में रणनीतिक सहयोग के लिए एक मंच है.
दोनों देशों के बीच विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहयोग का दायरा काफी बड़ा है, फंडामेंटल साइंटिफिक रिसर्च में सहयोग से लेकर क्लीन एनर्जी, स्वास्थ्य, कृषि, पर्यावरण, और जलवायु परिवर्तन में इसके इस्तेमाल तक. ऊपर जिन औपचारिक व्यवस्थाओं का जिक्र हुआ है, उनके अलावा शिक्षण क्षेत्र में लोगों का एक-दूसरे से अनौपचारिक संबंध का अस्तित्व भी है. हाल में घोषित iCET कार्यक्रम इस द्विपक्षीय जुड़ाव को आगे ले जाने के लिए नए अवसर लाता है. शुरुआती रिसर्च और स्टेकहोल्डर्स के साथ बातचीत के आधार पर, iCET, सूचना विषमताओं को सुधारने का एक मंच देकर; फ्यूचर-रेडी तकनीकी वर्कफोर्स तैयार करके; ट्रांसलेशनल इंस्टिट्यूशंस या सेंटर्स ऑफ एक्सिलेंस के माध्यम से स्टेकहोल्डर्स के बीच मजबूत संबंध स्थापित करके; रिसर्च, डेवलपमेंट और CETs की तैनाती के लिए रिस्क कैपिटल को आसान बनाकर; और छोटी, मध्यम और लंबी अवधि में iCET के लक्ष्यों के समर्थन के लिए उपयुक्त संस्थागत ढांचा और संरचना तैयार करके, क्रिटिकल और इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज़ (CETs) में भारत-अमेरिका सहयोग को मज़बूत कर सकता है.
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iCET इनोवेशन फेलोशिप, हैकथॉन, और संवाद
iCET से क्रिटिकल और इमर्जिंग टेक्नोलॉजी से दोनों देशों की सरकारों, शिक्षा क्षेत्र, और उद्योगों को साथ लाने और “परिणाम-उन्मुख सहयोग” देने की उम्मीद है. तात्कालिक एक्शन प्वाइंट्स में जिन तौर-तरीकों और रणनीतियों को शामिल किया जा सकता है, वे हैं संयुक्त रूप से आयोजित फेलोशिप प्रोग्राम, हैकथॉन, कंपिटिशन और संवाद की एक सीरीज़.
iCET फेलोशिप प्रोग्राम शीर्ष संस्थानों में प्रतिभाओं की पहचान करने और उन्हें प्रशिक्षित करने और जानकारों और विशेषज्ञों का एक द्विपक्षीय नेटवर्क तैयार करने में मदद कर सकता है. इसका खर्च सरकारें और निजी क्षेत्र दोनों मिलकर उठा सकते हैं या फिर पूरी तरह से निजी क्षेत्र इसका खर्च उठा सकता है. क्वॉड फेलोशिप प्रोग्राम एक उदाहरण है. इसे एक निजी परोपकारी संस्थान श्मिट फ्यूचर्स चलाता है. iCET फेलोशिप के लिए भी इसी तरह अमेरिका में बड़े विश्वविद्यालयों के चंदे, दोनों देशों के परोपकारी संस्थान, और आईबीएम या इंटेल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्रायोजक हो सकती हैं. शुरुआत करने के लिए, क्वांटम टेक्नोलॉजीज़ या बायोटेक्नोलॉजी में ऐसी फेलोशिप दी जा सकती हैं.
उद्योग, शिक्षा क्षेत्र, सरकार और सिविल सोसायटी से जुड़ा iCET नेटवर्क बनाने के लिए iCET इनोवेशन हैकथॉन की एक सीरीज़ को संयुक्त रूप से आयोजित किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, तकनीकी मुद्दों के समाधान को प्रोत्साहित करने के लिए जी20 अध्यक्ष द्वारा हर साल जी20 टेकस्प्रिंट का आयोजन किया जाता है. विशेष तौर पर, ये सेंट्रल बैंकों, बैंक फॉर इंटरनेशनल सेटलमेंट्स जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, के साथ-साथ निजी क्षेत्र, जिसमें फेसबुक जैसी बड़ी टेक कंपनियां शामिल हैं, की मदद से सह-प्रायोजित किया गया है. एक अन्य उदाहरण चैलेंज प्रोग्राम्स की श्रृंखला है जिसका प्रस्ताव नाटो के अधीन हाल में शुरू की गई डिफेंस इनोवेशन एक्सेलरेटर फॉर द नॉर्थ अटलांटिक ने दिया है. हर प्रोग्राम से उम्मीद है कि वह बेहद ज़रूरी सुरक्षा समस्याओं का सर्वोत्तम तकनीकी समाधान निकाले और उसे विकसित करे.
iCET इनोवेशन हैकथॉन भी इसी तरह दोनों देशों के अग्रणी विश्वविद्यालयों और टेक्नोलॉजी कंपनियों के सहयोग से आयोजित किए जा सकते हैं. एक्शन का संकेत देने के साथ, ऐसे मंच विचारों को संगठित कर सकते हैं, कठिन समस्याओं के इनोवेटिव हल खोज सकते हैं, साथ ही निजी क्षेत्र और स्टार्ट-अप क्षमताओं को क्राउडसोर्स और विकसित कर सकते हैं.
दोनों देश 2022-2023 में संयुक्त रूप से iCET इनोवेशन डायलॉग सीरीज़ का आयोजन भी कर सकते हैं. उदाहरण के तौर पर, 2018 से, यूनाइटेड स्टेट्स ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक एंड बिजनेस अफेयर्स इनोवेशन राउंडटेबल्स का आयोजन कर रहा है जिनके माध्यम से इसने इंटरनेट ऑफ थिंग्स, ब्लॉकचेन, एआई, और क्लाउड कम्प्यूटिंग जैसे क्षेत्रों में अलग-अलग इंडस्ट्री स्टेकहोल्डर्स को जोड़कर रखा है. कुछ और उदाहरणों में अमेरिका-भारत रणनीतिक संवाद जैसे द्विपक्षीय संवाद शामिल हैं. इस प्रकार, iCET इनोवेशन डायलॉग मल्टीस्टेकहोल्डर्स की भागीदारी के साथ किसी महत्वपूर्ण सेक्टर या प्रौद्योगिकी से जुड़ी संवादों की एक श्रृंखला हो सकता है.
ऐसे संवाद भारत और अमेरिका के बीच हर क्षेत्र में एक-दूसरे की कमी पूरी करने की संभावना, नीतिगत चुनौतियां, साथ ही संयुक्त शोध और विकास के मौकों का पता लगाने में मदद कर सकते हैं, क्योंकि ये सभी किसी खास सेक्टर या प्रौद्योगिकी से जुड़े हो सकते हैं. एक-दूसरे की कमी पूरी करने की संभावना सरकार और निजी क्षेत्र को अपनी ज़रूरतें बताने की भी छूट देंगी (उदाहरण के लिए, क्वांटम कम्प्यूटिंग जैसी ट्रांसफॉर्मेशनल टेक्नोलॉजी में स्किल और वर्कफोर्स की ज़रूरत के संबंध में). दोनों देशों से छोटे व्यवसायों को शामिल करने के लिए भी, उद्योग की भागीदारी में विविधता होनी चाहिए. इससे उन्हें नीतियों, प्रक्रियाओं, अवसरों और फंड से जुड़ी जानकारी की कमी को दूर करने में मदद मिलेगी.
उद्घाटन संवाद को दोनों देशों की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद आयोजित कर सकती है या फिर इसे थिंक टैंक और उद्योग संघों के साथ मिलकर बुलाए गए ट्रैक 1.5 डायलॉग के तौर पर आयोजित किया जा सकता है. यह 6G जैसे नेक्स्ट जेनरेशन क्रिटिकल इंफ्रास्ट्रक्चर या बायोटेक्नोलॉजिकल इनोवेशंस के उभरते खतरों की तरह आपसी रणनीतिक हित और महत्व के विशिष्ट क्षेत्र में हो सकता है. यह क्वांटम टेक्नोलॉजीज़ में भी हो सकता है, जिसे दोनों देशों ने नीतिगत प्राथमिकता और बड़ी फंडिंग देने पर सहमति बनाई है. इस संवाद का एक नतीजा हो सकता है संयुक्त शोध परियोजनाओं की घोषणा और iCET फेलोशिप प्रोग्राम जिसका जिक्र हमने ऊपर किया है. ये संबंध iCET के लिए एक मज़बूत और लंबी अवधि का एजेंडा तैयार करने में कामयाब हो सकते हैं.
ICET ट्रांसलेशनल इंस्टीट्यूशन और कॉमन फ्यूचर्स फंड
मध्यम अवधि में अगला कदम, शुरुआती अभ्यासों को स्थायी स्वरूप में धरातल पर उतारना होगा. ऐसे कई मॉडल हैं जिन पर व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से विचार किया जा सकता है. CETs में द्विपक्षीय सहयोग तेज़ करने के लिए एक या अधिक टेक्नोलॉजी-स्पेसिफिक सेंटर्स ऑफ एक्सिलेंस और ट्रांसलेशनल इंस्टीट्यूशंस स्थापित किए जा सकते हैं. ऐसे संस्थान अत्याधुनिक शोध को सपोर्ट और फंड कर सकते हैं, इनोवेशंस को प्रयोगशाला से बाज़ार तक ले जाने और बढ़ाने में मदद कर सकते हैं, और आवश्यक तकनीकी वर्कफोर्स को ट्रेनिंग दे सकते हैं. उन्हें भारतीय और अमेरिकी शिक्षण संस्थानों और निजी क्षेत्र के नेटवर्क से आश्रय और आर्थिक मदद मिल सकती है. उदाहरण के लिए, एमआईटी सेंटर फॉर थियरेटिकल फिज़िक्स और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस जैसे प्रमुख शिक्षण संस्थानों का कंसोर्शियम, परोपकारी संगठनों और माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम और गूगल जैसी निजी कंपनियों के साथ, क्वांटम टेक्नोलॉजी के लिए सेंटर ऑफ एक्सिलेंस स्थापित कर सकता है. ऐसे सेंटर डुअल डिग्री या ट्विनिंग प्रोग्राम विकसित कर सकते हैं और ऐसे प्रासंगिक पाठ्यक्रम बना सकते हैं जिसकी मदद से बिना रुकावट के प्रशिक्षण हो सके और प्रतिभाएं आती रहें.
एक और मॉडल है यूके रिसर्च एंड इनोवेशन (UKRI) जो ब्रिटेन में एक समर्पित सार्वजनिक निकाय है और इसकी भारत (UKRI इंडिया) समेत दुनिया भर में शाखाएं हैं. अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए इसके पास अलग से फंड हैं. यह फंड कोई व्यापक कोष नहीं है, बल्कि इसमें प्रोजेक्ट को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग इकाइयां पैसे आवंटित करती हैं.
यूकेआरआई ने संयुक्त रूप से (भारत सरकार और बाकी थर्ड पार्टियों के साथ) 30 करोड़ पाउंड (करीब $34.5 करोड़ रुपए) से भी ज़्यादा निवेश किया है और इसे काफी सफल मॉडल माना जाता है. वर्तमान में अमेरिकी पक्ष में iCET को अमल में लाने के लिए एक मेकैनिज़्म के तौर पर पहचाना जाने वाला- नेशनल साइंस फाउंडेशन- भारत में एक समर्पित शाखा स्थापित करने पर भी विचार कर सकता है. संयुक्त रूप से फंड किए जाने वाले IUSSTF और USISTEF जैसे मौजूदा मेकैनिज़्म का भी iCET द्वारा लाभ उठाया जा सकता है. हर मामले में, सहयोगात्मक परियोजनाओं को प्रोत्साहन देने के लिए दोनों देशों से शिक्षा क्षेत्र और उद्योग (स्टार्टअप समेत) द्वारा परियोजनाओं की संयुक्त बोली को, पार्टनरशिप या कंसोर्शियम में, बढ़ावा देना चाहिए.
थोड़ा ज़्यादा महत्वाकांक्षी मॉडल हो सकता है एक डेडिकेटेड फंड तैयार करना. इसका एक उदाहरण है 79 लाख डॉलर का पेससेटर (PACEsetter) फंड, जो ऑफ-ग्रिड क्लीन एनर्जी सॉल्यूशंस में शुरुआती दौर के इनोवेशन के लिए दोनों सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से बनाया गया है. भारत और अमेरिका ने क्लीन एनर्जी सेक्टर के उद्यमियों की मदद के लिए 4.1 करोड़ डॉलर जुटाने के लिए एक पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की शुरुआत भी की थी. प्राइवेट पार्टनरों में विश्वविद्यालय के नेतृत्व वाले स्टार्ट-अप इनक्यूबेटर्स, अमेरिकी सहायता एजेंसियां, भारतीय उद्योग संघ, और ग्लोबल नॉन-प्रॉफिट रिसर्च संस्थान शामिल हैं.
एक और उदाहरण हाल ही में घोषित, 100 करोड़ यूरो का नाटो इनोवेशन फंड है जो दोहरे इस्तेमाल वाली इमर्जिंग और डिसरप्टिव टेक्नोलॉजी के लिए आर्थिक मदद देता है. दिलचस्प बात है कि, इसे एक वेंचर कैपिटल फंड के तौर पर बनाया गया है, जिसमें बाइस सहयोगियों की भागीदारी है और ये दुनिया का पहला बहुदेशीय वेंचर कैपिटल फंड है. फिलहाल, iCET से जुड़ी किसी समर्पित फंड की घोषणा नहीं हुई है. यूएस नेशनल साइंस फाउंडेशन और इंडियन डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के बीच मौजूदा साझेदारी को फिलहाल iCET को अमल में लाने का मेकैनिज़्म माना गया है. इसलिए अभी यह उम्मीद है कि मौजूदा द्विपक्षीय फंडिंग और मेकैनिज़्म का इस्तेमाल किया जा सके.
हालांकि, क्रिटिकल और इमर्जिंग टेक्नोलॉजी के विकास में तेज़ी लाने के लिए ज़रूरी रिस्क कैपिटल हासिल करना एक बड़ी बाधा है. इसलिए, iCET के तहत CETs प्रोजेक्ट्स की आर्थिक मदद के लिए एक समर्पित फंड पर विचार किया जा सकता है, जो सरकारी के साथ-साथ निजी क्षेत्र के संसाधनों से भी मदद ले सके, जिसमें सघन प्रौद्योगिकी पर फोकस करने वाले वेंचर फंड भी शामिल हैं.
संस्थागत ढांचा
छोटी अवधि में, iCET सरकार, उद्योग और शिक्षा जगत के अंदर मौजूद विशेषज्ञता और संसाधनों के मौजूदा पूल का लाभ उठा सकता है, जैसा कि ऊपर बताया गया है. आगे चलकर iCET के लिए संस्थागत क्षमता की प्रकृति एक बड़ा सवाल होगा, जो इसे मज़बूत द्विपक्षीय संबंध के लिए, अंदर और बाहर दोनों जगह बनाने की ज़रूरत होगी.
दोनों पक्षों में CET के क्षेत्रों पर रिसर्च और नीति निर्माण कई निकायों के बीच बंटा हुआ है. लंबी अवधि में, दोनों पक्षों से राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के नेतृत्व में एक औपचारिक संयुक्त उच्च-स्तरीय समिति बनाने से घरेलू एजेंसियों के बीच कामकाज के समन्वय में मदद मिल सकती है. ये समिति दोनों देशों के लिए CETs पर एक नोडल एजेंसी के तौर पर काम कर सकती है. इसे व्यापक द्विपक्षीय नीतियां विकसित करने के काम में लगाया जा सकता है और जिसे राष्ट्रीय रणनीतियों के साथ जोड़ा जा सकता है.
इसके अलावा, इस समिति को मल्टीस्टेकहोल्डर वर्किंग ग्रुप्स या टास्क फोर्स से विशिष्ट क्षेत्रों या तकनीकों (उदाहरण के लिए, सुपरकम्प्यूटिंग, क्वांटम, या बायोटेक्नोलॉजी) में मदद मिल सकती है. टास्क फोर्स को शिक्षण संस्थानों या थिंक टैंक के साथ जोड़ा जा सकता है. समिति व्यापक एजेंडा तय करेगी, और वर्किंग ग्रुप या टास्क फोर्स विचार-विमर्श करेंगे. वे स्पष्ट नतीजे देने की कोशिश करेंगे (सिफारिशों या एक्शन प्लान के रूप में) और ये नतीजे समिति के लिए एक फीडबैक लूप की तरह काम करेंगे. समिति की नियमित बैठकें प्रगति की समीक्षा कर सकती हैं.
ऐसे मेकैनिज़्म के उदाहरणों में भारत-अमेरिका उच्च तकनीकी सहयोग और अमेरिका-भारत एनर्जी डायलॉग शामिल हैं, दोनों को ही वर्किंग ग्रुप द्वारा भी आगे बढ़ाया गया है. वर्किंग ग्रुप या टास्क फोर्स, जैसा कि PACE के तहत क्लीन एनर्जी फाइनेंस टास्क फोर्स के मामले में है, विशिष्ट क्षेत्रों पर फोकस कर सकते हैं जैसे कि इनोवेशन के शुरुआती और बाद के चरणों में इनोवेटिव फाइनेंसिंग सॉल्यूशंस की पहचान करना या द्विपक्षीय सहयोग में तेज़ी लाने के लिए प्रक्रियाओं और डॉक्यूमेंटेशन की सिफारिश करना. दूसरा उदाहरण है, जापान और अमेरिका के बीच की व्यवस्था जिसमें 1988 में हुए समझौते के तहत बनी संयुक्त उच्चस्तरीय समिति शामिल है.
तब से, समिति की चौदह बार बैठक हो चुकी है और विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उद्देश्यों और रणनीतियों को एक दिशा में रखने में कुछ सफलता मिली है. हालांकि जापान की घरेलू राजनीतिक मजबूरियों के चलते जापानी समिति में एक “रणनीतिक” या रक्षा कोण की कमी थी, जिसकी भरपाई iCET कर सकता है और उभरती प्रौद्योगिकियों के लिए एक अधिक व्यापक ढांचा बनाने में मदद कर सकता है.
इस ढांचे का एक मुख्य पहलू यह भी होगा कि संभावित अंतर या विचलन को दूर करने के लिए उचित स्तर पर समाधान की प्रक्रिया को शामिल किया जाए. उदाहरण के लिए, जब दोनों देश iCET के तहत एक प्रमुख एजेंडे के तौर पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में सहयोग की पहचान करते हैं, तब आंकड़ों के इस्तेमाल और स्टोरेज की नीतियों को आगे बढ़ने के लिए निरंतर जुड़ाव की आवश्यकता होगी.
निष्कर्ष
यह पहल आशाजनक और सामयिक दोनों है, यह देखते हुए कि दुनिया भर में CETs कितनी तेज़ी से समाज को और आर्थिक और सुरक्षा परिदृश्य को बदल रही हैं. वॉशिंगटन ने 2022 में iCET के तहत कम से कम पच्चीस ज्वॉइंट रिसर्च प्रोजेक्ट्स की मदद की है. इसने एआई और डेटा साइंस जैसे क्षेत्रों, और इस उद्देश्य के लिए कृषि, स्वास्थ्य, और जलवायु जैसे क्षेत्रों में संबंधित इस्तेमाल की पहचान की है. इस बीच, भारत को iCET के तहत एआई, क्वांटम कंप्यूटिंग, 5जी/6जी, बायोटेक, स्पेस और सेमीकंडक्टर्स पर अधिक व्यापक सहयोग की उम्मीद है. अभी दोनों तरफ की लिस्ट पूरी नहीं है.
अमेरिका भी हर साल एक लिस्ट अपडेट करता है कि वो CETs किसे मानता है. एनएससी और अन्य फेडरल एजेंसियों की सलाह से नेशनल साइंस एंड टेक्नोलॉजी काउंसिल द्वारा तैयार इस लिस्ट में, एआई, बायोटेक्नोलॉजी, एडवांस्ड कम्प्यूटिंग, और क्वांटम टेक्नोलॉजी समेत उन्नीस क्षेत्र शामिल हैं. हालांकि, भारत ने इमर्जिंग टेक्नोलॉजी की पहल की शुरुआत कर दी है और इसके महत्व को माना है लेकिन इसके पास अभी तक संस्थागत रूप से तैयार ऐसी कोई लिस्ट नहीं है. इसलिए शुरुआत में, टेक्नोलॉजी पर एक साझा और ठोस अभिव्यक्ति और संयुक्त प्राथमिकताएं दोनों राष्ट्रीय सुरक्षा परिषदों के लिए आगे बढ़ने का एक उपयोगी तरीका हो सकता है.
भारत-अमेरिका अंतरिक्ष सहयोग
कोणार्क भंडारी
कोणार्क भंडारी कार्नेगी इंडिया में एसोसिएट फेलो हैं.
जून 2022 में, भारत के प्रधानमंत्री ने इंडियन नेशनल स्पेस प्रोमोशन एंड ऑथराइजेशन सेंटर (IN-SPACe) के मुख्यालय का उद्घाटन किया. यह उद्घाटन हलचल से भरे भारतीय अंतरिक्ष कैलेंडर में सबसे नई घटना थी. उद्घाटन के तुरंत बाद इंडियन स्पेस एंड रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (ISRO) के पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल पर भारतीय अंतरिक्ष स्टार्ट-अप्स के दो पेलोड्स लॉन्च किए गए. इसके बाद, जल्दी ही एक भारतीय अंतरिक्ष स्टार्टअप, दिगंतरा, ने उपग्रहों, अंतरिक्ष के मलबे, और सामान्य अंतरिक्ष गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए भारत की अब तक की पहली स्पेस सिचुएशनल अवेयरनेस अब्ज़र्वेटरी खोली. हाल में स्थापित IN-SPACe भारत में अंतरिक्ष क्षेत्र के बड़े उदारीकरण का हिस्सा है, जिसका नेतृत्व 1960 के दशक से भारत की राष्ट्रीय अंतरिक्ष एजेंसी, इंडियन स्पेस एंड रिसर्च ऑर्गनाइजेशन कर रही है. नए सुधार भरोसा दिलाते हैं कि निजी अंतरिक्ष कंपनियों को इसरो और उसकी सहयोगी एजेंसियों के समकक्ष रखा जाएगा.
अब तक, भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम ने अपनी क्षमता से बढ़कर काम करने के लिए भारतीयों के बीच बड़ा गौरव कमाया है- स्वदेशी तकनीक का इस्तेमाल करके सैटेलाइट लॉन्च करने से लेकर रॉकेट बनाने तक और चांद और मंगल के लिए सफल मिशन शुरू करने तक.
जैसे-जैसे मनुष्य की अंतरिक्ष में जाने वाली सभ्यता बनने की संभावना बढ़ती है, वैसे-वैसे दूसरे ग्रहों पर जाने वाले मिशन आम बात होते जाएंगे. बदले में, उन्हें निजी क्षेत्र से संचार उपकरण, ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम, रोबोटिक्स, और दूसरी तकनीकों की सप्लाई की ज़रूरत होगी, क्योंकि आने वाले समय में इसरो अनुसंधान और विकास पर ज़्यादा ध्यान लगाएगा.
हालांकि, भारत में निजी क्षेत्र की नवजात अवस्था को देखकर ऐसा लगता है कि इन तकनीकों के पनपने में समय लग सकता है. अमेरिकी उद्यमों की बड़ी ताकत को देखते हुए जब अत्याधुनिक अंतरिक्ष तकनीक की बात आती है, तो अंतरिक्ष क्षेत्र में अमेरिका-भारत तकनीकी सहयोग महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और स्पेस मिशन पर सहयोग की कमी को पूरा कर सकता है. स्पेस एक्सप्लोरेशन मिशन को अपने दम पर अंजाम देना भारत की दीर्घकालिक रणनीति हो सकती है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे मिशन को बढ़ावा देने वाले औद्योगिक आधार को अमेरिकी सहयोग से बड़ा फायदा मिल सकता है. इसी तरह, अमेरिकी कंपनियों को भारतीय बाज़ार तक पहुंच के साथ-साथ अपने भारतीय समकक्षों के साथ मिलकर अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी विकसित करने से फायदा मिल सकता है.
इसे कैसे हासिल किया जा सकता है इस पर कुछ मुख्य सिफारिशें नीचे दी गई हैं.
संयुक्त रूप से प्रतियोगिताओं का आयोजन. छोटी अवधि में, भारत हैकथॉन में अमेरिका के साथ संयुक्त रूप से प्रतियोगिताएं आयोजित कर सकता है जो दोनों देशों के अंतरिक्ष उद्यमियों को साथ लाएं. अमेरिका दूसरे सहयोगियों के साथ यह काम पहले से कर रहा है. उदाहरण के तौर पर, यूके स्पेस डिज़ाइन कंपिटिशन एक यूएस-यूके साइंस, बिज़नेस, और इंजीनियरिंग चैलेंज है जिसमें ब्रिटेन के प्रतिभागियों को बाहरी अंतरिक्ष में बस्ती बनाने के लिए एक विस्तृत डिज़ाइन के साथ आना होता है. इन प्रतिभागियों को यूके स्पेस एजेंसी के विशेषज्ञ आंकते हैं, और अंत में जीतने वाली टीम दूसरे राउंड के प्रदर्शन के लिए नासा कैनेडी स्पेस सेंटर जाती है. इसरो-नासा स्पेस ऐप्स 2022 चैलेंज भी इसका अच्छा उदाहरण है क्योंकि यह एक ऐसी प्रतियोगिता है जिसमें टीमों को भविष्य की वैश्विक समस्याओं का समाधान निकालने के लिए पृथ्वी के अवलोकन आंकड़ों का इस्तेमाल करना होता है.
भारत के स्पेस इकोसिस्टम में निजी खिलाड़ियों की भागीदारी पर स्पष्टता. भारत के स्पेस इकोसिस्टम के विभिन्न पहलुओं को उदार बनाने के उद्देश्य से भारत सरकार ने कई ड्राफ्ट नीतियां जारी की हैं. इनमें स्पेस ट्रांसपोर्टेशन, सैटेलाइट नेविगेशन, और सैटेलाइट कम्युनिकेशन पर नीतियां शामिल हैं. हालांकि, इन नीतियों को अभी अंतिम रूप दिया जाना बाकी है और साथ ही ये नीतियां किसी खास सेक्टर को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं. सरकार को इस मुद्दे की जानकारी है और जल्द ही वह एक राष्ट्रीय अंतरिक्ष नीति के साथ एक अंतरिक्ष विधेयक जारी करने की प्रक्रिया में है. विशेष रूप से अंतरिक्ष विधेयक में इस सेक्टर में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति के दायरे को परिभाषित करना चाहिए. इससे अमेरिकी कंपनियों को इस बात पर ज़रूरी सफाई मिलेगी कि भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में वे किस हद तक हिस्सा ले सकती हैं.
सिविल स्पेस सहयोग पर यूएस-इंडिया ज्वॉइंट वर्किंग ग्रुप (JWG) में ज़रूरी बदलाव. मार्च 2005 में बना, यूएस-इंडिया ज्वॉइंट वर्किंग ग्रुप नागरिक अंतरिक्ष गतिविधियों के क्षेत्र में विचारों का आदान-प्रदान और सहयोग का विस्तार करना चाहता है. हालांकि ऐसा लगता है कि, ग्रुप के अनुसार, अंतरिक्ष में व्यावसायिक सहयोग दोनों देशों के बीच कभी फोकस में नहीं रहा. इसकी तुलना अंतरिक्ष सहयोग के लिए मार्च 2018 में दस्तखत हुए भारत-फ्रांस ज्वॉइंट विज़न से कीजिए.
इस करार का उद्देश्य एक द्विपक्षीय अंतरिक्ष संवाद स्थापित करना है जिसमें सिर्फ रक्षा और अंतरिक्ष एजेंसियों के विशेषज्ञ नहीं बल्कि बाहरी अंतरिक्ष की आर्थिक चुनौतियों पर चर्चा के लिए स्पेस इकोसिस्टम के विशेषज्ञ भी शामिल हैं. वास्तव में, भारत को इसके गगनयान मिशन में मदद कर रहे 6 देशों में, फ्रांस का नाम प्रमुखता से आता है. अमेरिका और भारत को ज़्यादा व्यावसायिक आदान-प्रदान के माध्यम से इस क्षेत्र में अपनी साझेदारी को मज़बूत करने पर विचार करना चाहिए. इसलिए, ज्वॉइंट वर्किंग ग्रुप में एक व्यावसायिक तत्व (उनकी निजी क्षेत्र की कंपनियों की भागीदारी के माध्यम से) जोड़ने पर, विचार किया जाना चाहिए.
हाई-टेक आइटम्स में व्यापार को बढ़ावा देना. जब प्रौद्योगिकियों पर काम करने और उन्हें साथ मिलकर विकसित करने की बात आती है तो, अमेरिकी विदेश मंत्रालय के इंटरनेशनल ट्रैफिक इन आर्म्स रेगुलेशंस और अमेरिकी वाणिज्य मंत्रालय के एक्सपोर्ट एडमिनिस्ट्रेशन रेगुलेशंस भारतीय और अमेरिकी कंपनियों के लिए प्रासंगिक हो जाते हैं. हालांकि, वैसे तो भारत को 2018 में अमेरिकी वाणिज्य मंत्रालय की तरफ से जारी स्ट्रैटेजिक ट्रेड ऑथराइजेशन-1 छूट मिलती है, 2021 के आंकड़े बताते हैं कि यूएस ब्यूरो ऑफ इंडस्ट्री एंड सिक्योरिटी लाइसेंस एग्ज़ेम्प्शन ऑथराइजेशन के तहत अमेरिका से भारत में सिर्फ 32.58 करोड़ डॉलर का एक्सपोर्ट हुआ, 2020 में हुए 34.02 करोड़ डॉलर से भी कम.
इसके अलावा, 2021 में 1.37 करोड़ डॉलर के ग्यारह लाइसेंस आवेदनों को भी अस्वीकार कर दिया गया था. इसलिए, यहां ऐसा लगता है कि व्यापार का स्तर कितना छोटा है. यहां तक कि, स्टेकहोल्डर्स के साथ चर्चा में भी पता चला कि अस्वीकृतियां कम हैं, लेकिन अमेरिकी एक्सपोर्ट कंट्रोल कानून के हिसाब से जो कागज़ी कार्रवाई करनी पड़ती हैं, वे बोझिल हैं. वॉशिंगटन इस ढांचे को सुधारने पर विचार कर सकता है क्योंकि दूसरे देश जो इन कानूनों से नहीं दबे हैं, वे अमेरिकी कंपनियों की कीमत पर बाज़ार में अपना हिस्सा बढ़ा सकते हैं.
निष्कर्ष यह है कि, जब अंतरिक्ष सहयोग की बात आती है तो पिछले कुछ दशकों में अमेरिका भारत का स्थायी पार्टनर रहा है. यहां तक कि चंद्रयान-1 में भी अमेरिका का विकसित किया गया मून मिनरलॉजी मैपर और एक मिनिएचर सिंथेटिक अपर्चर रडार था. इस मिशन की सकारात्मकता इस तथ्य को उजागर करती है कि दोनों पक्षों को बड़ा लाभ हो सकता है, बशर्ते वो अंतरिक्ष क्षेत्र में अपने उच्च-तकनीकी सहयोग को आगे बढ़ाएं. इसके लिए दोनों देशों के निजी क्षेत्र की कंपनियों के बीच जुड़ाव बढ़ाने और इस क्षेत्र में द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ाने के लिए वॉशिंगटन और नई दिल्ली को आवश्यक तंत्र बनाने की ज़रूरत होगी.
क्वांटम कम्प्यूटिंग: एक प्रभावी साझेदारी का निर्माण
अर्जुन कंग जोसेफ
अर्जुन कंग जोसेफ कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस इंडिया में टेक्नोलॉजी एंड सोसाइटी प्रोग्राम के एक सीनियर रिसर्च एनालिस्ट और और स्ट्रैटेजिक डेवलपमेंट कोऑर्डिनेटर हैं.
क्वांटम कम्प्यूटिंग संभावित रूप से स्वास्थ्य, फाइनेंस, कृषि, साइबर सुरक्षा, और लॉजिस्टिक्स समेत ढेरों सेक्टर्स पर परिवर्तनकारी प्रभाव डाल सकता है. सरकारों ने भी राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा क्षेत्र पर इसके संभावित असर के चलते क्वांटम में भारी निवेश किया है.
भारत ने 2020 में करीब 96.8 करोड़ डॉलर के बजट वाले नेशनल मिशन ऑन क्वांटम टेक्नोलॉजी एंड ऐप्लिकेशन की घोषणा के साथ ग्लोबल क्वांटम कम्प्यूटिंग रेस में औपचारिक रूप से प्रवेश किया. इस इकोसिस्टम को घरेलू स्तर पर और रणनीतिक साझेदारों के साथ पार्टनरशिप दोनों के माध्यम से, सही प्रोत्साहन देकर, चीन, ब्रिटेन, और अमेरिका जैसे वैश्विक नेताओं के साथ इसकी तुलना करने के लिए इसे आगे बढ़ाया जा सकता है.
शतक्रतु साहू
शतक्रतु साहू कार्नेगी इंडिया में टेक्नोलॉजी एंड सोसाइटी प्रोग्राम में प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर और रिसर्च असिस्टेंट हैं.
अमेरिका, हालांकि पहले से ही इस क्षेत्र में लीडर है, लेकिन इसने अपनी पोज़िशन बनाए रखने के लिए खुद के क्वांटम कम्प्यूटिंग इकोसिस्टम के विकास को प्राथमिकता दी है और बड़ी फंडिंग के साथ इन प्रयासों को सहारा दिया है.
iCET का उद्देश्य परिणाम-उन्मुख सहयोग को आसान बनाना और दोनों देशों की सरकारों, शिक्षा क्षेत्र, और इंडस्ट्री के बीच मज़बूत संबंध बनाना है. यह दोनों देशों की ताकतों का फायदा उठाकर और फंडिंग, शिक्षा और टैलेंट की उपलब्धता, और हार्डवेयर और मैन्युफैक्चरिंग विकास जैसी चुनौतियों का हल निकालकर, उनकी क्वांटम कम्प्यूटिंग इकोसिस्टम की ग्रोथ को आगे बढ़ाने वाला ज़रिया बन सकता है. इस पार्टनरशिप से असरदार नतीजे हासिल करने के लिए दोनों देश जो कुछ कदम उठा सकते हैं, वे इस प्रकार हैं.
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पार्टनरशिप, इंगेजमेंट, और फंडिंग को सुविधाजनक बनाना
भारत और अमेरिका क्वांटम कम्प्यूटिंग के लिए फोकस्ड पार्टनरशिप कर सकते हैं जहां शिक्षा क्षेत्र, उद्योग, और सरकारों के स्टेकहोल्डर्स को आपसी और दोनों देशों में अपने समकक्षों के साथ सहयोग के लिए साझा मंच या फोरम दिया जा सके. इन स्टेकहोल्डर्स के लिए एक दूसरे के साथ जुड़ने का एक औपचारिक तंत्र होने के अलावा इस मंच या फोरम को तीन उद्देश्यों को हासिल करने पर ध्यान देना चाहिए.
सबसे पहले, इसे दोनों देशों में क्वांटम कम्प्यूटिंग इकोसिस्टम्स में मौजूद मुश्किल बिंदुओं, चुनौतियों, और नीति की कमियों पर चर्चा में स्टेकहोल्डर्स को शामिल करने के लिए जगह बनाने की ज़रूरत है. दूसरा, इसे दोनों देशों के इकोसिस्टम में स्टेकहोल्डर्स को दोनों देशों में विकसित हो रहे क्वांटम कम्प्यूटिंग के विभिन्न रिसर्च प्रोजेक्ट्स और ऐप्लिकेशंस की जानकारी देने के लिए एक अवसर के रूप में काम करना चाहिए. इन दो उद्देश्यों को हासिल करने से दोनों इकोसिस्टम एक-दूसरे के अनुभव से अपने स्वयं के प्रयासों का भरपूर इस्तेमाल कर पाएंगे, साथ ही प्रयासों में दोहराव से बचने और समान ऐप्लिकेशंस पर काम कर रहे संस्थानों के बीच सहयोग को सुगम बनाने में भी मदद मिलेगी.
अंत में, फोरम को दोनों देशों के शिक्षा क्षेत्र, उद्योग और सरकार के लिए एक ऐसी जगह के रूप में काम करना चाहिए जहां इनोवेशन पर नकारात्मक असर डाले बिना क्वांटम टेक्नोलॉजी के रेगुलेशन के लिए एक ढांचा तैयार किया जा सके. ब्रिटेन के रेगुलेटरी होराइज़न्स काउंसिल के समान एक तंत्र अपनाया जाना दोनों देशों के इकोसिस्टम के लिए बेहद फायदेमंद होगा, जो अर्थव्यवस्था और समाज पर उभरती प्रौद्योगिकियों के असर का पता लगा सके और उन प्रौद्योगिकियों को सुरक्षित ढंग से और जल्दी लागू करने के लिए ज़रूरी रेगुलेटरी सुधार का सुझाव दे सके.
दोनों इकोसिस्टम में स्टेकहोल्डर्स के बीच सहयोग की भावना को और आगे बनाने के लिए, दोनों सरकारों को एक ज्वॉइंट फंड बनाना चाहिए, जो दोनों देशों में शिक्षा, इंडस्ट्री प्रोफेशनल, और सरकारी संगठनों के बीच संयुक्त परियोजनाओं को प्रोत्साहन दे और सक्षम बनाए.
एजुकेशन और टैलेंट-बिल्डिंग
तकनीकी क्षेत्र में भारतीय प्रतिभा की ऐतिहासिक रूप से मांग रही है, खास तौर पर अमेरिका के उद्योगों में. क्वांटम कम्प्यूटिंग के क्षेत्र में, भारत ने अपने शीर्ष शिक्षण संस्थानों के माध्यम से समर्पित पाठ्यक्रमों और केंद्रों के साथ एक शिक्षा व्यवस्था विकसित करनी शुरू कर दी है. अमेरिका, जहां क्वांटम सूचना विज्ञान और तकनीकी कार्यबल की मांग है, क्वांटम कम्प्यूटिंग के लिए अपनी वर्कफोर्स तैयार करने के लिए भारत के टैलेंट पूल से संभावित लाभ उठा सकता है.
क्वांटम कम्प्यूटिंग वर्कफोर्स के सबसे बड़े एम्प्लॉयर के तौर पर दोनों देशों के उद्योगों को टैलेंट और वर्कफोर्स के लिए स्किल को लेकर अपनी ज़रूरतें बताने के लिए कहा जाना चाहिए. यह अनुमानित आवश्यकता दोनों देशों में सह-पाठ्यक्रम के निर्माण पर सहयोग के लिए शिक्षाविदों के प्रयासों का मार्गदर्शन कर सकती है जिससे दोनों देशों में प्रतिभा और ज्ञान की आवाजाही खुलकर हो सके. इस पाठ्यक्रम का फोकस क्वांटम कम्प्यूटिंग के लिए ज़रूरी हार्डवेयर डेवलपमेंट और प्रोग्रामिंग विशेषताओं में अंतर-विषयक कौशल को शामिल करने पर होना चाहिए. ऐसा पाठ्यक्रम तैयार करने की दिशा में पहला कदम होना चाहिए भारत (आईआईटी मद्रास, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस-बंगलुरु, और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च-पुणे) और अमेरिका (एमआईटी सेंटर फॉर थियरेटिकल फिज़िक्स, शिकागो क्वांटम एक्सचेंज, और हार्वर्ड क्वांटम इनिशिएटिव) के बीच क्वांटम कम्प्यूटिंग पर फोकस वाले बड़े शिक्षण संस्थानों की संयुक्त कार्यशालाओं का आयोजन.
एक और कदम जो इस वर्कफोर्स के विकास में बड़ा योगदान देगा, वो ऐसी साझेदारियों का निर्माण होगा जो छात्रों और युवा प्रोफेशनल्स को इंटर्नशिप के अवसर और ट्रेनिंग दें. सेमीकंडक्टर वर्कफोर्स विकसित करने के लिए भारत सरकार की हाल की साझेदारियों जैसा मॉडल प्रोफेशनल्स को प्रशिक्षित करने के लिए अपनाया जा सकता है. भारतीय छात्रों को अमेरिका में विकसित क्वांटम प्रयोगशालाओं के दौरे और दिग्गज अमेरिकी कंपनियां में इंटर्नशिप से फायदा होगा, जिनमें आईबीएम, कोलक्वांटा, गूगल की क्वांटम एआई, और माइक्रोसॉफ्ट की एज़्योर क्वांटम शामिल हैं, जिन सभी का फोकस क्वांटम हार्डवेयर के विकास पर है. इसी तरह, अमेरिकी छात्र भारत जैसे विविध वातावरण में बड़े पैमाने पर काम करने वाले क्वांटम प्रोग्राम और ऐप्लिकेशन डेवलप करने के बारे में सीखने के लिए प्रमुख भारतीय क्वांटम रिसर्च सेंटरों और प्रयोगशालाओं का दौरा कर सकते हैं.
हार्डवेयर और मैन्युफैक्चरिंग
अधिकांश सरकारें रणनीतिक महत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा पर इसके प्रभाव की वजह से क्वांटम हार्डवेयर के एक्सपोर्ट पर प्रतिबंध लगाती हैं. ऐसे माहौल में, क्वांटम की चाहत रखने वाले किसी भी देश के लिए क्वांटम हार्डवेयर की घरेलू मैन्युफैक्चरिंग क्षमताएं विकसित करना ज़रूरी है.
अमेरिका क्वांटम कम्प्यूटिंग क्षमताओं में ग्लोबल लीडर है: इसके पास सबसे बड़ी संख्या में देश द्वारा जारी क्वांटम कम्प्यूटिंग पेटेंट हैं, साथ ही क्वांटम कम्प्यूटिंग के लिए एक जीवंत निजी क्षेत्र है, और अमेरिकी कंपनियां अपने आप में ग्लोबल क्वांटम रेस का नेतृत्व करती हैं. उदाहरण के लिए, आईबीएम का ईगल प्रोसेसर वर्तमान में 127 क्युबिट्स का दुनिया का सबसे बड़ा सुपरकंडक्टिंग क्वांटम कम्प्यूटर है. इसके विपरीत, भारत अभी अपनी क्वांटम हार्डवेयर क्षमताओं को विकसित कर रहा है और इसका लक्ष्य 2026 तक 50 क्युबिट का एक क्वांटम कम्प्यूटर विकसित करने का है. सहयोग के प्रयासों और निवेश के ज़रिए, भारत क्वांटम हार्डवेयर मैन्युफैक्चरिंग में अमेरिका की मज़बूती से बड़ा लाभ उठा सकता है. अमेरिका भारत को एक बेसिक स्तर की मैन्युफैक्चरिंग क्षमता विकसित करने और क्वांटम टेक्नोलॉजी के लिए ज़रूरी कंपोनेंट के लिए इंपोर्ट पर निर्भरता घटाने में मदद कर सकता है.
इस बीच, भारत को क्वांटम हार्डवेयर पर एक्सपोर्ट प्रतिबंध में अमेरिकी छूट एक स्वागत योग्य कदम होगा. दूसरी अस्थायी व्यवस्था आईबीएम क्वांटम नेटवर्क और अमेज़ॉन वेब सर्विस की ब्रैकेट सर्विस जैसे कार्यक्रमों या पहलों तक अधिक पहुंच की छूट देकर भारतीय शिक्षण संस्थानों और स्टार्ट-अप्स और अमरेकी कंपनियों के बीच करार को प्रोत्साहित करना हो सकता है.
निष्कर्ष
छोटी अवधि में, एक साझा मंच और परियोजनाओं पर संयुक्त रूप से पैसे खर्च करने से दोनों इकोसिस्टम के बीच जुड़ाव बढ़ेगा. मध्यम अवधि में, साझा ढंग से प्रशिक्षित किए गए कार्यबल में निवेश से क्वांटम हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर विकसित करने के लिए आवश्यक प्रतिभा की ज़रूरत पूरी होगी. लंबी अवधि में, हार्डवेयर और मैन्युफैक्चरिंग क्षमताओं के विकास से दोनों देश ग्लोबल क्वांटम की दौड़ में आगे हो सकते हैं. ये कदम भारत और अमेरिका दोनों में क्वांटम कम्प्यूटिंग की क्षमता को खोलते हुए वास्तव में एक रणनीतिक साझेदारी बनाने के लिए iCET को असरदार ज़रिया बनाएंगे.
सेमीकंडक्टर्स पर अमेरिका-भारत पार्टनरशिप: क्या ये ICET पर दांव लगाने का समय है?
कोणार्क भंडारी
कोणार्क भंडारी कार्नेगी इंडिया में एसोसिएट फेलो हैं.
यह बात अब पुरानी हो गई है कि दुनिया सेमीकंडक्टर की कमी से जूझ रही है. सेमीकंडक्टर की इस भारी किल्लत के जवाब में- जिनका इस्तेमाल सिर्फ कॉमर्शियल क्षेत्र में नहीं बल्कि स्ट्रैटेजिक इंडस्ट्री में भी है- विभिन्न देशों ने अपनी खुद की सेमीकंडक्टर नीति बना ली है. लेकिन सेमीकंडक्टरों के लिए जैसी जटिल सप्लाई चेन है, उसमें यह साफ़ नहीं है कि क्या एक अकेली नीति, चाहे वह कितनी भी अनोखी क्यों न हो, आत्मनिर्भरता हासिल करने के मुद्दे पर क्या वह किसी एक देश को बाकियों से आगे रख सकती है?
दशकों में तैयार हुई एक ग्लोबल सप्लाई चेन में, ये नई नीतियां एक झटके में फिर से बदलाव नहीं ला सकतीं, क्योंकि प्रक्रिया के विभिन्न हिस्सों को स्थानांतरित करना एक कठिन और महंगा सुझाव है. छोटे से मध्यम अवधि के ऐसे परिदृश्य में, देशों के लिए सबसे अच्छा होगा, किसी किल्लत को हल करने के लिए समान सोच वाले भागीदारों के साथ मिलकर काम करना. हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि ऐसी साझेदारियों का पूरा फ़ायदा उठाया जा सके. इन साझेदारियों को सिर्फ सप्लाई चेन में विविधता लाने और अवरोध बिंदुओं को दूर करने के लिए एक रणनीतिक ज़रूरत के तौर पर देखने के बजाय, इन्हें एक व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए.
इसी संदर्भ में सेमीकंडक्टर को सहयोग के एक क्षेत्र के तौर पर देखने की अमेरिका-भारत की हालिया iCET घोषणा एक भरोसा जगाती है. यह पहल सिर्फ सरकारी साझेदारियों तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि इसका उद्देश्य उद्योगों को भी आपस में जोड़ना होगा. वैसे तो यह अभी शुरुआत भर है, नीचे कुछ प्रस्ताव दिए गए हैं कि इन संबंधों को कैसे बनाया जा सकता है.
RISC-V आर्किटेक्चर सहयोग. चिप निर्माण में दूसरे देशों द्वारा लगाई जा रही भारी पूंजी को देखते हुए, अमेरिका को घरेलू निर्माण बढ़ाने के लिए बड़ी पूंजी खर्च करते रहना होगा. यहां सेमीकंडक्टर तकनीक की मौजूदा स्थिति से छलांग लगाकर चिप के लिए नए आर्किटेक्चर पर फोकस करना एक अवसर हो सकता है, यह आर्किटेक्चर है रिड्यूस्ड इंस्ट्रक्शन सेट कम्प्यूटिंग (RISC-V) आर्किटेक्चर का पांचवा संस्करण. RISC-V आर्किटेक्चर से चिप डिज़ाइन करना बहुत सस्ता हो जाता है. यह ओपन-सोर्स हार्डवेयर पर आधारित है, कम मेमरी इस्तेमाल करता है, और सेमीकंडक्टर उद्योग में बड़ा बदलाव लाने की क्षमता रखता है. भारत, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, मद्रास के माध्यम से, पहले से ही एक स्वदेशी RISC-V प्रोसेसर शक्ति माइक्रोप्रोसेसर पर काम कर रहा है और अप्रैल 2022 में नेक्स्ट जेनरेशन माइक्रोप्रोसेसर के लिए एक डिजिटल इंडिया RISC-V प्रोग्राम भी लॉन्च किया गया है.
RISC-V आर्किटेक्चर को इस्तेमाल करने का मुख्य लाभ साफ़ है कि यह मुफ़्त में उपलब्ध है. यह आर्म्स माइक्रोप्रोसेसर की तरह लाइसेंस्ड नहीं है, जो मोबाइल उपकरणों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है, और न ही यह दूसरे कम्प्यूटिंग उपकरणों में इस्तेमाल होने वाली x86 चिप्स की तरह बेचा जाता है. चीन भी इन प्रोसेसरों की उपयोगिता को समझ चुका है- RISC-V इंटरनेशनल पर तकनीकी संचालन समिति के ग्यारह मुख्य सदस्यों में से, 8 का मुख्यालय चीन में है. इसलिए भारत और अमेरिका इस आर्किटेक्चर को करीबी सहयोग और RISC-V माइक्रोप्रोसेसर का संयुक्त विकास करने के लिए एक मार्ग के तौर पर देखने पर विचार कर सकते हैं.
प्रतिभा के संयुक्त कौशल में संभावनाएं तलाशना. इंजीनियरिंग प्रतिभा भारत में बहुत है. हालांकि, इंडस्ट्री स्टेकहोल्डरों से मिले सुझावों के मुताबिक प्रतिभा के गठन पर एक समग्र दृष्टिकोण होना चाहिए. उदाहरण के लिए, वास्तविक चुनौती पूंजी जुटाने, प्रोडक्ट डेवलपमेंट, लॉजिस्टिक्स, और ब्रांडिंग जैसे दूसरे क्षेत्रों में प्रतिभा विकसित करने में है. इसलिए, हार्डवेयर इंजीनियरिंग उन क्षेत्रों में से सिर्फ एक है जिसे प्रोत्साहन की आवश्यकता है. इसी तरह, अमेरिका में, सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री प्रोफेशनल सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में अपने समकक्षों की तुलना में ज़्यादा कमाते हैं, लेकिन सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में लेबर मार्केट ज़्यादा गहरा होने के कारण हार्डवेयर प्रोफेशनल की संख्या सीमित है, जिसका मतलब है कि सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में ज़्यादा नौकरियां उपलब्ध हैं. भारत, अपनी चिप्स टू स्टार्टअप स्कीम के माध्यम से, सेमीकंडक्टर वैल्यू चेन के सभी चरणों में पहले ही करीब 85,000 इंजीनियरों के कौशल का काम शुरू कर चुका है.
इसे भारत में एक सौ शिक्षण संस्थानों (मुख्य रूप से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, और अन्य आरएंडडी संगठन) के साथ साझेदारी में लागू किया जाएगा. अमेरिका ने भी अमेरिकन सेमीकंडक्टर एकेडमी और एसईएमआई (SEMI) के माध्यम से ऐसी ही एक पहल शुरू की है जिसका उद्देश्य 200 से ज़्यादा अमेरिकी विश्वविद्यालयों को 1500 सेमीकंडक्टर कंपनियों के साथ जोड़ना है जिनका कामकाज अमेरिका में है. यह देखते हुए कि भारत पहले ही अपने प्रोफेशनल्स को प्रशिक्षित करने के लिए सिंगापुर की साइंस, टेक्नोलॉजी और रिसर्च एजेंसी, ताइवान की इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूट, और बेल्जियम के इंटरयूनिवर्सिटी माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स सेंटर के साथ करार कर चुका है, दूसरी व्यापक साझेदारी चिप्स टू स्टार्टअप स्कीम के हिस्से के रूप में अमेरिकन सेमीकंडक्टर एकेडमी और एसईएमआई के साथ खोजी जानी चाहिए, जो अमेरिकी प्रोफेशनल्स को भी प्रशिक्षण कार्यक्रमों के अंदर लाएगा, साथ ही भारतीय इंजीनियरों को अमेरिकन सेमीकंडक्टर एकेडमी और एसईएमआई के प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेने देगा.
चिप्स के लिए तकनीकी नोड्स की सभी पीढ़ियों पर विचार करना. भारत सरकार ने दिसंबर 2021 में एक नई सेमीकंडक्टर निर्माण नीति से पर्दा उठाया. हालांकि, स्टेकहोल्डरों का मत है कि लीडिंग-एज नोड्स सेगमेंट में फ़ाउंड्री लगाने की लंबी अवधि को देखते हुए, मैच्योर नोड्स पर भी बराबर ध्यान देना चाहिए, जिन्हें बनाना अपेक्षाकृत आसान है और जिनकी भारी किल्लत भी है (विशेषकर 45-90 नैनोमीटर सेगममेंट में). असल में, भारत सरकार ने इस सोच को दर्शाने के लिए हाल में अपनी नीति में संशोधन किया है.
पहले, भारत सरकार 28 नैनोमीटर से छोटे नोड्स का उत्पादन कर रही कंपनियों को ज़्यादा वित्तीय सहायता देती थी, वहीं 28-45 नैनोमीटर और 45-65 नैनोमीटर वाले नोड्स को कम वित्तीय मदद मिल रही थी. अब यह अंतर दूर हो गया है. चार से पांच उद्योग जो इन मैच्योर नोड्स का इस्तेमाल करते हैं, जैसे कि प्वाइंट ऑफ सेल टर्मिनल, सिक्योरिटी कैमरा, इलेक्ट्रिक व्हीकल्स, और पावर इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, सरकार के लिए प्राथमिकता वाले क्षेत्र बनाए जाने चाहिए. आर्थिक रूप से टिके रहने के लिए फाउंड्रीज़ को उच्च-क्षमता (लगभग 95%) पर इस्तेमाल किया जाना चाहिए. इस तरह के निर्माण में कम पूंजी की ज़रूरत और प्वॉइट ऑफ सेल टर्मिनल, सिक्योरिटी कैमरा, इलेक्ट्रिक व्हीकल, और पावर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में जबर्दस्त भारतीय बिक्री के आंकड़ों को देखते हुए, अमेरिकी चिप निर्माताओं के लिए ऐसे प्लांट लगाने और उनमें निवेश का एक अवसर मौजूद है.
हाल ही में “फ्रेंड शोरिंग” पर कड़ी नज़र रखने की ज़रूरत के बारे में बात की गई है, यह शब्द चुनिंदा देशों के समूह का वर्णन करने के लिए गढ़ा गया है जो साथ जुड़े हैं और “सप्लाई चेन के खतरे को कम करने के लिए भरोसेमंद देशों के लिए मुख्य इनपुट के कारोबार को सीमित करते हैं”. दूसरे उद्योगों में प्रतिस्पर्धा को रोकने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल करने वाली संरक्षणवादी लॉबियों से लेकर फ्रेंड-शोरिंग के अधीन क्षेत्रों में उभरती सीमित स्पर्धा तक इसकी चिंता पर आवाज़ उठाई गई है.
हालांकि, इन खास चिंताओं को लॉबिंग और एंट्रीट्रस्ट कानूनों को रेगुलेट करने वाले नियमों द्वारा बेहतर तरीके से सुलझाया जा सकता है. इसके अलावा, ऐसे सुझाव गलत हैं कि सप्लाई चेन के इस्तेमाल से देशों के बीच आर्थिक अंतर-निर्भरता बनाने में मदद मिलेगी और, इससे युद्ध की संभावना घट जाएगी. उदाहरण के लिए, चीन के दक्षिण कोरिया और जापान दोनों के साथ लगातार बढ़ रहे द्विपक्षीय व्यापार के बावजूद राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं के चलते द्विपक्षीय व्यापार कई बार बाधित हो चुके हैं, चाहे वो दक्षिण कोरिया में टर्मिनल हाई एल्टीट्यूड एरिया डिफेंस मिसाइल डिफेंस सिस्टम का पता लगाना हो, या जापान द्वारा सेनकाकू द्वीपों का निजीकरण हो. iCET को इस बात का श्रेय जाता है कि, यह महसूस कर चुका है कि, व्यापार एक ज़ीरो-सम गेम (एक पक्ष के फायदे के बराबर दूसरे पक्ष को नुकसान) नहीं है जिसमें देशों के समुदाय अपने प्रोडक्ट स्पेशलाइजेशन के आधार पर एक-दूसरे के साथ व्यापार करते हैं. जब सेमीकंडक्टर्स जैसे इनपुट तक पहुंच की अहमियत बढ़ रही है, तब कार्यक्षमता बढ़ाने के नाम पर सप्लाई चेन की मज़बूती को छोड़ने के लिए निकट भविष्य में बहुत से लोग तैयार नहीं होंगे.
सभी औद्योगिक नीतियों की तरह, जिनमें अटकल का एक तत्व हमेशा रहता है, अमेरिका और भारत दोनों की सेमीकंडक्टर नीतियां सप्लाई चेन को अधिक लचीला और सुरक्षित बनाने का एक जुआ हैं. इस पार्टनरशिप की असली परीक्षा यह होगी कि क्या iCET का ढांचा एक ऐसा मंच बन सकता है जिस पर ऐसी घरेलू नीतियों का समन्वय किया जा सके. लेकिन गैंबलिंग की दुनिया से एक मुहावरा उधार लिया जाए तो कह सकते हैं कि भविष्य को देखकर दांव लगाया जा सकता है.
कार्नेगी सार्वजनिक नीतिगत मुद्दों पर संस्थागत राय नहीं रखता है; यहां व्यक्त विचार लेखक या लेखकों के हैं और ज़रूरी नहीं है कि कार्नेगी, इसके कर्मचारी या इसके ट्रस्टी इन विचारों से सहमत हों.
लेखक के विचार निजी हैं. यह लेख कार्नेगी इंडिया में पहले पब्लिश हो चुका है.
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